कविता
डाकघर का लौह मुहर देख प्रेमपत्र सिहर उठता
/ by विनय कुमार'विनायक'
—विनय कुमार विनायकडाकघर;एक पूर्ण सरकारी दफ्तरबाबा आदम युग से पाकरएक प्यारी मुंहबोली संज्ञाआज भी कहलाता डाकघर,यही हकीकत नही माखौल!डाकघर की जय बोल! डाकघर की छाती पर,इस चीक-चाक के दौर मेंगौ की घंटी सी टंगी गोल,चिर भुख्खड़ सा मुंह खोलेअपूर्ण,अतृप्त,अनबोली पेटी,कहलाती डाकघर का ढोल!डाकघर की जय बोल! डाकघर!प्राचीन परम्परा का रखवाला,सेफ-संदूक,लॉकर-बंदूक के युग मेंबोरे में रुपया […]
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