गजल विविधा सुलगा हुआ जग लग रहा July 1, 2015 / June 30, 2015 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment सुलगा हुआ जग लग रहा, ना जल रहा ना बुझ रहा; चेतन अचेतन सिल-सिला, पैदा किया यह जल-जला । तारन तरन सब ही यहाँ, संस्कार वश उद्यत जहान; विधि में रमे सिद्धि लभे, खो के भरम होते सहज । आत्मीय सब अन्तर रहे, माया बँधे लड़ते रहे; जब भेद मन के मिट गये, उर सुर […] Read more » सुलगा हुआ जग लग रहा