कांग्रेस के भीतरी कुरुक्षेत्र की चुनौतियां

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ः ललित गर्गः

हरियाणा और महाराष्ट्र में जब से विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई है, दोनों ही प्रान्तों में कांग्रेस पार्टी में कलह मची है, युद्धस्तर पर उठापटक एवं घमासान मचा हुआ है। उससे पार्टी के चुनावी भविष्य पर सहज ही अनुमान लगाया जाना गलत नहीं होगा। सवाल यह है कि पार्टी के भीतर ऐसी नौबत क्यों आयी? देश की सबसे पुरानी एवं ताकतवर पार्टी होकर आज इतनी निस्तेज क्यों है? देश की राजनीति की दिशा एवं दशा तय करने वाली पार्टी हाशिये पर क्यों आ गयी है? क्यों उसकी यह दुर्दशा हुई? चुनावों के पहले राजनीतिक दलों में हलचल एवं उठापटक होना स्वाभाविक है, लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेसी नेताओं के बीच जैसी उठापटक देखने को मिल रही है वह अभूतपूर्व है, उसने पार्टी के पुनर्जीवन की संभावनाओं को भी धुंधला दिया है।
  एक ओर जहां हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने टिकट बंटवारे से नाराज होकर पार्टी छोड़ दी वहीं दूसरी ओर मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम पार्टी छोड़ने की कगार पर जाकर खड़े हो गए। इन दोनों ने अपने ही नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए। कांग्रेस पार्टी तरह-तरह के अस्तित्व के संकट का सामना कर रही है। इन जटिल होती परिस्थितियों के बीच पार्टी फिर से मूल्यों पर लौटकर अपने आपको एक नए दौर की पार्टी के तौर पर पुनर्जीवित कैसे कर पाएंगी? गांधी परिवार पर निराशाजनक निर्भरता पार्टी के सामने पहली चुनौती है, दूसरी बड़ी चुनौती केन्द्रिय नेतृत्व की है। लेकिन किसी वजह से पार्टी अब भी आगे की दिशा में बड़ा कदम उठाने से कतरा रही है, जिससे पार्टी की टूटती सांसों को नया जीवन मिलने की संभावनाओं पर लगातार विराम लगता जा रहा है।
हरियाणा और महाराष्ट्र के कद्दावर नेता अशोक तंवर एवं संजय निरुपम ने अपने ही नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए। अशोक तंवर ने इस्तीफा देने के पहले कांग्रेस मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन किया तो संजय निरुपम ने संवाददाता सम्मेलन कर पार्टी को खुली चुनौती दी। इन दोनों नेताओं ने बागी तेवर दिखाने के साथ ही यह रेखांकित करने की भी कोशिश की कि उन्हें राहुल गांधी के करीबी होने के कारण किनारे किया गया। क्या वाकई ऐसा कुछ है? इस बारे में साफ तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इससे हर कोई भलीभांति परिचित है कि कांग्रेस की युवा पीढ़ी के नेताओं और बुजुर्ग नेताओं के बीच लम्बे अरसे से खींचतान चल रही है। जिससे पार्टी उभरने के बजाय रसातल की ओर बढ़ती जा रही है। इसका मन्तव्य क्या यह निकाला जा सकता है कि पार्टी नेतृत्व में परिपक्वता एवं राजनीतिक जिजीविषा का अभाव है। जबकि पार्टी के पास लम्बा राजनीतिक अनुभव भी है और विरासत भी। उसे तो ऐसा होना चाहिए जो पचास वर्ष आगे की सोच रखती हो पर वह पांच दिन आगे की भी नहीं सोच पा रही हैं। केवल खुद की ही न सोचें, परिवार की ही न सोचें, जाति की ही न सोचें, पार्टी की ही न सोचंे, राष्ट्र की भी सोचें। जब पार्टी राष्ट्र की सोचने लगेगी तो पार्टी की मजबूती की दिशाएं स्वयं प्रकट होने लगेगी। लेकिन ऐसा न होना दुर्भाग्यपूर्ण है।
कांग्रेस पार्टी के कुरुक्षेत्र में हर अर्जुन के सामने अपने ही लोग हैं जिनसे वह लड़ रहा है, हर अर्जुन की यही नियति है। ऐसी ही नियतियों का उसे बार-बार सामना करना पड़ रहा है। युवा और बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं के बीच खींचतान की एक झलक तब मिली थी जब लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी की ओर से अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश की गई थी। उस दौरान जब पार्टी के युवा नेता राहुल गांधी के अध्यक्ष बने रहने पर जोर दे रहे थे तो बुजुर्ग नेता या तो मौन साधे थे या फिर विकल्प सुझा रहे थे। लंबे इंतजार के बाद राहुल का त्यागपत्र स्वीकृत तो हुआ, लेकिन अंतरिम अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी का चयन करना बेहतर समझा गया। इससे यही संदेश निकला कि गांधी परिवार पार्टी पर अपनी पकड़ छोड़ने के लिए तैयार नहीं। इस संदेश की एक वजह प्रियंका गांधी वाड्रा का अपने पद पर कायम रहना भी था, जिन्हें लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस महासचिव बना दिया गया था। जिस तरह यह स्पष्ट नहीं कि कांग्रेस को अगला पूर्णकालिक अध्यक्ष कब मिलेगा उसी तरह यह भी साफ नहीं कि पार्टी अपनी खोई हुई जमीन हासिल करने के लिए प्रयोग करना कब छोड़ेगी? लेकिन हरियाणा एवं महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनावों का यह समय एक अवसर है पार्टी के लिये जब वे इस चुनौती को स्वीकारते एवं इन चुनावों में अपनी पार्टी का सशक्त एवं प्रभावी नेतृत्व करते हुए पार्टी को सशक्त बनाते। पार्टी की जर्जरावस्था में पहुंचने के कारणों का पता लगाते लेकिन पार्टी तो इन चुनौतियों का सामना करने की बजाय नयी चुनौतियों एवं संकटों का कारण बनती जा रही है। इन विषम एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों में मतदाता पार्टी नेतृत्व पर भरोसा कैसे करें? बेशक देश के 18 राज्यों में कांग्रेस पार्टी का पूरी तरह सफाया हो गया है परन्तु शेष  राज्यों में तो कांग्रेस को अपनी बुनियाद मजबूत करने के लिये प्रयत्न करने चाहिए, लेकिन पार्टी भीतरी कलह एवं षडयंत्रों के बीच कैसे उजले रास्तों की ओर बढ़ सकती है? यह ठीक नहीं कि जब देश को एक सशक्त विपक्ष की सख्त जरूरत है तब कांग्रेस असमंजस, अन्दरूनी कलह एवं उठापटक से बुरी तरह ग्रस्त है। इसमें संदेह है कि वह हरियाणा और महाराष्ट्र में कुछ हासिल कर सकेगी। इन राज्यों के साथ देश के अन्य हिस्सों में भी वह दयनीय दशा में है। अपनी इस स्थिति के लिए वह खुद के अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती। वास्तव में उसका भला तब तक नहीं हो सकता जब तक वह केन्द्रीय नेतृत्व के सवाल को ईमानदारी से हल नहीं करती।
कांग्रेस पार्टी अनेक विडम्बनाओं एवं विसंगतियों के दौर से गुजर रही है। बाहर दुर्लभ, अन्दर सुलभ- यह विडम्बना है पार्टी जीवन की, पार्टी व्यवस्था की और पार्टी पद्धति की। सुधार का पूरा प्रयास किया जा रहा है- पार्टी स्तर पर व राजनैतिक स्तर पर, लेकिन केवल सतही प्रदर्शन और श्रेय प्राप्ति की भावना अधिक, रचनात्मक कम। मूल्यों की नीति को पाखण्ड कहा जा रहा है और मुद्दों की राजनीति को आगे किया जा रहा है। मुद्दे तो माध्यम हैं, लक्ष्य तो मूल्यों की स्थापना होना चाहिए। पार्टी को सोच के कितने ही हाशिये छोड़ने होंगे। कितनी लक्ष्मण रेखाएं बनानी होंगी। सुधार एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। महान् अतीत महान् भविष्य की गारण्टी नहीं होता। पार्टी के सुधार के प्रति संकल्प को सामूहिक तड़प बनाना होगा। पार्टी के चरित्र पर उसकी सौगन्धों से ज्यादा विश्वास करना होगा।
भारतीय जनता पार्टी का उद्देश्य ‘गांधी-मुक्त कांग्रेस’ रहा है, इसलिए ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा  उछाला गया। यह नारा सफल भी हुआ और बड़ी चुनौती भी बना है। लेकिन पार्टी के सामने अब बड़ी चुनौती यह है कि वह स्वयं को मजबूत बनाये। प्रश्न पार्टी को पुनर्जीवित करने का है। यकीन है कि पार्टी प्रमुख के रूप में नेहरू-गांधी के बिना जब चलना सीख जायेंगी तो पार्टी गति भी पकड़ लेगी। हकीकत तो यह है कि परिवार के भरोसे अपनी नैया पार कराने वाले कांग्रेसियों ने आत्मविश्वास ही खो दिया है। राजनीति ‘आत्मविश्वास’ से चलती है। यदि ऐसा न होता तो भाजपा आज देश की सत्ताधारी पार्टी न बन पाती। यह आत्मविश्वास ही था जिसकी बदौलत इस पार्टी की पुरानी पीढियां अपने रास्ते पर डटी रहीं और हार को जीत में बदलने के रास्ते खोजती रही, भाजपा ने सिद्धान्तों पर चलना अपना ‘ईमान’ समझा। ऐसा लगता है कि सत्ता पर काबिज होने की लालसा ने कांग्रेस को सिद्धान्त एवं आदर्शविहीन बना दिया।
हरियाणा एवं महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के समय में कांग्रेस के नेताओं की आपसी फूट इसके अस्तित्व के लिए चुनौती बन सकती है। इसका दोष किस प्रकार इसकी विरोधी भारतीय जनता पार्टी पर मढ़ा जा सकता है जब ‘घर के भेदी ही लंका ढहा’ रहे हैं। यही हाल मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिन्धिया का है जो हर हफ्ते एक नया शगूफा छोड़ देते हैं और समझते हैं कि हुकूमत करना उन्हें विरासत में मिला है। कौन समझाये कि जमाना बदल चुका है अब सत्ता की लालसा और उसी दौड़ में शामिल होकर जनता के दिलों को नहीं जीता जा सकता। सोच बदलनी होगी, जनता पर विश्वास कायम करना होगा, वरना जीत की संभावनाएं एवं पार्टी के पुनर्जीवन की संभावनाएं धुंधलाती रहेगी।

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