कोरोना काल में ग्रामीण भारत में आ रही गरीबी का दौर

-अशोक “प्रवृद्ध”

यह सत्य है कि भारत गांवों का देश है, और ग्रामीण भारत की आजीविका का मुख्य साधन खेती- किसानी है। गांवों में लोग कृषि और इससे सम्बन्धित पशुपालन आदि व्यवसाय अथवा मेहनत- मजदूरी करके अपनी आजीविका चलाते हैं । देश के बहुसंख्यक उपभोक्ता और निर्धन भी ग्रामीण भारत में ही रहते हैं। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर गांवों को तेजी से अपनी चपेट में ले रही है। जागरूकता की कमी, कमजोर मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर व लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण हो रही मौतों से भय का वातावरण बन जाने के कारण खेती- किसानी व अन्य आर्थिक गतिविधियों पर इसका व्यापक असर पड़ा है। कोरोना की तेज रफ्तार का दुष्प्रभाव अब गांवों के आर्थिक स्वास्थ्य पर पड़ने लगा है। रोजी-रोटी के संसाधन संकुचित हो गए हैं। लॉकडाउन के कारण व्यापार वैसे ही मंदा है, ऊपर से बाजार नहीं मिल पाने से फसलोपज के समुचित मूल्य भी नहीं मिल रहे। महामारी के समय सुस्त हो चली भारतीय अर्थव्यवस्था ने सभी प्रकार से ग्रामीण क्षेत्रों पर व्यापक असर डाला है। गत एक वर्ष में कोरोना महामारी के संक्रमण का भय और लॉकडाउन के कारण गांवों में निर्धनता में और वृद्धि ही हुई है। गत वर्ष से ही बेरोजगारी बढ़ने के कारण उपयोग की जाने वाली वस्तुओं पर लोगों का व्यय कम हो रहा था। ऊपर से जनता के लिए किया जाने वाला विकास कार्य स्थिर था। जिसके कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था बैठ सा गया है, और अब गांवों में रहने वाले अधिकांश असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति कराहने लगी है। एक वर्ष से अनियमित काम पाने के कारण कठिन स्थिति में गुजर बसर करने की उनकी कथाएं, उनके किस्से अब सामने आने लगे हैं। लोगों ने खाने में कटौती करनी शुरु कर दी है। खाद्य वस्तुओं के दाम बढ़ने से लोगों ने दाल खाना बंद कर दिया। लोगों को रोजगार देने वाली मनरेगा जैसी योजना उनके काम की मांग को पूरा नहीं कर पा रही। ग्रामीण भारत अपनी छोटी सी जमा पूँजी पर जीने को अभिशप्त है। यह स्थिति देश के किसी एक राज्य की नहीं, वरन झारखण्ड, बिहार, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, छतीसगढ़, मध्यप्रदेश सहित देश के अधिकांश राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों की कमोबेश यही स्थिति है। लोगों की यह दलील बेकार है कि अर्थव्यवस्था का बुरा दौर बीत चुका है और जरुरतमंदों के लिए सरकार ने बहुत सारे उपाय किए हैं। हकीकत यह है कि कोरोना की दूसरी तेज लहर के कारण ग्रामीण भारत में सभी प्रकार से निराशा के बादल मंडरा रहे हैं। कोरोना की मार से लोगों की आमदनी का स्रोत कम हुआ है, पहले की अपेक्षा लोग कम कमाने लगे हैं, और ग्रामीण भारत में निर्धनता का दौर आने लगा है। भारत गरीबी की और बढ़ने लगा है। देश से निर्धनता को समाप्त करने की मार्ग में यह स्थिति बाधा बनकर आ खड़ीं हुई है। देश विभाजन के पश्चात देश में निर्धनता को कुछ कम कर विकास की मार्ग पर सरपट दौड़ने योग्य बनाने में हमें दशकों लगे थे। सरकारी जनकल्याण कार्यों से विगत कुछ वर्षों से देश में गरीबी कम करने की दर में वृद्धि दर्ज की गई थी। 2019 के गरीबी के वैश्विक बहुआयामी संकेतकों के अनुसार देश में 2006 से 2016 के बीच करीब सताईस करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर निकाला गया। लेकिन कोरोना काल में बन रही देश की अर्थव्यवस्था निर्धनों की संख्या में वृद्धि में सहायक सिद्ध होने लगी है और ग्रामीण भारत में एक बार फिर गरीबी का दौर आने लगा है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार वर्ष 2019 में देश में करीब 36 करोड़, 40 लाख गरीब थे, जो कुल आबादी का 28 प्रतिशत है। अब कोरोना के कारण निर्धनता को प्राप्त होने से बढ़े गरीबों की संख्या इन गरीबों में जुड़ने से यह आकार और बढ़ेगी। कोरोंना काल में शहरी क्षे़त्रों के साथ ही ग्रामीण भारत में रहने वाले लाखों लोग भी गरीबी रेखा से नीचे आ गए हैं। मध्यम वर्ग सिकुड़ कर एक तिहाई रह गया है। देश में करोड़ों लोग या तो निर्धनता को प्राप्त हो चुके हैं, या फिर निर्धन होने के कगार पर खड़े हैं। लोगों ने खर्च कम कर दिया है अथवा वे खर्च करने के योग्य ही नहीं बचे हैं। आभूषण- जेवरात व जमीन- जायदाद तक लोगों ने बेच दीं। अपनी जीवन की सम्पूर्ण बचत गंवा दी है, जिससे भविष्य में भी उनके खर्च करने की क्षमता कम हो चुकी है। उधर केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा किये जा रहे कार्यों, उठाये जा रहे कदमों, दिए जा रहे राहतों से भी यही प्रतीत होता है कि यही आर्थिक स्थिति अभी फिलहाल बनी रहेगी, अभी लोगों के बेरोजगार होने का सिलसिला जारी रहेगा, अभी लोगों को कम आमदनी पर गुजर- बसर करना सीखना ही होगा। महामारी की तरह इस दुःस्थिति से निकलने का मार्ग ढूंढना, रास्ता तय करना भी अभी दुष्कर है।

एक आकलन के अनुसार भारत में कोरोना की इस दूसरी लहर में एक करोड़ से अधिक लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। सेंटर फॉर मॉनिटिरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार मई में बेरोजगारी दर 12 प्रतिशत तक पहुंच गई। यद्यपि इस दूसरी लहर को काबू में करने के लिए कोई देशव्यापी लॉकडाउन नहीं लगाया गया, तथापि संक्रमण को काबू में करने के लिए राज्यों ने जिस तरह से लॉकडाउन किया है, उसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ा है। कोरोना की दूसरी लहर में जहां रिकॉर्ड तोड़ महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी है, वहीं एक वर्ष के भीतर दूसरे लॉकडाउन ने अब बेरोजगारी का बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। कोरोना की शुरुआत से अब तक 97 प्रतिशत परिवारों की आय में काफी असर देखने को मिला है। भारी संख्या में लोगों का रोजगार छिनने के कारण शहरों के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी बुरी तरह प्रभावित हुई है और ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी दर की रफ्तार तेज हो गई है। इस बार गांव तक कोरोना के पहुंचने के कारण मनरेगा व अन्य सरकारी योजनाओं से मिलने वाली काम भी बंद कर दिए गए, जिससे गांव में भी लोगों के सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया। रिपोर्ट के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था अब पर्याप्त मात्रा में रोजगार नहीं दे सकती है। कोरोना की दूसरी लहर में नौकरी गंवाने वालों लोगों में अंसगठित क्षेत्र के कामगारों की संख्या अधिक है। छोटे कारोबारियों पर लोक डाउन की मार से उनके समक्ष अपने व्यवसाय को चलाए रखने के लिए पूँजी, कर्मचारियों को वेतन देने का संकट खड़ा हो गया है। व्यवसायिक प्रतिष्ठान, कई प्रकार दूकानें आज भी बंद हैं, उनमें काम करने वाले लोग घर में बेरोजगार बैठे हैं। बाजार में मांग समाप्तप्राय होने से आपूर्ति श्रृंखला बाधित हो गई है।

उल्लेखनीय है कि भारत की जीडीपी में सेवा क्षेत्र की करीब 57 प्रतिशत, औद्योगिक क्षेत्र की 30 प्रतिशत और शेष 13 प्रतिशत की हिस्सेदारी कृषि क्षेत्र की है। ग्रामीण भारत के अर्थव्यवस्था में खांटी खेती का हिस्सा कुल हिस्से का आधा अर्थात 50 प्रतिशत ही है, शेष हिस्सा गैरकृषि कार्यों का है, इनमें बुनियादी संरचनाओं की परियोजनाओं अथवा अन्यान्य स्रोतों से प्राप्त होने वाली धनराशि अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर में ग्रामीण भारत में वुनियादी संरचनाओं अर्थात रुरल इन्फ्रास्ट्रक्चर के कार्यों पर भी व्यापक असर पड़ा है, सडक, आवास, सिंचाई आदि परियोजनाओं के कार्य रुके पड़े हैं। खरीफ फसलों की कटाई के बाद से जून तक गांवों में आजीविका के लिए खेती का काम नहीं होने से अर्थोपार्जन के लिए ग्रामीण मजदूरी पर निर्भर रहते हैं। कोरोना काल में विनिर्माण के सारे कार्य ठप होने से नकदी का प्रवाह रुक गया है। मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाली काम से प्राप्त होने वाली मजदूरी श्रमिकों को आकर्षित नहीं कर पाती। हालांकि काम के घंटे इसमें कम है, परन्तु इसके बाद कोई अन्य काम नहीं होने से शेष घंटे बैठकर गुजारना पड़ता है और मनरेगा से प्राप्त मजदूरी की अल्प राशि से छोटे परिवार की आजीविका चलाना भी मुश्किल होता है। इसमें एक परिवार को वर्ष में सिर्फ सौ दिन ही काम मिलने की गारंटी है, शेष दिन कार्य का अभाव होने और कार्य दिवसों पर भी अनुबंध पर बहाल रोजगार कर्मियों और स्थानीय जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से होने वाली भ्रष्टाचार से यह ग्रामीणों के लिए नाकाफी सिद्ध हो रही है।

कोरोना की दूसरी लहर में पिछले वर्ष की तुलना में प्रवासियों का गांवों की ओर पलायन अपेक्षाकृत कम हुआ है, लेकिन लॉकडाउन के कारण शहरों में भी काम बाधित होने से उनकी आमदनी पर असर पड़ा है, वे अपने परिजनों को भी पर्याप्त राशि नहीं भेज पा रहे हैं। इससे भी गांवों की अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह बाधित हुआ है। कोरोना की पहली लहर ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर खासा नकारात्मक प्रभाव डाला था, दूसरी लहर अथवा यह महामारी जितनी लंबी होगी, किसानों-खेतिहरों व मजदूरों की आमदनी व क्रय शक्ति भी उसी अनुपात में कमजोर होती जाएगी। अंतत: इससे गरीबी में ही इजाफा होगा।

इसमें कोई शक नहीं कि कृषि और ग्रामीण भारत में देश को किसी भी संकट से निकालने की क्षमता अंतर्निहित है। कोरोना वायरस महामारी के बावजूद गत वर्ष फसलों की बुआई और अच्छी फसलोपज प्राप्त होने के कारण कृषि पर निर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था अभी भी अपने पैरों पर खड़ी नजर आ रही है, और भविष्य में भी ग्रामीण भारत और कृषक समुदाय अन्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर भारत बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करने में अग्रणी भूमिका निभाएंगे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश के किसान और पूर्णतः कृषि पर आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था कभी किसी विपत्ति के आगे नहीं झुकी है, और सदैव ही देश के लिए कदम से कदम मिलाकर कार्य किया है। ऐसे में उसे थोड़ी सी आश्रय देकर स्थानीय के लिए मुखर अर्थात वोकल फॉर लोकल के इस युग में कृषि और ग्रामीण विकास के उड़ान के लिए नई उर्जा फूंके जाने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर कहते रहते हैं कि भारत को महामारी को एक अवसर में बदलना है और देश को आत्मनिर्भर बनाना है। ऐसे में विदेशी उत्पादों का आयात ख़त्म कर इन उत्पादों को हमारे देश में ही निर्मित करना अब आवश्यक और समय की मांग बनकर रह गई है। देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस कार्यक्रम को सफल बनाने में बहुत बड़ा योगदान कर सकती है। देश का बहुसंख्यक उपभोक्ता ग्रामीण भारत में रहने के कारण यह कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को आज ग्रामीण क्षेत्र ही बचाए हुए है। इसे थोड़ी सी सुविधा, राहत व आश्रय प्रदान किये जाने से देश पुनः तीव्रगति से प्रगति के मार्ग पर सरपट दौड़ पडेगा पड़ेगा। कोरोना काल में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए केंद्र सरकार अनेक योजनाओं, कई बड़े राहत पैकेजों की घोषणा करती रही है। इन योजनाओं व पैकेजों का असर भी हुआ है, और अर्थव्यवस्था गति पाती रही है। कोरोना की दूसरी लहर में जब केंद्र की ओर से सीधे तौर पर किसी भी तरह के लॉकडाउन की घोषणा नहीं की गई है, ऐसे में ग्रामीण भारत के समक्ष यह यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा है कि क्या केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए खेती- किसानी जगत के लिए किसी बड़े राहत पैकेज कोई नई योजना का घोषणा करेगी?

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