कविता

आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?

आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?

जिंदगी जीने से डरते हैं क्यों ?

फंदे पर लटककर झूले

जीवन है अनमोल ये भूले।

अपनों को देकर तो आंसू,

छोड़ दिए दुनिया में अकेले।

कभी ट्रेन के आगे आना,

कभी ज़हर को लेकर खाना।

कभी मॉल से छलांग लगा दी,

देते हैं वो खुद को आज़ादी।

इस आज़ादी के ख़ातिर वो,

अपनों को देते तकलीफ़

लोग हसंते ऐसी करतूतों पर,

करते नही हैं वो तारीफ़।

पिता के दिल का हाल ना पूछों,

माता पर गुजरी है क्या

इक छोटी सी कठिनाई के ख़ातिर,

क्यों कदम इतना बड़ा लिया उठा।

पुलिस आई है घर पर तेरे,

कर रही सबकों परेशान,

ख़ुद चला गया दुनिया से,

अपनों को किया परेशान।

संतुष्ठि मिल गई है तुमको

अपनी जान तो देकर के,

हाल बुरा है उनका देखो,

बड़ा किया जिसने पाल-पोसकर के।

जिंदगी की सच्चाई में क्यों?

इतना जल्दी हार गए।

आखिर मज़बूरी है क्या?

दुनिया के उस पार गए।

याद नही आई अपनों की,

करते हुए तो ऐसा काम,

क्या बीतेगी सोचते अगर,

नही देते इसकों अंजाम।

दुख का छाया, क्या है अकेले तुम पर

जो हो गए इतना मजबूर

औरों के दुख को भी देखो,

जख्म बन गए हैं नासूर।

हर समस्या का कभी तो,

समाधान भी निकलेगा।

ऊपर बैठा देख रहा जो,

उसका दिल भी पिघलेगा।

बुद्धदिली कहें इसे,

या कायरता कहकर पुकारें,

छोड़ रहे दुनिया को क्यों ?

और भी हैं जीने के सहारे।

कठिनाइयों से डरते हैं क्यों?

आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?

–रवि श्रीवास्तव