विश्ववार्ता

यूरोपीय संघ के आगे घुटने टेकती सरकार

संदर्भ:- इटली के नौसैनिकों को अब नहीं मिल पाएगी मौत की सजा ?

 प्रमोद भार्गव

केरल के दो निर्दोष मछुआरों की हत्या करने वाले इटली के नौसैनिकों को अब मौत की सजा नहीं मिल पाएगी। क्योंकि केंद्र की यूपीए सरकार ने इटली और यूरोपीय संघ के दबाव में घुटने टेक दिए हैं। मनमोहन सिंह सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में हत्यारों के खिलाफ लगे कानून ‘सेफटी आफ मेरीटाइम नेवीगेशन एण्ड फिक्सठ प्लेटफाम्र्स आन कान्टीनेंटल सेल्फ एक्ट’ (सुआ) को हटाने का हलफनामा पेश कर दिया है। इस कानून के हटने के बाद पूरा मामला वहीं पहुंच गया है,जहां से शुरूआत हुर्इ थी। यह शुरूआत भी बमुशिकल अदालत के दबाव में की गर्इ थी। अब इटली सरकार यह मुददा उठाएगी कि इस मामले की जांच ‘राष्ट्रीय जांच एजेंसी'(एनआर्इए) से न करार्इ जाए, क्योंकि यह मामला एनआर्इए के दायरे में नहीं आता है। दरअसल सुआ लागू रहने पर ही एनआर्इए इस मामले की जांच कर सकती थी ?

इटली के दो नौसैनिकों मैसीमिलैनो लतौरे और सलवाटोर गिरोन पर फरवरी 2013 में कोचिच के तट पर केरल के दो मछुआरों की नृशंस हत्या कर दी थी। इस आरोप में इन सैनिकों को केरल पुलिस ने गिरफतार भी कर लिया था। लेकिन इटली सरकार ने अंतराष्ट्रीय समुद्री सीमा विवाद को आधार बनाकर मामले को उलझाते हुए केरल पुलिस के क्षेत्राधिकार को चुनौती दी। नतीजतन गृह मंत्रालय ने जांच एनआर्इए को सौंप दी। एनआर्इए सिलसिलेबार इस जांच को आगे बढ़ा रही थी। चूंकि एनआर्इए केवल सुआ कानून के तहत ही जांच कर सकती थी, लिहाजा इटली और यूरोपीय संघ लगातार भारत यरकार पर सुआ हटाना का दबाव बना रहे थे। आखिरकार वे अपने मकसद में कामयाब भी हो गए। जबकि यह मामला सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद बमुशिकल जांच के दायरे में आया था। मामले को लेकर सरकार को संसद व न्यायालय की फजीयत भी झेलनी पड़ी थी। सुआ हटने के बाद इन सैनिको को फांसी की सजा नहीं दी जा सकेगी।

यह मामला तब भी गहराया था जब हत्यारों को इटली में हुए चुनाव में मतदान के करने के बहाने सुप्रीम कोर्ट की इजाजत से इटली ले जाया गया था। अदालत को इनकी वापिसी की गारंटी इटली के भारत सिथत राजदूत डेनियल मैंसिनी ने एक शपथ-पत्र देकर दी थी। लेकिन यह शपथ-पत्र उस समय एक बहाना साबित हो गया था, जब इटली सरकार ने नाटकीय तरीके से शपथ प़त्र में दिए वचन से मुकरते हुए दोनों सैनिकों को भारत भेजने से इंकार कर दिया था। अलबत्ता अदालत के तर्क को खारिज करते हुए यह भी कहा कि यह मामला भरतीय अदालतों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इसलिए इटली से सैनिकों को वापिस नहीं भेज रहे। इस अवहेलना और कुतर्क को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लिया और  कड़ा रुख अपनाते हुए इतावली राजदूत के भारत छोड़ने पर रोक लगा दी थी। इस प्रतिबंध के बाद इटली का चिंतित होना लाजिमी था। नतीजतन उसने अपनी आशंकाएं भारत सरकार के समक्ष प्रगट कीं और नौसैनिकों की वापिसी के लिए मजबूर हुआ था। अदालत की इस सख्ती से देश की गरिमा और न्यायालय की प्रतिष्ठा तत्काल बहाल हो गर्इ थी। देश और दुनिया में भारत सरकार के विरुद्ध जो नकारात्मक माहौल बन रहा था, वह भी बेअसर हो गया था। लेकिन अब केंद्र की कमजोर सरकार ने एक बार फिर मामले को शून्य में बदलने का काम कर दिया है।

दरअसल यूरोपीय देशों द्वारा देश के शीर्ष न्यायालय की अवहेलना करना कोर्इ नर्इ बात नहीं थी। लेकिन ऐसा शायद पहली बार संभव हुआ था, जब भारत से भागे आरोपियों की वापिसी हुर्इ थी। यही कारण है कि अदालत के आदेश के बावजूद अब तक 1993 के मुंबर्इ विस्फोटों का दोषी दाउद इब्राहिम भारत नहीं आ पाया, वह पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहा है। सरकार को 26/11 के मुंबर्इ विस्फोट के आरोपी हाफिज सर्इद को भी भारत लाने की जरुरत है। सर्इद के साथ तो पाक अधिकृत कश्मीर में जाकर भारत के अलगावादी नेता बैठकें कर रहे हैं। भोपाल गैस काण्ड के आरोपी व यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष एंडरसन को तो खुद तात्कालीन मध्यप्रदेश और केंद्र की कांग्रेसी सरकारों ने भारत से बाहर भाग जाने का मार्ग प्रशस्त किया था। ऐसा ही बोफोर्स तोप सौदों के इतालियन दलाल क्वात्रोची के साथ किया गया था। लिहाजा सवाल उठता है कि जब द्विपक्षीय संबंधों से जुड़े देश ही भारतीय ही न्याय व्यवस्था का सम्मान नहीं करेंगे तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अराजकता की स्थिति पैदा होना लाजमी है।

सुआ कानून हटाने की प्रक्रिया अमल में लाने के बाद केंद्र सरकार  कठघरे में है। क्योंकि अब सुआ हटने के बाद एनआइए को जांच बंद करनी पड़ेगी। हांलाकि सुप्रीम कोर्ट किसी नर्इ जांच एजेंसी को जांच सौप सकती है। लेकिन केंद्र सरकार को यूरोपीय संघ के दबाव में आकर सुआ हटाने का फैसला नहीं लेना चाहिए था। क्योंकि आखिर कोर्इ सरकार यह कैसे तय कर सकती है कि किसे कितनी सजा होगी और किसे मृत्युदण्ड दिया जाएगा अथवा नहीं ? यह निर्णय तो न्यायिक प्रक्रिया के दौरान सामने आने वाले साक्ष्यों और बयानों के आधार पर तय होगा ? इससे भारत सरकार की लाचारी सामने आर्इ है। इस भरोसे से यह संदेश गया है कि इटली नहीं, हम झुके हैं। इस भरोसे के परिप्रेक्ष्य में भारत के मानवाधिकार संगठन भी कालांतर में हत्यारे नौसैनिकों की पैरवी करने लग जाएंगे ? समाचार चैनलों की बहसों में भी कौवे चोंचें लड़ाकर अपने-अपने निर्णय देने लग जाएंगे ? जबकि इस सिलसिले में सोचने की जरुरत है कि बेगुनाह मछुआरों के भी मानवाधिकार हैं ? उनके बीबी-बच्चों के जीवनयापन का भी बड़ा सवाल है ? उनके परिजन किस हाल में जिंदगी गुजार रहे हैं, क्या सरकार और मानवाधिकार संगठनों ने इस बात की परवाह की ? वैसे, किसी भी आपराधिक मामले में जरुरत है कि उसे स्थापित भारतीय न्यायषास्त्र के आधार पर आगे बढ़ने दिया जाए, बेवजह की दखलंदाजी निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करती है और फरियादी को वास्तविक न्याय नहीं मिल पाता। अंतरराष्ट्रीय कानून यह नहीं कहता कि हत्या जैसे अपराध के आरोपियों को बख्स दिया जाए। लेकिन जब भारत सरकार को ही अपने देश के नागरिकों की हत्या का कोर्इ मोल नहीं है, तो इटली या यूरोपीय संघ क्यों करे ?

 

प्रमोद भार्गव