विवेक कुमार पाठक

कुछ पल तो ठहरते वक्त
आज तुम नहीं हो साथ
आता है बार बार ख्याल
वो साथ नहीं है
क्योंकि तब वक्त साथ न था
क्यों वक्त क्या खता थी हमारी
कुछ पल तो ठहर जाते तुम
क्या सावन के बाद बसंत आया कभी
क्या उगता सूरज लौटा पूरब कभी
क्या घड़ी की सुइयां पीछे मुड़ी कभी
फिर तुम क्यों बदल गए
क्यों जल्दी चल पड़े
आया याद कुछ तुम्हें
तुम्हारे लंबे कदम खता कर गए
सदियों से भी बहुत ज्यादा
तुम ठहर सकते थे न
जब टूटने लगी मां की जीवनडोर
तुम काल हो क्या पूछूं तुम्हें
मगर बताओ क्यों न रुके मेरे लिए
कुछ पल तो देते ओ निष्ठुर तुम
मां का हृदय रुठ गया तब
क्यों नहीं होने दिया मां बेटे का मिलन
क्या बालक को नहीं हक जरा
अपनी मां को गोद में लेने का
जो फिर कभी न आएगी गोद में
और यादें रह जाएंगी उसकी गोद
पल दो पल सही
तुम रुक जाते
वो अनंत से पहले होती मेरे पास
शायद जाने से पहली कुछ बात
मेरे बचपन की, हंसाने की
सताने की, रुलाने की
और बहुत सारा
जो रह गया अनकहा अनसुना
तुम निर्दयी हो बहुत
वो जरुर बोलती वो बात
जो बात उदयाचल सूरज न थी मगर
मगर मेरे कानों में गूंजते हैं
फिर वही अनकहे शब्द
पृथ्वी से भारी वो शब्द
जाने के बाद ख्याल रखना बेटा
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ,दिल को छू गई