चौथे मोर्चे की परिकल्पना को जमीनी शक्ल देने का वक्त

-देवेन्द्र कुमार-  politicians
यद्यपि आम आदमी पार्टी का राजनीतिक क्षितिज पर उदय के कारण राष्ट्रीय राजनीति में तीसरे मोर्चा की चर्चा थोड़ी थमती नजर आती है, पर अंदरखाने इस सोच पर विराम नहीं लगा है। माकपा-भाकपा के साथ ही अन्य क्षेत्रीय पार्टियां इसमें अपना भविष्य तलाश रही हैं। इधर, उतरप्रदेश की राजनीति से स्व-निर्वासित होकर केन्द्र की राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहे सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह भी तीसरे मोर्चे की वकालत कर रहे हैं। ठीक इसी तरह की सुगबुगाहट नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जयललिता, देवगौड़ा, बाबुलाल मंराडी और मायावती की ओर से भी आ रही है। कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति के एक बड़े हिस्से में तीसरे मोर्चे की बात अन्दरखाने की जा रही है, पर इसकी सफलता को लेकर सभी आशंकित नजर आ रहे हैं । इसमें से बहुतों की सोच तो इसे लोकसभा चुनाव परिणामों तक टालने का है जिससे कि लोकसभा चुनाव परिणामों के आधार पर अपनी सुविधा के हिसाब से जोड़-तोड़ किया जा सके और यही कारण है कि अभी तक यह विचार जमीनी शक्ल लेता नहीं दिख रहा है।
वैसे भी लोक मोर्चा या तीसरा मोर्चा कोई नई बात नहीं है। लोक मोर्चा न तो पहली बार बना है और न ही आखरी बार बिखरा है। हमेशा की तरह इसके गठन के पूर्व से ही बिखरने के कयास लगाये जाने लगते हैं। यह वह दिलचस्प शमियाना है जो पहले भी बार बार बनता बिखरता रहा है । हर बार खड़ा करने की कोशिश और बार-बार बिखरने की त्रासदी इसकी अनंत गाथा रही है।
दरअसल किसी भी मोर्चे के गठन के लिए एक न्यूनतम समवेत सोच होनी चाहिए। राष्ट्र-राज्य के सामने व्याप्त आर्थिक – राजनीतिक मुद्दों के प्रति एक वैकल्पिक नीति और कार्यक्रम होनी चाहिए । जहां तक भाजपा-कांग्रेस का सवाल है तो दोनों ही तकरीबन एक ही सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करते है और दोनों र्की आिर्थक नीतियां भी समान है, राजनीतिक संस्कार एक है। दरअसल दोनों ही विदेषी कंपनियों और विदेषी आकाओं कि चिरौरी में एक दूसरे को पीछे छोड़ने की दौड़ लगा रहे हैं।
रही बात भाकपा-माकपा समेत वाम मोर्चा की। निश्चित रूप से उनके पास अपना एक विजन है। अपनी एक वैकल्पिक आर्थिक सोच और राजनीतिक दृष्टि है। यद्धपि आज के बदले वैष्विक हालात में पूंजीवादी चाल-ढाल ने उनके अभेद किले को घ्वस्त कर दिया है । आज उनकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किये जा सकते हैं। और यह सच्चाई भी है कि दलित वंचितों का राजनीति में भागीदारी के सवाल पर इनका रवैया भी उच्चवर्णीय ही रहा है। यदि आरक्षित सीटों की बात छोड़ दें, जहां से दलित-आदिवासियों की उम्मीदवारी इनकी मजबूरी थी, सामान्य सीटों से अति पिछड़ों-दलितों को उम्मीदवार बनाने में इनकी कोई खास रुचि नहीं रही । वर्गहीन समाज के निर्माण के झांसे में ये जान बूक्ष कर भारतीय सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा जातीयता के अस्तीत्व को नकारते रहें और इसी सपने की आड़ में दलित- पिछड़ों से लाल झंडा ढुलवाने की चाकरी भी करवाते रहे। सच तो यह है कि पार्टी के षीर्ष पदों से भी इन्हे दूर ही रख गया आज दलित -वंचितों की मांग सिर्फ लोकतंत्र की नहीं है, बल्कि सहभागी और क्रियात्मक लोकतंत्र की है। वे लोकतंत्र में अब दर्षक की भूमिका में रहने को तैयार नहीं हैं ।
पर इस कथित लोक मोर्चा या तीसरा मोर्चा के पास क्या है । वह कौन सी आर्थिक नीति और भिन्न राजनीतिक दृष्टि है, जिसके शामियाने तले ये खड़ा होना चाहते हैं। सिवाय सत्ता की चाहत के। वैसे भी यह प्रयोग इतनी बार दोहराई जा चुकी है कि अब इसकी निर्रथकता को सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं रह गई है।
आज की जरूरत एक चौथे मोर्चे को खड़ा करने की है। गांधी के इस सत्य अहिंसा के देश में आज सैंकड़ों स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के अहिंसात्मक आंदोलन चल रहे हैं। विस्थापितों का संघर्ष चल रहा है। जंगल बचाओ आन्दोलन चल रहा है, असंगठित क्षेत्र के मजदूर अपनी आवाज उठा रहे हैं। जल-जंगल और जमीन की लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं, पानी के लिए सत्याग्रह किये जा रहे हैं। नव बौ़द्धों और अंबेडकरवादियों का मूवमेन्ट चल रहा है। भू-मुक्ति की लडाइयां लड़ी जा रही हैं। आज गांधी – नेहरु परिवार भले ही केन्द्र में हो पर गांधी के अनुयायी हाशिए पर ही सही अपनी अलख जगाये हुए हैं। टाना भगत इसके ज्वलंत उदाहरण हैं, अभी-अभी यह अन्ना का आन्दोलन गुजरा है। दलित अखिल भारतीय स्तर पर वामसेफ का नेटवर्क फैला रहे हैं। जेपी-लोहिया के कथित शिष्य भले ही राबड़ियां खा रहे हों, पर उनके ही अनुयायी आज भी गांव कस्बे में बैठ बदलाव की आस जगा रहे हैं। आदिवासी समाज अपने परंपरागत अधिकारों एवम जल, जंगल और जमीन की अभिरक्षा के लिए डंके की चोट पर संप्रभु वर्ग को चुनौतियां दे रहा है। उनकी ओर से एक अविराम संधर्ष जारी है, निश्चित रूप से ये हाशिए की आवाज है जो अलग-अलग स्थानों पर बिखरा हुआ है। कहीं इसकी गति तेज है, तो कहीं अन्दर-अन्दर सुलग रहा है, आज जरूरत इनको एक मंच प्रदान करने की है और तीसरे मोर्चे के कद्रदान इनकी आवाज नहीं बन सकते। इनमें से कई व्यवस्था परिर्वतन के पैरोकार रहे हैं, पर आज वे व्यवस्था के हिस्सा बन चुके हैं। उनकी भाषा बदल चुकी है। अब उनकी प्राथमिकता- लड़ाई व्यक्तिगत की है। सत्ता की राबड़ियों का व्यक्तिगत बंटवारा की है और इसी छीना-छपटी के खेल का खूबसूरत नाम है तीसरा मोर्चा ।
आज सवाल इस देश में सांप्रदायिक शक्तियों से सिर्फ मुकाबले का नहीं है, वरन् उसके कारक – कारणों को नेस्तानाबुद करने का है। सामाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जो बाबा साहब भीम राव के द्वारा रचीत संविधान का अभिन्न हिस्सा है, की अभिरक्षा का है। सामाजिक न्याय के संघर्ष को उसके अंजाम तक पंहुचाने का है। विदेशी राष्ट्रों और संस्थाओं के दबाब में ली गई राष्ट्र विरोधी नीतियों की समीक्षा का है। बेलगाम आतंकित करने वाले राजकीय कानूनों के विरोध का है । अपने हक और हकूक की हिफाजत के लिए किये जा रहे शांतिपूर्ण प्रर्दशनों पर गोलियों की बौछार कर हाशिए की आवाज को जमींदोज करने की साजिश रचने वाले सत्ता समूहों से प्रतिकार का है और इसके लिए बेहद जरूरी है कि हाशिये की आवाज को समवेत स्वर दिया जाय । उसका एक साक्षा मंच बने और चौथे मोर्चे इस दिशा में एक सार्थक कदम हो सकता है।
जिस प्रकार आम आदमी पार्टी ने स्थापित राजनीतिक दलों के बरक्स एक विकल्प पेश किया है, वह इस संभावना को जन्म देता है कि विभिन्न जनाआन्दोलनों को एक मंच प्रदान कर चौथे मोर्चे की परिकल्पना को जमीनी शक्ल दिया जाय। मेधा पाटेकर का आम आदमी से जुडना इसकी एक कड़ी हो सकती है । बशर्ते की आम आदमी पार्टी के कर्ताधर्ता अरविन्द केजरीवाल और योगेन्द्र यादव की सोच भी इस दिशा में आगे बढ़ने की हो। पर दुविधा यह है कि आज आम आदमी पार्टी मघ्यम वर्ग की आकांक्षाओं का प्रतीक कुछ ज्यादा ही बन गया है और लाखों रुपये प्रति दिन जो चन्दे मिल रहे हैं क्या वे शक्तियां और समूह इनकी नीति और नियत को निर्घारित नहीं करेंगे। कॉरपोरेट जगत का पैसा और हाषिये की वकालत एक साथ तो नहीं हो सकती। फिर कुमार विश्वास का अपने को सगर्व ब्राह्मण का छोकरा कहना किस ओर इंगित करता है। अभी आप को अपनी नीति, नियत और प्रतिबद्धता को स्पष्ट करना होगा । आखिर वह किन समूहों की राजनीति करना चाहता है । त्याग,सादगी ,ईमानदारी,पारदर्शिता और प्रतिबद्धता अपने आप में महत्वपूर्ण नहीं है। वरन् वह किसके लिए है ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

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  1. तीसरे मोर्चे की तो अपनी समस्या है, जिसे वे भी जानते हैं.भा ज पा के खिलाफ साम्प्रदायिकता के नाम पर विरोध कर वे एक मंच पर आना चाहते हैं, पर कांग्रेस के खिलाफ दबी जबान से ही कुछ बोलते हैं, क्योंकि अंदर ही अंदर वे अपने तार उससे जोड़े रखना चाहते हैं.दुसरे वे सब एक दुसरे की बखिआ उधेड़ने में पीछे नहीं रहना चाहते पर पी ऍम की कुर्सी का ख्याल आते ही उस पर विचार करना छोड़ देते हैं.सबसे बड़ी बात है कि सभी दलों के नेता, मुखिया दूल्हा बनने को तो तैयार हैं, बाराती बनने को कोई भी nahin. जब सारे ही दुल्हे होंगे तो बारात कैसे सजेगी यह जन कर सबके मुहं का पानी सुख जाता है और बेचारे हर बार सुगबुगाहट कर चुप हो जातें हैं.इसलिए तीसरा मोर्चा तो फलाप शो रहा है रहेगा.

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