लेख

माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद की बदलती शैली


डॉ वीरेन्द्र भाटी मंगल

मानव समाज का आधार परिवार है और परिवार की आत्मा है संवाद। संवाद ही वह सेतु है जिसके माध्यम से माता-पिता और बच्चों के बीच भावनाएँ, विचार और अनुभव साझा होते हैं। किंतु बदलते समय, तकनीक और जीवनशैली के प्रभाव से इस संवाद की शैली भी निरंतर बदल रही है। परंपरागत परिवारों में संवाद का स्वरूप अलग था और आज के आधुनिक परिवारों में यह बिल्कुल भिन्न दिखाई देता है।

एक समय में हमारे परिवारों में परंपरागत संवाद शैली व्याप्त थी। उस समय माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद अधिकतर अनुशासन और संस्कार पर आधारित होता था। बच्चे बड़ों के सामने कम बोलते, उनकी आज्ञा का पालन करना ही उनका कर्तव्य माना जाता। बातचीत का केंद्र ‘आदेश और पालन’ पर टिका रहता। बड़ों के अनुभवों को अंतिम सत्य माना जाता था और बच्चे उनसे प्रश्न करने से भी हिचकते थे। कहावत थी कि बड़ों की डांट में भी भलाई छिपी होती है। इस तरह संवाद में एकतरफा प्रवाह अधिक दिखता था।

वर्तमान समय की परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं। शिक्षा का प्रसार, तकनीक की उपलब्धता और वैश्विक दृष्टिकोण ने बच्चों की सोच को स्वतंत्र बनाया है। बच्चे अब केवल आदेश मानने वाले नहीं रह गए हैं बल्कि तर्क प्रस्तुत करने वाले, अपनी राय रखने वाले और निर्णय प्रक्रिया में सहभागी बन रहे हैं। अब संवाद केवल अनुशासन का विषय न होकर पारस्परिक समझ और सहभागिता पर आधारित हो गया है।

इस दौर में तकनीक का प्रभाव अधिक देखा जा रहा है। मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने संवाद की प्रकृति को गहराई से प्रभावित किया है। पहले घर के आँगन, चौपाल या भोजन की मेज पर बातचीत होती थी, वहीं अब अधिकांश संवाद ‘व्हाट्सएप चैट’ या वीडियो कॉल तक सीमित हो गया है। कभी-कभी तो एक ही घर में रहते हुए भी माता-पिता और बच्चे सीधे न बोलकर संदेशों के माध्यम से बात करते हैं। यह सुविधा होने के साथ-साथ दूरी का भी कारण है। तकनीक ने संवाद को तेज और सुविधाजनक बनाया है परंतु भावनात्मक आत्मीयता में कमी भी आई है।

पीढ़ीगत अंतर के कारण भी संवाद शैली में सबसे बड़ा बदलाव आया है। माता-पिता का पालन-पोषण परंपरागत परिवेश में हुआ, जहाँ अनुशासन सर्वोपरि था जबकि आज के बच्चों की परवरिश आधुनिक और स्वतंत्र सोच वाले वातावरण में हो रही है। इसलिए दोनों पीढ़ियों की अपेक्षाएँ और संवाद शैली में अंतर आना स्वाभाविक है। माता-पिता जहां अपेक्षा करते हैं कि बच्चे उनकी बात बिना प्रश्न किए मान लें, वहीं बच्चे चाहते हैं कि उनकी राय को भी महत्व दिया जाए। यही कारण है कि कई बार संवाद टकराव का रूप ले लेता है। 

यह भी सच है कि बदलती शैली ने रिश्तों में पारदर्शिता और खुलापन बढ़ाया है। अब बच्चे माता-पिता से अपने करियर, दोस्ती, प्रेम और जीवन की उलझनों के बारे में खुलकर बात करने लगे हैं। पहले जिन विषयों पर चुप्पी साधी जाती थी, अब उन पर सहज बातचीत संभव है। संवाद का यह नया रूप परिवारों को अधिक लोकतांत्रिक और सहयोगी बना रहा है।

बदलती संवाद शैली के साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। व्यस्त जीवन, तनाव और तकनीकी लत के कारण प्रत्यक्ष संवाद का समय घटता जा रहा है। परिवार एक साथ होते हुए भी मोबाइल स्क्रीन में खोए रहते हैं। संवाद का मानवीय पक्ष, जिसमें आँखों का भाव, आवाज की गर्मजोशी और स्पर्श की आत्मीयता शामिल है, धीरे-धीरे कम हो रहा है। यही कमी रिश्तों में दूरी और गलतफहमियां पैदा करती है। माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद स्वस्थ रहे, इसके लिए दोनों पक्षों को प्रयास करने होंगे। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों की भावनाओं और विचारों को सुनने का धैर्य रखें। बच्चों को यह महसूस कराना जरूरी है कि उनकी राय महत्वपूर्ण है। वहीं बच्चों को भी यह समझना चाहिए कि माता-पिता का अनुभव अमूल्य है और उनके सुझाव केवल अनुशासन के लिए नहीं बल्कि जीवन की सुरक्षा और भलाई के लिए होते हैं।


परिवारों में ‘फेस-टू-फेस संवाद’ की परंपरा को पुनर्जीवित करने की पुनः आवश्यकता है। भोजन के समय, सैर पर जाते हुए या छुट्टियों में तकनीक से दूरी बनाकर सीधे संवाद किया जाए। इसी से रिश्तों में गर्माहट बनी रह सकती है। संवाद की शैली चाहे बदले, पर इसका उद्देश्य सदैव एक ही रहता है। पारस्परिक समझ, सहयोग और प्रेम। यदि माता-पिता और बच्चे बदलते समय के साथ संवाद के इस नए स्वरूप को संतुलन और आत्मीयता के साथ अपनाएँ, तो पीढ़ियों के बीच दूरी घट सकती है। संवाद ही वह धागा है, जो परिवार के मोतियों को एक सूत्र में बांधता है। इसलिए आवश्यक है कि यह धागा कभी कमजोर न हो, बल्कि समय के साथ और मजबूत होता जाए।

डॉ वीरेन्द्र भाटी मंगल