
हरी बिंदल
छोड़ भाजपा शत्रु जी, पहुंचे पप्पू पास,
मंत्री बनने के लिए, यही बची थी आश |
यही बची थी आश, लगा बीबी लाइन मे,
दोनों हाथो लड्डू, होंगे आनन फानन मे |
किन्तु रह गए बे, अब, घर न घाट के,
टुल्लू उनको मिला, रखे अब उसे ठाट से |
इक प्रत्यासी को मिले, बोट अदद के पाँच,
हुई जमानत जप्त जो नही साँच को आंच |
नही साँच को आंच, बिचारा बड़ा दुखी है,
धन की चिंता नही, मगर ये बात कही है|
गिनती करवाऊंगा, कि ये संम्भव नही है,
नौ वोट तो केवल, मेरे घर के , यही है |
जीते जी पुतले खड़े, जिसने दिये लगाय,
दो हजार चौदय मे, गई सून्य पर आय |
गई सून्य पर आय, हो गई फिर खड़ी बो,
रिजल्ट से पहले दिन, बोली औ अड़ी बो
बसपा बड़ी सपा से, पी एम बनूँगी मै,
आया रिजल्ट जब, तो उसकी बोली टें |
जनता जाग्रत हो गई, सोचे पहले देश,
मोदी जी को जिता कर, यही दिया संदेश |
यही दिया संदेश कि नेता गठबंधन के,
नही इरादे नेक, सभी भूके कुरसी के |
सभी लालची छद्म, नही देश से प्यार,
मोदी सब मुमकिन है होय देश उद्धार |
मजा आ गया पढ कर —
बाते इधर उधर की।
बिन्दल जी लिखा करे,
ऐसे ही, इधर उधर की॥
बैठ वाशिंग्टन में —
सुनाए किधर किधर की।
गंगा गए तो गंगादास,
जमना गए जमनादास।
नाम से शत्रु को मित्र की–
कमी है इधर, उधर भी।
धन्यवाद बिन्दल जी और
प्रवक्ता को भी इस प्रथित-यश कवि को
स्थान देने के लिए।
डॉ. मधुसूदन