विविधा

आतंक की टीआरपी और लाइव टीवी का स्रोत

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

टेलीविजन में आतंक की खबरों का सबसे ज्यादा उपभोग अमीरों में नहीं होता। अभिजन में नहीं होता। टीवी कवरेज के बारे में यह मिथ है कि टीआरपी बढ़ाने के लिहाज से लाइव कवरेज का इस्तेमाल किया गया। यह संभव है टीआरपी बढ़े और यह भी संभव है टीआरपी घटे। किंतु यह निर्णय तुरंत नहीं लिया जा सकता। किसी भी घटना के कवरेज से मीडिया की टीआरपी बढ़ी है या घटी है यह इससे तय नहीं होगा कि कितने लोगों ने देखा। बल्कि इससे तय होगा कि मीडिया की साख बढ़ी है या घटी है। जब भी कोई लाइव कवरेज आता है आम खबरों की तुलना में उसकी दर्शक संख्या हमेशा ज्यादा ही रहती है। यह बात क्रिकेट-फुटबाल मैच से लेकर मुंबई कवरेज तक सब पर लागू होती है। किंतु कवरेज का असर किसी समुदाय विशेष पर नहीं होता। समूचे समाज पर होता है। समाचार या लाइव कवरेज या क्रिकेट मैच का सीधा प्रसारण अथवा विज्ञापन का प्रसारण या सीरियल या फिल्म का प्रसारण हो, यह प्रसारण सिर्फ दर्शकों को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि उन्हें भी प्रभावित करता है जो लोग इसे नहीं देखते। जो लोग नीति निर्धारक हैं।

प्रसारण हुआ है तो प्रभाव भी होगा यह बात दावे के साथ कहना संभव नहीं है। प्रभाव हो सकता है और नहीं भी हो सकता। आमतौर पर आतंकी कवरेज का प्रभाव क्षणिक होता है। कवरेज का प्रभाव स्थायी तब ही होता है जब उस प्रभाव को लागू करने वाली सांगठनिक संरचनाएं निचले स्तर तक मौजूद हों। सामाजिक स्तर पर यदि आतंकी संगठनों का नैटवर्क नहीं है तो प्रभाव अस्थायी होगा। संगठन स्थानीय स्तर पर सक्रिय है तो प्रभाव दीर्घकालिक होगा। जैसा कि पंजाब के आतंकी माहौल में देखा गया। उत्तर-पूर्व के आतंकी-पृथकतावादी संगठनों के कवरेज के संदर्भ में देखा गया।

मीडिया का प्रभाव तब ही होता है जब प्रभाव को लागू करने वाले संगठन सक्रिय हों। यह सच है कि मीडिया का लक्ष्य हमेशा अभिजन का कवरेज होता है किंतु सारी चीजें मीडिया के अनुसार नहीं चलतीं। मीडिया प्रवाह के अपने नियम हैं और ये नियम वर्गीय सीमाओं के परे काम करते हैं। मीडिया सिर्फ लक्ष्य के अनुसार ही प्रभाव नहीं छोड़ता। बल्कि अनेक ऐसी चीजें आ जाती हैं जिनकी मीडिया ने कल्पना तक नहीं की होता। मीडिया प्रवाह स्वयं में प्रधान कारक कभी नहीं रहा। प्रधान प्रेरक भी नहीं रहा। मीडिया हमेशा तब ही भूमिका अदा करता है,तब ही प्रभावित करता है जब उसे लागू करने वाली संरचनाएं निचले स्तर तक सक्रिय हों। मीडिया सहयोगी होता है निर्णायक नहीं आमलोग हों या अभिजन हों। कोई भी मीडिया से निर्णायक तौर पर संचालित नहीं होता। इनके संचालन और नियमन के नियमों की जड़ें समाज में हैं। सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-आर्थिक प्रक्रियाओं में हैं।

कवरेज कैसा होगा ? यह इस बात पर निर्भर करता है कि दांव पर क्या लगा है ? दांव पर यदि निर्दोष लोगों की जिंदगी लगी है तो कवरेज भिन्न किस्म का होगा। यदि दांव पर आतंकी लगे हैं तो भिन्न होगा। दांव पर कुछ भी नहीं लगा है तो कवरेज की शक्ल अलग होगी।

विभिन्न टीवी चैनलों के लाइव कवरेज में सूचनाएं बहुत कम थीं। न्यूनतम सूचनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति हो रही थी। सारवान खबरें एकसिरे से गायब थीं। इसका प्रधान कारण था टीवी चैनलों के पास संसाधनों की कमी। चैनलों के पास जितने भी संवाददाता थे वे सब के सब एक ही स्थान पर विभिन्न दिशाओं में लगे हुए थे वे घटनास्थल पर खड़े थे और बाहर खबर के आने का इंतजार कर रहे थे।

खबर स्वयं चलकर नहीं आती। खबर को लाना होता है, बनाना होता है। अर्णव गोस्वामी,बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई आदि जितने भी टीवी पत्रकार थे वे न्यूनतम सूचनाएं संप्रेषित कर रहे थे। घंटों एक ही सूचना को दोहरा रहे थे। डीएनए अखबार ( 29 नबम्वर 2008) में वी .गंगाधर ने लिखा 43 घंटे गुजर जाने के बाद भी दर्शक यह नहीं जानते थे कि होटल में कितने आतंकी हैं, कितने लोग मारे गए हैं। चैनल बार-बार कह रहे थे कि आतंकियों से मुठभेड़ अंतिम चरण में है। किंतु अंत दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था। ज्योंही बंदूक की आवाज सुनाई देती थी अथवा विस्फोट की आवाज सुनाई देती थी चैनल पर बताया जाता था कि जंग तेज हो गई है। गंगाधर ने सवाल उठाया है कि ऐसा कहकर चैनलों ने दर्शकों को भ्रमित क्यों किया ?

दोनों पांच सितारा होटलों से लपटें उठती हुई नजर आ रही थी। ये लपटें कभी उठती थीं। कभी बुझ जाती थी। कभी सिर्फ धुंआ नजर आता था। कभी फायरिंग की आवाज आती थी। कभी होटल में फंसे लोग बाहर आते नजर आते थे। कभी कोई खिड़की खुली नजर आती थी। कभी किसी खिड़की से झांकता कोई चेहरा नजर आता था। कभी किसी आतंकी का शरीर झांकता था। कभी किसी आतंकी की लाश खिड़की से लुढ़कती नजर आ रही थी।

सड़कों पर झुंड बनाकर रिपोर्टर खड़े थे। कभी जमीन पर लेटकर रिपोर्टिंग कर रहे थे। कभी पुलिस बैन नजर आ रही थी। कभी कमाण्डो आपरेशन करते नजर आ रहे थे। कभी पोजीशन लेते नजर आ रहे थे। कभी हेलीकॉप्टर से होटल के पास की छत पर उतरते कमाण्डो नजर आ रहे थे। कभी टीवी पर आतंकियों के साक्षात्कार सुनाई दे रहे थे। कभी दर्शकों का हुजूम दिखाई देता था। कभी आतंकवादियों के चश्मदीदों के बयान दिखाए जा रहे थे तो कभी होटल से निकाले गए लोगों के बाइट्स दिखाए जा रहे थे। कभी पुराने फोटो दिखाए जा रहे थे। इस सारी प्रक्रिया में विभिन्न चैनलों पर पाक का आतंकी आख्यान चल रहा था।

दोनों होटलों से उठती हुई लपटें दिखाई दे रही थीं किंतु न्यूनतम सूचनाएं आ रही थीं। एनडीटीवी की बरखादत्त सांस रोके बिना अहर्निश बोल रही थी,किंतु कोई भी सारवान बात नहीं कह रही थी। राजदीप सरदसाई सीएसटी टर्मिनस में फायरिंग की अफवाहों में व्यस्त थे। सरदेसाई जैसे गंभीर पत्रकार भी चूक कर रहे थे। सरदेसाई ने पहले अफवाह को खबर बनाया। बाद में कहा यह अफवाह थी। सवाल यह है अफवाह थी तो पहले ही क्यों नहीं रोका ? यदि अफवाह थी तो दर्जनों बार पुनरावृत्ति क्यों दिखाई गयी?

अर्णव गोस्वामी पाक की आतंकवाद के संदर्भ में क्या भूमिका रही है इसके आख्यान में व्यस्त थे। हिन्दी चैनलों में सबसे खतरनाक प्रसारण ‘इण्डिया टीवी’ का था। इस चैनल ने प्रसारण के दौरान दो आतंकियों का सीधे साक्षात्कार सुनाया। चश्मदीद गवाह पेश किया। ये चीजें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे खतरनाक थीं। खबरों को प्रसारित करने की दौड़ में यह चैनल सभी चैनलों से आगे था। इस चैनल में अनेक चीजें पहलीबार दिखाई गयीं जो अन्य चैनलों पर बाद में आयीं। जैसे आतंकियों को सबसे पहले समुद्री तट पर जिन धोबियों-मछुआरों ने देखा था उनमें से पहले जिस महिला ने देखा उसका साक्षात्कार दिखाया। कैसे हेलीकोप्टर से कमाण्डो उतर रहे हैं कितने कमाण्डो हैं, दो आतंकवादियों का होटल से सीधे साक्षात्कार आदि।

टीवी कवरेज से कई बातें सामने आयी हैं। पहली बात यह सामने आयी है कि हमारा टीवी जगत अभी तक पेशेवर रिपोर्टिंग में सक्षम नहीं है। खासकर आतंकवाद जैसी आपदा की रिपोर्टिंग के मामले में इसका नौसिखियापन पूरी तरह सामने आ चुका है। भारत-पाक संबंधों को बनाने से ज्यादा बिगाड़ने पर इतना जोर दिया गया कि उससे यह पता चलता है पाक-भारत रिश्ते, पाक में आतंकी संगठनों की नैटवर्किंग आदि का भारत के चैनल रिपोर्टरों को न्यूनतम ज्ञान तक नहीं है।

अपने ज्ञान के अभाव को पूरा करने केलिए चैनलों पर विदेश मंत्रालय के वर्तमान और भू.पू. अधिकारियों,पुलिस अफसरों और नेताओं के बयानों से ज्यादा कोई सामग्री चैनलों में नजर नहीं आयी। सरकारी लोगों को बिठाकर बातें करने से पेशेवर पत्रकारिता अपनी भूमिका अदा नहीं करती। हमारे चैनलों पर अभी तक आतंकवाद और आतंकी संगठनों के बारे में पेशेवर पत्रकारों और गैर सरकारी लोग तकरीबन नजर ही नहीं आते। जनता के प्रतिनिधि के नाम पर बेतुकी बातें करने वाले राजनीति, आतंकवाद आदि के न्यूनतम ज्ञान से शून्य सैलेबरेटी बैठे हुए थे। ये लोग कॉमनसेंस की अनर्गल बातें कर रहे थे। आतंकवादी प्रभाव को कॉमनसेंस, अर्नगल और सरकारी सेंस के आधार पर पछाड़ना संभव नहीं है। चैनलों के पास खबरों का प्रधान स्रोत था पुलिस। इसके अलावा चैनल किसी भी स्रोत से खबर नहीं जुटा पा रहे थे।