-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य जीवन हमें शरीर व आत्मा की उन्नति के लिये मिला है। इन दोनों की उन्नति होने पर ही हम अपनी सामाजिक
एवं लौकिक उन्नति कर सकते हैं। शरीर की उन्नति का तात्पर्य यह है कि हमारा शरीर निरोग,
पूर्ण स्वस्थ व बलवान हो। शरीर में यथोचित शक्ति सहित सभी प्रकार के शारीरिक कार्यों करने
की क्षमता होनी चाहिये। इसके लिये हमें बाल्यकाल से ही अपने शरीर की उन्नति पर ध्यान
होगा। शरीर की उन्नति का पहला पाठ यह प्रतीत होता है कि हमें रात्रि समय लगभग 10.00 बजे
सो जाना चाहिये और प्रातः लगभग 4.00 बजे जाग जाना चाहिये। प्रातः उठकर हमें अपने
आवश्यक नित्य कर्मों को करने में संकल्पपूर्वक लग जाना चाहिये। प्रातः उठकर प्रथम ईश्वर से
वेद के पांच मन्त्रों से ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना करने का विधान है। इसके बाद शौच जिसमें मल-
मूत्र का त्याग व स्नान आदि कर्म सम्मिलित हैं, करने होते हैं। प्रातः 4.00 उठने पर पहला कर्तव्य
ईश्वर को स्मरण कर प्रातःकलानी वेदमन्त्रों का उनके अर्थों के चिन्तन सहित पाठ करना होता
है। इससे हमें ईश्वर से अपने दिन को सुदिन व बुराईयों से दूर रखने में सहायता मिलती है। इसके
प्रातः भ्रमण का समय है जो कि 1 से 2 घंटे के मध्य का अपनी सुविधा के अनुसार किया जा सकता है। भ्रमण के बाद हमें आसन
व प्राणायाम करने चाहिये जिससे शरीर के सभी अंग स्वस्थ व बलवान रहें। इसके कुछ समय बाद स्नान, सन्ध्या एवं देवयज्ञ
अग्निहोत्र का अनुष्ठान किया जाना चाहिये जिससे हमारी आत्मिक उन्नति होने के साथ हमारी वैचारिक शुद्धि सहित
वातावरण एवं वर्षा जल आदि की शुद्धि व पुष्टि होती है। यज्ञ से वातावरण एवं वर्षा जल की शुद्धि सहित आरोग्यकारक एवं
बलवर्धक अन्न की उत्पत्ति होती है। अतः इन कामों को करने से हमारी शारीरिक उन्नति सहित आत्मिक उन्नति भी होती है।
आत्मिक उन्नति में स्वाध्याय का अत्यन्त महत्व है। स्वाध्याय यद्यपि वेदों के अध्ययन को कहा जाता है परन्तु वेदों सहित
ऋषियों के बनाये सत्य व निर्भ्रान्त ज्ञान से युक्त ग्रन्थों के अध्ययन से आत्मिक उन्नति सहित गुणों की वृद्धि होती है। हम
जितना अधिक स्वाध्याय व लौकिक जीवन उन्नति में सहायक ज्ञान सम्बन्धी विषयों का अध्ययन करेंगे, उसी के अनुरूप
हमारी आत्मिक व सामाजिक उन्नति होती है। हमारा जीवन वैदिक धर्म एवं संस्कृति की श्रेष्ठ परम्पराओं के पालन के अनुरूप
व्यतीत होना चाहिये। दिन में हमें धनोपार्जान हेतु अपने व्यवसायिक कार्यों को करना होता है। सायंकाल को हमें व्यायाम व
प्राणायाम सहित सन्ध्या व यज्ञ आदि करने का नियम बनाना चाहिये। सूर्यास्त के बाद हल्का भोजन करना व सोने से पूर्व
दुग्धपान उत्तम रहता है जिससे हमारा जीवन रोगरहित रहकर सुखपूर्वक व्यतीत हो सकता है।
मनुष्य को वैदिक धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करने सहित बाल्यकाल व उसके बाद लौकिक ज्ञान जिससे वह कृषि,
व्यापार, अच्छी नौकरी आदि प्राप्त कर सुखपूर्वक जीवनयापन कर सके, उसका भी अध्ययन करना होता है। मनुष्य की
आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति के लिये रविवार को आर्यसमाज मन्दिर में होने वाले साप्ताहिक यज्ञ एवं सत्संगों में जाने से
भी लाभ होता है। यहां प्रत्येक सप्ताह आर्यसमाज के विद्वान अनेक विषयों पर व्याख्यान देते हैं। अनेक विद्वानों के प्रवचनों
को सुनकर हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है जो हमें भी व्याख्यान देने की प्रेरणा करने के साथ अनेक नयी जानकारियों को उपलब्ध
कराते हैं। सत्संग में जाने का एक लाभ यह भी होता है कि यहां हमारा अनेक वैदिक विचारधारा के लोगों से सम्पर्क स्थापित
होता है। उनकी संगति से भी हम उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। देश में जो विद्वान होते हैं वह विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर,
स्वाध्याय-अध्ययन तथा विद्वानों के विचारों को सुनकर ही प्रेरणा प्राप्त कर ही धन-सम्पत्ति, यश व कीर्ति को प्राप्त होते हैं। यह
भी कह सकते हैं इन उपायों में मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। यदि हम महापुरुषों की आत्मकथाओं व जीवन चरितों को
पढ़ने का स्वभाव बना लें तो हमें अपने जीवन के निर्माण में यह अत्यन्त सहयोगी व उपयोगी हो सकता है। महापुरुषों के जीवन
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चरितों में ऋषि दयानन्द जी का जीवन चरित जो कि अनेक विद्वानों का लिखा हुआ उपलब्ध है, सबसे अधिक लाभप्रद है। ऋषि
दयानन्द भी अन्य सामान्य लोगों की तरह अपना जीवन व्यतीत कर सकते थे परन्तु उन्होंने सच्चे ईश्वर को जानने,
योगाभ्यास व उपासना से उस ईश्वर को प्राप्त करने तथा मनुष्य के मन में जितनी भी शंकायें हो सकती हैं, उनके सत्य व यथार्थ
उत्तर प्राप्त करने में लगाया। उनके समय में वह ज्ञान जो उन्होंने अपने तप व अनुसंधान से प्राप्त किया, वह ज्ञान उनके परिवार
के बड़े सदस्यों व विद्वान गुरुजनों से भी प्राप्तव्य नहीं था। उन्होंने वह विलुप्त ज्ञान न केवल अपनी आत्मिक उन्नति के लिये
प्राप्त किया अपितु उस दुर्लभ ज्ञान का प्रचार व प्रसार भी किया जिससे समाज व देश-देशान्तर के सभी लोग समान रूप से
लाभान्वित हुए। ऋषि दयानन्द ने समाज व देश के लोगों की सुविधा के लिये अपने उस ज्ञान को, जो उन्होंने कठिन पुरुषार्थ से
प्राप्त हुआ था, पुस्तक रूप में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, वेद-भाष्य आदि के द्वारा
प्रस्तुत किया। मनुष्य यदि इन ग्रन्थों का अध्ययन कर लें तो यह मनुष्य की आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति सहित शारीरिक
उन्नति में भी सहयोगी व लाभदायक होता है। स्वाध्याय व अध्ययन के लिये आजकल वैदिक विद्वानों के अनेकानेक
महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। आज का मानव भाग्यशाली है कि उसे सब विषयों के ग्रन्थ उपलब्ध हैं जिसे वह प्राप्त कर सकता है। 150-
200 वर्ष पूर्व यह सुविधा नहीं थी। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन के बाद अन्य विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन व मनन
भी किया जा सकता है। ऐसा करने से निश्चय ही मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक, सामाजिक एवं लौकिक उन्नति होती है।
जीवन की उन्नति व सफलता के लिये मनुष्य को विद्वानों व सच्चरित्र लोगों की संगति करनी चाहिये। उन्हें
विद्याविहीन, स्वाध्याय आदि में रुचि न रखने वाले तथा सत्य सिद्धान्तों को स्वीकार कर उनका आचरण न करने वाले
मनुष्यों की संगति नहीं करनी चाहिये। जीवन उन्नति में श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति व उनसे उपदेश प्राप्त करने सहित शंका
समाधान करने से बहुत लाभ होता है। स्वामी दयानन्द व उनके अनुयायी शीर्ष विद्वान इसी प्रक्रिया से विद्वान, ऋषि व
सामाजिक सुधारक बने थे। स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, पं0
लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, आचार्य चमूपति, महाशय राजपाल, महात्मा
नारायण स्वामी, डॉ0 रामनाथ वेदालंकार, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती आदि विद्वानों के नाम आते हैं जिन्होंने अपने शुभ
आचरणों, कार्यों एवं आर्ष ग्रन्थों के प्रणयन के माध्यम से देश व समाज की प्रशंसनीय सेवा की है। इन सबने मिलकर ईसा की
अट्ठारवी शताब्दी के उत्तरार्ध व उसके बाद सर्वांगीण क्रान्ति को जन्म दिया। समाज की उन्नति का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां
इन्होंने सुधार न किये हों। आज भी उनके द्वारा किये गये व सुझायें गये सभी कार्य प्रासंगिक एवं देश व समाज के लिये उपयोगी
हैं। इस मार्ग पर चल कर ही देश उन्नति करते हुए अपने सभी उच्च लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। यह भी देश का सौभाग्य है
कि आजकल देश में एक योग्य विचारों व उसके अनुरूप कार्य करने वाली केन्द्र सरकार विद्यमान है। देश की जनता की
मानसिक अवस्था एवं देश में विगत लगभग पांच हजार वर्षों में धर्म एवं सामाजिक मान्यताओं में विकृतियां आईं हैं,
अन्धविश्वास व कुरीतियां आदि उत्पन्न हुईं, उनका पूरा सुधार नहीं हो सका है। देश ने विगत 72 वर्षों में राजनीतिक व
सामाजिक स्तर पर वैचारिक निर्णयों में जो गलतियां की हैं, उनका कुछ सुधार किया जा रहा है। कश्मीर से ही उसे विशेष राज्य
व अधिकारों का दर्जा देने वाली धारायें हटा दी गई हैं। आर्यसमाज का संगठन यदि गतिशील व सबल होता तो देश में और अच्छे
परिणाम आ सकते थे। आज भी देश के समाने अनेक चुनौतियां एवं खतरे हैं। कहा नहीं जा सकता कि देश इन चुनौतियों का
सफलतापूर्वक सामना कर पायेगा अथवा नहीं? भविष्य में जो भी हो, परन्तु हमें अपने स्तर से भी ऋषि दयानन्द व वेदों की
विचारधारा को प्रचारित करने में अपना यथासम्भव योगदान करना चाहिये और देश में जिस राजनीतिक दल द्वारा हमारे
सिद्धान्तों के अनुकूल अधिकतम कार्य किये जा रहे हैं, उन्हीं को सहयोग करना चाहिये जिससे समाज व देश का भविष्य सुखद
व कल्याण से युक्त हो।
आज न केवल भारत अपितु विश्व में धन दौलत कमाना और सुख सुविधाओं के भोग करने को ही जीवन का उद्देश्य व
जीवन की सफलता माना जाता है। ऐसा ही सर्वत्र देखने को मिलता है। वैदिक दर्शन बताता है कि यह संसार जीवात्माओं को
उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के फल भोगने और श्रेष्ठ कर्म करने के लिये परमात्मा ने बनाया है। हम यदि शुभ और पुण्य कर्म करेंगे
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तो हमें मृत्यु के बाद मनुष्य योनि में पुनः मनुष्य जन्म मिलेगा जहां हमें स्वस्थ शरीर और धार्मिक विद्वान माता-पिता व
परिवार प्राप्त होगा। यदि हम इस जन्म में पक्षपात, अन्याय तथा अविद्या का सहारा लेकर धन कमा कर सुख व्यतीत करने में
ही जीवन को व्यतीत कर देंगे, ईश्वर, जीवात्मा और संसार के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानेंगे और ईश्वर की उपासना से आत्मा
को शुद्ध व पवित्र बनाकर ईश्वर की कृपा को प्राप्त नहीं करेंगे, तो हमारा यह जीवन अपने उद्देश्य व लक्ष्य से भटक कर इस
जन्म के उत्तर भाग वृद्धावस्था सहित पुनर्जन्म में भी दुःखों से युक्त तथा पशु आदि योनियों में हो सकता है। अतः सफल
जीवन हेतु हमें वेद व वेदाधारित ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्य को जानना होगा और उसी पथ पर चलना होगा। इसमें ईश्वर व
जीवात्मा के स्वभाव, क्षमताओं व कर्तव्यों का निर्धारण कर उसका अनुसरण करना होगा। वही जीवन सफल जीवन कहला
सकता है तथा उसी में हमारा व अन्य सभी का हित है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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