-ललित गर्ग-
बिहार में चुनाव आयोग की ओर से शुरू की गई मतदाता सूची के विशेष सघन पुनरीक्षण (एसआईआर) की प्रक्रिया लगातार चर्चा में है। जहां एक तरफ इसे लेकर शुरू की गई कांग्रेस नेता राहुल गांधी और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव की वोटर अधिकार यात्रा सोमवार को पटना में विपक्षी नेताओं की रैली के साथ समाप्त हुई, वहीं सुप्रीम कोर्ट ने इसे लेकर नए आदेश जारी करते हुुुए मतदाता सूची सुधार का कार्य आगे भी जारी रहने का निर्देश जारी किये हैं, यह निर्देश स्वागतयोग्य है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि यह पूरा प्रकरण आखिरकार कैसा मोड़ लेगा और आगामी बिहार विधानसभा चुनाव पर किस तरह का असर डालेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को स्पष्ट कर दिया कि बिहार के मतदाता 1 सितंबर के बाद भी दावा या आपत्ति कर सकेंगे। यह निर्देश बहुत जरूरी है, क्योंकि अभी भी राजनीतिक दलों की शिकायतें दूर नहीं हुई हैं। ज्यादातर आम लोगों की शिकायतों का निवारण कर दिया गया है, पर कुछ राजनीतिक पार्टियों के लिए एसआईआर की खामी एक बड़ा मुद्दा है। महागठबंधन में शामिल दल इस मुद्दे में विवाद खड़े करने में ही अपने चुनावी हित देख रहे हैं। हालांकि, न्यायालय ने उचित ही बताया है कि मतदाता सूची के एसआईआर को लेकर असमंजस की स्थिति काफी हद तक ‘विश्वास का मामला’ है। इसका मतलब, जो राजनीतिक अविश्वास है, उसे दूर करने के लिए स्वयं दलों को सक्रिय होना पड़ेगा। न्यायालय की इस सलाह पर राजनीतिक दलों को गौर करना चाहिए और इस प्रक्रिया को सकारात्मक तरीके से आगे बढ़ाना चाहिए। क्योंकि चुनाव सुधार एक सामूहिक जिम्मेदारी है। अगर सभी राजनीतिक दल यह ठान लें, तो चुनाव में किसी भी तरह की गड़बड़ी को रोका जा सकता है। वास्तव में, मतदाता पुनरीक्षण का काम राजनीतिक दलों को अपने स्तर पर लगातार जारी रखना चाहिए, इससे लोकतंत्र की मजबूती सुनिश्चित होगी एवं चुनाव की खामियों को सुधारा जा सकेगा।
वोटर अधिकार यात्रा के समापन के मौके पर आयोजित रैली में विपक्षी नेताओं ने जो कुछ कहा, उससे स्पष्ट है कि चुनाव आयोग की ओर से शुरू की गई इस प्रक्रिया के औचित्य को लेकर वे अभी आश्वस्त नहीं हैं। वैसे इस तरह की संवैधानिक प्रक्रियाओं को भी राजनीतिक रंग देना, विडम्बनापूर्ण है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है विपक्षी नेताओं द्वारा कथित वोट चोरी का मुद्दा उठाते हुए चुनाव आयोग को आरोपों के दायरे में शामिल रखा जाना। ऐसा प्रतीत होता है कि विपक्षी नेता चुनाव आयोग और सरकार को घेरते हुए यह मुद्दा बार-बार उठाते रहेंगे। विपक्षी दल इस विषय में जिस तरह की नकारात्मकता दर्शा रहे हैं, वह भी प्रश्नों के घेरों में एवं अतिश्योक्तिपूर्ण है। क्योंकि यह अत्यंत सामयिक और संवेदनशील है। बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया, एक ओर मतदाता सूची को शुद्ध एवं पारदर्शी बनाने का प्रयास है, वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी और तेजस्वी यादव द्वारा इस प्रक्रिया को चुनौती देते हुए ‘वोटर अधिकार यात्रा’ निकालना और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करना, लोकतंत्र की सेहत और स्थायित्व को धुंधलाता है।
सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई का जहां तक सवाल है तो वहां भी विपक्षी दल और चुनाव आयोग एक-दूसरे पर तीखे आरोप लगाते नजर आए। जहां विपक्षी दलों के वकील इस प्रक्रिया की खामियों की ओर कोर्ट का ध्यान दिलाते रहे, वहीं चुनाव आयोग के वकील ने साफ शब्दों में कहा कि समस्या इस प्रक्रिया में नहीं, बल्कि उस मानसिक सोच में है, जो आग्रह, पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह से ग्रस्त है। उनके मुताबिक दूसरे पक्ष की मानसिकता ही खोट निकालने की हो गई है। इसमें दो राय नहीं कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को यथासंभव उपयुक्त ढंग से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन यह देखना बाकी है कि चुनाव आयोग इस प्रक्रिया में सभी पक्षों का विश्वास जीतने और सभी योग्य मतदाताओं की आशंकाएं दूर करने में किस हद तक कामयाब हो पाता है।
निश्चित ही पुनरीक्षण की प्रक्रिया में अभी तक के अनुभव मिले-जुले रहे हैं। चुनाव आयोग की ओर से अदालत में पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने बताया कि राजनीतिक दल सूची में मतदाताओं को शामिल करने के दावों के बजाय उन्हें हटाने की मांग करते हुए आपत्तियां दर्ज करा रहे हैं। अगर चुनाव आयोग ने ज्यादा नाम काटे होते, तो नाम जोड़ने के लिए ज्यादा दावे होते। कांग्रेस को शायद अभी भी शिकायत है कि उसके एजेंटों के दावे पर गौर नहीं किया गया है। दूसरी ओर, चुनाव आयोग ने कहा है कि दावे यथोचित प्रारूप में नहीं किए गए हैं। ऐसे में, चुनाव आयोग को कुछ उदारता बरतते हुए अपनी सूची का हकीकत से मिलान करना चाहिए। बिहार में ही बड़ी पार्टियों के तमाम बूथ लेबल एजेंट (बीएलए) सक्रिय हो जाएं, तो मतदाता सूची को दोषरहित बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय की भी यही मंशा है। मतदाता सूची को लेकर विवादों में पड़े रहना हर प्रकार से अफसोसजनक होगा, इससे हमारे लोकतंत्र की गरिमा घटेगी। गौर करने की बात है कि शीर्ष अदालत के निर्देश पर सभी जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों और पैरा लीगल स्वयंसेवकों को पुनरीक्षण में लगाया जाएगा। वास्तव में, पुनरीक्षण जल्दी संपन्न होना चाहिए, ताकि बिहार चुनाव में देरी न होने पाए।
चुनाव आयोग भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ है। इसका दायित्व केवल चुनाव कराना नहीं, बल्कि चुनाव की निष्पक्षता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाए रखना भी है। मतदाता सूची में गड़बड़ी, डुप्लीकेट नाम, मृत व्यक्तियों के नाम, या फर्जी पंजीकरण जैसी समस्याएं अक्सर चुनावी निष्पक्षता पर प्रश्न उठाती रही हैं। ऐसे में एसआईआर जैसी प्रक्रिया को चुनाव आयोग द्वारा लागू करना आवश्यक कदम माना जा सकता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इस प्रक्रिया को शुरू करने से पहले पर्याप्त राजनीतिक परामर्श, जनजागरूकता और पारदर्शिता सुनिश्चित की गई थी? यदि ऐसा नहीं हुआ, तो राजनीतिक दलों का असंतोष स्वाभाविक है। इसमें कोई शक नहीं कि पुनरीक्षण के मामले ने बिहार की राजनीति को गरमा दिया है। बिहार आज निर्णायक मोड़ पर है। विशेष रूप से जन सुराज पार्टी के जो तेवर हैं, उससे बिहारी राजनीति के पूरे कलेवर पर असर पड़ सकता है। बिहार का विकासोन्मुख होना जरूरी है। इस जरूरत को बिहार में नया और पुराना विपक्ष ही नहीं, बल्कि सत्ता पक्ष भी नए सिरे से समझ रहा है। लोगों के लिए तो यही सबसे अच्छी बात होगी कि सभी राजनीतिक दल अपने मुद्दों में विकास और रोजगार, शिक्षा और चिकित्सा को सबसे ज्यादा तरजीह दें।
अब बड़ा प्रश्न है कि यदि सुप्रीम कोर्ट आयोग के पक्ष में निर्णय देती है, तो विपक्ष को अपने आंदोलन का औचित्य सिद्ध करना कठिन होगा। वहीं यदि अदालत को प्रक्रिया में खामियां मिलती हैं, तो आयोग की कार्यप्रणाली पर गहरे प्रश्न उठेंगे। विपक्ष की ओर से इसे सीधे लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला बताना भी अतिशयोक्ति कहा जा सकता है, क्योंकि मतदाता सूची को शुद्ध करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है। यदि ऐसे हर संवैधानिक कदम को राजनीतिक रंग देकर विवादित बना दिया जाए, तो लोकतंत्र में संस्थाओं की मजबूती के बजाय कमजोरी ही बढ़ेगी। एसआईआर जैसी पहल की केवल बिहार ही नहीं, समूचे देश में जरूरत है ताकि चुनाव प्रक्रिया भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों से मुक्त हो सके। लेकिन इसकी सफलता तभी सुनिश्चित होगी जब यह निष्पक्ष, पारदर्शी और सर्वसम्मत तरीके से लागू हो। चुनाव आयोग को न केवल अपने कदमों की संवैधानिकता, बल्कि उसकी जनस्वीकार्यता भी सुनिश्चित करनी चाहिए। विपक्ष को भी इस प्रक्रिया को मात्र राजनीतिक हथियार बनाने के बजाय रचनात्मक संवाद के जरिए समाधान तलाशना चाहिए। लोकतंत्र केवल मतदाताओं की भागीदारी से नहीं, बल्कि संस्थाओं पर विश्वास से भी जीवित रहता है। इसलिए संस्थाओं की गरिमा और पारदर्शिता दोनों की रक्षा अनिवार्य है।