देश की आत्‍मा ही उसकी मूल संस्‍कृति है

0
179

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय की जयंती 25 सितम्‍बर पर विशेष

अशोक बजाज 

पं.दीनदयाल उपाध्याय एक महान राष्ट्र चिन्तक एवं एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता थे. उन्होनें मानव के शरीर को आधार बना कर राष्ट्र के समग्र विकास की परिकल्पना की. उन्होनें कहा कि मानव के चार प्रत्यय है पहला मानव का शरीर , दूसरा मानव का मन , तीसरा मानव की बुद्धि और चौथा मानव की आत्मा. ये चारोँ पुष्ट होंगें तभी मानव का समग्र विकास माना जायेगा. इनमें से किसी एक में थोड़ी भी गड़बड़ है तो मनुष्य का विकास अधूरा है. जैसे यदि किसी के शरीर में कष्ट है और उसे 56 भोग दिया जाय तो उसकी खाने में रूचि नहीं होगी. यदि कोई व्यक्ति बहुत ही स्वादिस्ट भोजन कर रहा है उसी समय यदि कोई अप्रिय समाचार मिल जाय तो उसका मन खिन्न हो जायेगा. भोजन तो समाचार मिलने के पूर्व जैसा स्वादिस्ट था अब भी वैसा ही स्वादिस्ट है लेकिन अप्रिय समाचार से व्यक्ति का मन खिन्न हो गया इसीलिये उसके लिए भोजन क्लिष्ट हो गया. यानी भोजन करते वक्त “आत्मा” को जो सुख मिल रहा था वह मन के दुखी होने से समाप्त हो गया. पं. दीनदयाल जी ने कहा कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारोँ ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यतः मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारोँ की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानव वाद की संज्ञा दी. उन्होंने मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृति को राष्ट्र के परिपेक्ष्य प्रतिपादित करते हुए कहा कि राष्ट्र की स्वाभाविक प्रवृति उसकी संस्कृति है. देश को किस मार्ग पर चलना चाहिए इस पर चिंतकों में मतभेद हैं कुछ अर्थवादी ,कुछ राजनीतिवादी तथा कुछ मतवादी दृष्टिकोण के है, इनमें से अलग हट कर पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होनें कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है.इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है. संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मज़हब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है.

उन्‍होंने बताया कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी। विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्त्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं। उसमें तो शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं।

भारतीय जीवन का प्रमुख तत्व उसकी संस्कृति अथवा धर्म होने के कारण उसके इतिहास में भी जो संघर्ष हुये हैं, वे अपनी संस्कृति की सुरक्षा के लिए ही हुए हैं. तथा इसी के द्वारा हमने विश्व में ख्याति भी प्राप्त की है। हमने बड़े-बड़े साम्राज्यों के निर्माण को महत्व न देकर अपने सांस्कृतिक जीवन को पराभूत नहीं होने दिया। यदि हम अपने मध्ययुग का इतिहास देखें तो हमारा वास्तविक युध्द अपनी संस्कृति के रक्षार्थ ही हुआ है। उसका राजनीतिक स्वरूप यदि कभी प्रकट भी हुआ तो उस संस्कृति की रक्षा के निमित्त ही। राणा प्रताप तथा राजपूतों का युध्द केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था अपितु धार्मिक स्वतंत्रता के लिए ही था। छत्रपति शिवाजी ने अपनी स्वतंत्र राज्य की स्थापना गौ-ब्राह्मण प्रतिपालन के लिए ही की। सिक्ख-गुरुओं ने समस्त युध्द-कर्म धर्म की रक्षा के लिए ही किए। इन सबका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि राजनीति का कोई महत्व नहीं था अथवा राजनीतिक गुलामी हमने सहर्ष स्वीकार कर ली; तात्पर्य यह है कि राजनीति को हमने जीवन में केवल सुख का कारण-मात्र माना है, जबकि संस्कृति ही जीवन है.

आज भी भारत में प्रमुख समस्या सांस्कृतिक ही है वह भी आज दो प्रकार से उपस्थित है, प्रथम तो संस्कृति को ही भारतीय जीवन का प्रथम तत्त्व मानना तथा दूसरा इसे मान लेने पर उस संस्कृति का रूप कौन सा हो विचार के लिए. यद्यपि यह समस्या दो प्रकार की मालूम होती है, किन्तु वास्तव में है एक ही. क्योंकि एक बार संस्कृति को जीवन का प्रमुख एवं आवश्यक तत्त्व मान लेने पर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में झगड़ा नहीं रहता, न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का मतभेद ही उत्पन्न होता है. यह मतभेद तो तब उत्पन्न होता है जब अन्य तत्वों को प्रधानता देकर संस्कृति को उसके अनुरूप उन ढांचों में ढंकने का प्रयत्न किया जाता है.

पं. दीनदयाल उपाध्‍याय ने संस्‍कृति को प्रधानता देते हुये यह सिद्वांत प्रतिपादित किया कि देश की संस्‍कृति ही देश की आत्‍मा है तथा यह एकात्‍म होती है. इसकी मैलिकता सदैव अक्षुण्‍ण रहती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress