राजनीति विविधा

अधार्मिक’ महाशक्तियों को एक जीवाणु की चुनौती !

                                    मनोज ज्वाला
    सृष्टि रचने वाले ब्रह्मा ने सृष्टि के साथ इसके रहस्यों का ज्ञान भी
मनुष्य को प्रदान किया हुआ है । वह आदि ज्ञान अर्थात ब्रह्म-ज्ञान वेदों
में भरा पडा है । वेदों की व्याख्या के लिए पुराण उपनिषद व स्मृति आदि
शास्त्र सृजित हुए जिनसे सृष्टि के जो जो रहस्य उद्घाटित होते गए वे सब
ही काल-क्रम से ज्ञान-विज्ञान के रुप में अभिव्यक्त होते रहे । फिर उस
ज्ञान-विज्ञान के आधार पर जीवन जीने की कला व विद्या का उद्भव हुआ और
उससे सर्वकल्याणकारी जीवन-पद्धति निर्मित हुई जिसे धारण करना धर्म कहलाया
। धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है जिसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म कहते
हैं । भारत को हिन्दूस्थान कहने वाले विदेशियों ने इसे ही हिन्दूधर्म कहा
है । धर्म एक ऐसी जीवन-पद्धति है; जिससे मनुष्य मात्र ही नहीं बल्कि
समस्त मनुष्येत्तर प्राणियों वनस्पतियों सहित सम्पूर्ण सॄष्टि व प्रकृति
का सहअस्तित्वपूर्ण साहचर्य व कल्याण सुनिश्चित है और यह वेदविदित व
शास्त्र-सम्मत है । शास्त्रों में सब कुछ है . जो नहीं है सो वेदों में
अवश्य है और वेदों में जो नहीं है वह अनावश्यक है । सृष्टि के समस्त गूढ
से गूढत्तम रहस्यों को उद्घाटित करने के निमित्त एक से एक शास्त्रों की
रचना  विवेचना भारतीय मनीषा द्वारा की जाती रही है जिसने ज्ञान-विज्ञान
के विस्तार हेतु इस कलियुग में भी नगरों से ले कर वनों-बिहडों तक में एक
से एक विद्यापीठों गुरुकुलों आरण्यकों आश्रमों की श्रृंखलायें खडी कर रखी
थीं  । तक्षशिला से ले कर उदन्तपुरी तक और नालन्दा से ले कर  उज्जैन तक
एक से एक विश्वविद्यालयों-गुरुकुलों का वैभवशाली इतिहास रहा है जहां के
पुस्तकालयों में ऐसे ऐसे ग्रन्थों-शास्त्रों की भरमार थी जिनमें दुनिया
की तमाम आधियों-व्याधियों के निदान और तमाम समस्याओं के समाधान भरे पडे
थे । दुनिया जब तक धर्मानुकूल रही तब तक सारा सृष्टिक्रम ठीक-ठाक चलता
रहा । हॉलाकि अधर्म व असुर हर युग में रहे हैं । किन्तु काल का प्रभाव
कहिए या नियति का निर्धारण ; वर्तमान कलियुग में उन असुरों के रंग-रुप
कद-काठी बदल गए और वेद-विदित धार्मिकता को नकारते रहने वाली असुरता
अर्थात अधार्मिकता भी मजहब का नाम-रुप धारण कर धर्म का स्थान पाने की
मशक्कत करने लगी है । धर्म को विस्थापित कर मजहब का स्थापित होना एक बडी
त्रासदी है ।
         मजहब क्या है सिवाय अधर्म के ? वेदों में जो नहीं है वह
अनावश्यक है और अनावश्यक बातों पर आधारित जीवन-पद्धति अधर्म है । अधर्म
और मजहब एक है ; धर्म और मजहब एक नहीं पृथक-पृथक हैं । धर्म समस्त
विश्व-वसुधा के कल्याण और मनुष्येत्तर प्राणियों-वनस्पतियों
नदियों-पर्वतों के भी सह-अस्तित्व को प्रेरित करता है ; किन्तु मजहब
समस्त विश्व पर अधिकार जमाने और गैर-मजहबी अर्थात धार्मिक मनुष्यों के
उन्मूलन-मतान्तरण और मनुष्येत्तर प्राणियों के भक्षण को प्रेरित करता है
। इसी प्रेरणा से मजहबी शक्तियों ने पिछले १५०० वर्षों से सारी दुनिया को
रौंद रखा है । एक ने सारी दुनिया पर अपनी हुकूमत कारने वास्ते जेहाद को
अंजाम देने के लिए साम्राज्यवाद के नाम पर सनातन ज्ञान-विज्ञान के समस्त
संस्थानों को ध्वस्त कर दिया तो दूसरे ने पूरी पृथ्वी पर अपनी मिल्कियत
का दावा पेश करते हुए ‘क्रूसेड’ को क्रियान्वित करने के लिए उपनिवेशवाद
के नाम पर सनातन ज्ञान-परम्परा. शिक्षा-व्यवस्था व समाज-रचना को ही
नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । ऐसी मजहबी जीवन-दृष्टि पर आधारित पश्चिम के
विकासवाद ने मनुष्य के सुख-भोग का सरंजाम खडा करने के लिए पृथ्वी के ऊपर
से वन-प्रान्तरों को उजाड दिया तो पृथ्वी के भीतर से खनिज सम्पदाओं का
दोहन कर उसे खोखला बना दिया । इतना ही नहीं मांसाहार अपना कर व दुनिया भर
में फैला कर मनुष्येत्तर प्राणियों की संख्या इस हद तक घटा दिया कि
जैव-विविधता के समक्ष भीषण असंतुलन का संकट उत्त्पन्न हो गया है । जीवों
के सह-अस्तित्व को नकारने का नतीजा सामने है कि आज एक सूक्ष्म परजीवी ने
सारी दुनिया को बंधक बना लिया है ! पूरी पृथ्वी पर अपनी-अपनी मिल्कियत का
दावा करते रहने वाली दोनों मजहबी शक्तियों को उनकी असली औकात का अहसास
करा दिया है । उनके न एटम बम काम आ रहे हैं न खनिज तेल के खादान । पश्चिम
के भोग-लक्षी विज्ञान का सारा विकासवाद एक सूक्ष्म परजीवी का मुकाबला
करने में हांफ रहा है ।  कभी समूचे युरोप को शासित करने वाला इटली तबाही
का पर्याय बन चुका है तो ईश्वरीय राज्य होने का दम्भ भरने वाला वेटिकन
सिटी उस तबाही के मंजर में खो गया है । जिस स्पेन की राजसत्ता ने जिन
समुद्री महाद्वीपों के मूलवासी मूर्तिपूजक रक्तवर्णी भारतीयों (रेड
इण्डियंस) का उन्मूलन कर उनके रक्त से सिंचित  अमेरिका  पर भी कभी राज
किया था वो स्पेन आज लाचार बना हुआ है । इसी तरह से दुनिया की महाशक्ति
कहा जाने वाला अमेरिका आज महज एक सूक्ष्म परजीवी के संक्रमण से बचने के
लिए भारत की ओर कातर दृष्टि से देख रहा है तो जिसके साम्राज्य में सूर्य
कभी अस्त नहीं होता था, उस ब्रिटेन का राजघराना भी इस परजीवी जीवाणु के
भय से बर्मिंघम पैलेस में कैद हो चुका है । कभी सम्पूर्ण मध्य पूर्व को
अपने जिहादी कदमों से रौंद डालने वाले  ईरान-तुर्की घुटनों पर आ कर अब
अपने दुर्दिन गिन रहे हैं तो दुनिया के सबसे घातक-मारक हथियारों से
सुसज्जित रुस अपनी सीमाओं को बन्द कर रखा है और चीन आगामी विश्वयुद्ध का
कारण बन मुंह छिपाये बैठा है । ऐसा वैश्विक उथल-पुथल क्यों है तो एक
सूक्ष्म परजीवी जीवाणु-जनित संक्रमण के कारण ! हॉलाकि यह तो अभी संकट का
प्रारम्भिक चरण है जबकि अभी किसिम-किसिम के संकटों का दौर आना बाकी है ।
प्रकृति के शोषण-दोहन पर आधारित उत्पादन विपणन मुनाफा उपभोग केन्द्रित
पश्चिमी विकासवाद की चिमनियों से ग्लोबल वार्मिंग जो बढता जा रहा है उससे
ग्लेशियर का पिघलना और फिर उसमें से अनेकानेक विषाणुओं का बाहर निकल आना
और उन विषाणुओं से सामूहिक मृत्यु का क्रमवार झंझावात उत्त्पन्न होना तय
है । यह कॉरोना तो केवल झांकी है इससे भी बडी उस विपदा का आना अभी बाकी
है जो पूरी दुनिया पर अपनी हुकूमत व मिल्कियत कायम करने और प्रकृति को भी
एकबारगी विकृत कर देने को उद्धत मजहबी जीवन-पद्धति की चरम परिणति के रुप
में आएगी । उन विपदाओं से निबटने में ‘लॉकडाउन’ जैसे उपाय नाकाम ही सिद्ध
होंगे ।
         ऐसी वैश्विक महामारी के परिप्रेक्ष्य में  ‘लॉकडाउन’ बचाव-छिपाव
का महज एक उपक्रम है इसके उन्मूलन का समाधान कतई नहीं है । एक बार के
‘लॉकडाउन’ से ही जन-जीवन अस्तव्यस्त हो गया है और अर्थव्यवस्था लडखडाने
लगी है तो जाहिर है कि समाधान के तौर पर इसे बार-बार नहीं आजमाया जा सकता
है । कॉरोना जैसी विभीषिकाओं का समाधान तो मजहबी जीवन-पद्धति के
परिमार्जन और धार्मिकता के अनुपालन में है जो आपसी मेलजोल के
‘नमस्ते-अभिवादन’ और मृत्योपरांत ‘शवदहन’ की परम्परा अपनाने तक ही सीमित
नहीं है ; अपितु जन्म से ले कर मृत्य-पर्यंत मनुष्येत्तर
प्राणियों-वनस्पतियों के सह-अस्तित्व तथा प्राकृतिक उपादानों के सीमित
उपभोग और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः’ की उदात भावनाओं के
अनुसार जीवन-दृष्टि विकसित करने में सन्निहित है । जाहिर है- इसके लिए
सनातनधर्म-विरोधी मजहबों को ‘जेहाद’ व ‘क्रूसेड’ नामक नकारात्मक
मान्यताओं को त्यागना होगा और पूरी पृथ्वी पर अपनी हुकूमत व मिल्कियत
कायम करने की अपनी हठवादित से हटना होगा । इसी तरह से शासन को भी सामाजिक
आर्थिक विकास की नीतियों में तदनुसार परिवर्तन करना होगा । विकास के नाम
पर गांवों को उजाड कर शहर बसाने–फैलाने और विकास के समस्त संसाधनों को
शहरों केन्द्रित रखने की नीतियां त्यागनी होंगी । विकास का विकेन्द्रीकरण
करना होगा । एक-एक गांव को इस कदर स्वावलम्बी बनाना होगा कि शहरों की ओर
पलायन हो ही नहीं । हर कोई अपने अपने गांव में रहेगा तब एक प्रकार से
‘लॉकडाउन’ की जरुरत ही नहीं पडेगी ।
•       मनोज ज्वाला ;