-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य का ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप को जानकर ईश्वर की उपासना करना तथा उपासना करते हुए अपनी
आत्मा की उन्नति करना वेदाध्ययन के समान परम धर्म है। देश व समाज सहित अपनी शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक
उन्नति करना आत्मा की उन्नति में ही सम्मिलित हैं। मनुष्य को ज्ञान व मार्गदर्शन के लिये सत्पुरुष ज्ञानी विद्वानों की
आवश्यकता होती है। ईश्वर का ज्ञान व उसकी प्राप्ति तो ईश्वर ही करा सकता है। मनुष्य अल्पज्ञ होने से ईश्वर विषयक
निर्भ्रान्त ज्ञान को अपने एकाकी प्रयत्नों से प्राप्त नहीं हो सकता। ईश्वर सर्वज्ञ है। वह चेतन, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य तथा
अविनाशी होने से इस संसार को तत्वतः अर्थात् यथार्थ रूप में जानता है। उसने अपने इसी स्वरूप में विद्यमान व स्थित होकर
इस अनन्त सीमाओं वाले ब्रह्माण्ड की रचना की है। उसी ने पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल सहित सभी पदार्थों को बनाया है। वही
इस पूरे ब्रह्माण्ड का संचालन व सब प्रकार की अपोरुषेय व्यवस्थाओं को कर रहा है। ईश्वर सब सत्य विद्याओं और सभी
पदार्थों का आदि मूल भी है जिन्हें हम विद्या से जानते हैं। अतः ईश्वर को यथार्थ रूप से जानने के लिये उसी से उसका ज्ञान
मिलना चाहिये। यदि वह मनुष्यों को अपने स्वरूप, संसार तथा मनुष्यों के कर्तव्यों सहित प्रकृष्ट भाषा आदि का ज्ञान नहीं
देता तो फिर ईश्वर ईश्वर नहीं कहला सकता। ऋषियों ने ईश्वरीय ज्ञान के रूप में सृष्टि में विद्यमान वेदों को स्वीकार किया है।
वेदों का अध्ययन करने पर वेदों में सभी सत्य विद्यायें पायी जाती हैं। वेदों की भाषा व सब सत्य विद्याओं का उनमें होना, वेदों
को ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध करता है जो सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनकी आत्माओं में
ईश्वर से मिला था। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका लिखकर वेदों को सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ सिद्ध किया है।
हम देखते हैं कि गर्भस्थ शिशु में माता के आचार, विचार व संस्कार पाये जाते हैं। यह गर्भस्थ शिशु और माता की
गर्भकाल में आत्माओं की निकटता व उसके बाद भी बाल्यकाल में निकटता का परिणाम माने जा सकते हैं। ईश्वर क्योंकि
सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी है, अतः सभी आत्माओं के भीतर प्रविष्ट होने से वह आत्मा को प्रेरित करने व ज्ञान देने की
सामर्थ्य रखता है। इसी सामर्थ्य से परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को एक-
एक वेद का ज्ञान दिया था और वही ज्ञान उसके बाद ब्रह्मा जी को प्राप्त होकर ऋषि परम्परा से हम तक पहुंचा है। वैदिक
व्याकरण के अनुसार धर्म शब्द का अर्थ वह श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव, कर्तव्य व आचरण आदि हैं जिन्हें मनुष्य को धारण
करना व उनका प्रचार-प्रसार करना होता है। यदि मनुष्य सद्ज्ञान वेद की प्राप्ति में प्रयत्न नहीं करता और उसे प्राप्त कर
उनका मनन व सत्य ज्ञान का आचरण व प्रचार नहीं करता तो वह मनुष्य अधूरा मनुष्य ही कहा जा सकता है। मनुष्य की
पूर्णता तो ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि का मनन-चिन्तन कर उससे प्राप्त ज्ञान को आत्मसात करने और उसे अपने आचरण में
लाकर उस ज्ञान से दीपक की भांति प्रकाश स्रोत को उत्पन्न कर अज्ञान अन्धकार से युक्त लोगों में उसका प्रचार कर ज्ञान का
प्रकाश उत्पन्न करने में होती है। संसार के सभी दानों में वेद-विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। हमारे ऋषि-मुनि व
विद्वान प्राचीन काल से यही करते आये हैं। यही कार्य स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती, स्वामी विरजानन्द सरस्वती, स्वामी
दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, पं0 लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, आचार्य
चमूपति, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द तथा पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय आदि विद्वानों ने किया है।
इन महापुरुषों के कारण हमारा वैदिक धर्म और संस्कृति आज जीवित है। इसी काम को वर्तमान के विद्वानों व
सत्पुरुषों को जारी रख कर अपने जीवन को सार्थक करना है। यदि ऐसा करेंगे तो हमारा जीवन सफल होगा, अन्यथा नहीं।
इससे अच्छा व श्रेष्ठ कार्य कुछ भी नहीं है। हम सब जानते हैं कि स्कूली ज्ञान का महत्व अपनी जगह है परन्तु वेद वर्णित
ईश्वर, जीवात्मा व मनुष्य के कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान भी जीवन में सर्वाधिक महत्व रखता है। बिना वेद ज्ञान प्राप्त किये
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व उस पर आचरण किये मनुष्य जीवन में उन्नति नहीं कर सकता। यह उन्नति आत्मा की उन्नति होती है। स्कूली शिक्षा से तो
मनुष्य अध्यापन व व्यापार आदि करके धन कमा सकता है परन्तु इससे आत्मा की उन्नति नहीं होती। आत्मा की उन्नति
वैदिक ज्ञान को प्राप्त कर ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्यो व विद्वानों की सेवा, अभावग्रस्तों की सहायता,
दुखियों का पीड़ा-हरण तथा देश व समाज को सुखी रखने के लिये उसे अपने तन, मन व धन से सहयोग करने से होती है। हम
अपने महापुरुषों राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य एवं आर्य राजाओं आदि को देखते हैं तो हमें उनके जीवनों में यही गुण
दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त लोक व परलोक में उन्नति का अन्य कोई उपाय किसी मनुष्य, मत, सम्प्रदाय या उनके
आचार्य के पास नहीं है।
उपर्युक्त कारण से वेदों का ज्ञान तथा उसका प्रचार व प्रसार विद्वान व सज्जन पुरुषों का कर्तव्य निश्चित होता है।
ऐसा करने से ही मनुष्य को सन्तोष व शान्ति प्राप्त होती है। भौतिक पदार्थों के संग्रह व उनके भोग में अस्थाई कुछ सुख
अवश्य मिलता है परन्तु यह कुछ काल बाद जब शरीर ढल जाता व शिथिल होना आरम्भ हो जाता है तो सभी सुख की सामग्री
होने पर भी मनुष्य रोग व दुःखों से ग्रस्त होकर असन्तुष्ट व अप्रसन्न रहता है। ऐसे मनुष्य की मृत्यु के बाद पुनर्जन्म में भी
अधोगति होती है जबकि वेदानुसार आचरण करने वाले मनुष्यों की उन्नति व श्रेष्ठ योनियों में जन्म सहित मोक्ष मिलने से
उन्नति होती है। इसका प्रमाण वेद, ऋषियों के बनाये सच्छास्त्र तथा आप्त वचनों सहित उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश तथा
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का ज्ञान है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से हमें हमारे जीवन का लक्ष्य ज्ञात होता है जिसकी
सत्यता की पुष्टि हमारी आत्मा अपने चिन्तन, मनन व विवेचन से करती है। वर्तमान समय में स्कूली व कालेज की शिक्षा का
महत्व तो केवल जीवनयापन हेतु धनोपार्जन में ही होता है। आत्मा को जड़ व चेतन का ज्ञान कराने तथा ईश्वरोपासना तथा
यज्ञ अग्निहोत्र आदि विषयों का परिचय एवं विधि का ज्ञान तो वेदादि सत्साहित्य के अध्ययन तथा विद्वानों तथा
अन्धविश्वास व अविद्या से रहित सच्चे साधु-सन्तों की संगति व उनके उपदेशों से ही हो सकता है। इसी प्रक्रिया से हम
समझते हैं हमारे आदर्श महापुरुष राम, कृष्ण व दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषियों का निर्माण पूर्वकाल में हुआ था। आज भी
हमारे गुरुकुलों व विद्यालयों में पढ़कर, घर में वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय के द्वारा तथा आर्यसमाज के सत्संगों
आदि में जाकर मनुष्य इस लक्ष्य को प्राप्त करता व कर सकता है।
अध्ययन-स्वाध्याय-अध्यापन व सन्ध्योपासना आदि साधनों के द्वारा ईश्वर व आत्मा आदि अदृश्य चेतन सत्ताओं
का चिन्तन करते हुए मनुष्य का कर्तव्य होता है कि वह वेद की सत्य शिक्षाओं का निष्काम भाव से प्रचार प्रसार करे और इसकी
अन्य लोगों को प्रेरणा भी करें। ऐसे कार्य करने से मनुष्य की आत्माओं को सन्तोष व शान्ति लाभ होने सहित उनकी यश व
कीर्ति में भी वृद्धि होती है। यही कार्य करने से हमारा संसार में जन्म लेना सफल होता है। स्वामी विरजानन्द सरस्वती तथा
उनके शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी यही काम कर अपने जीवन को लक्ष्य प्राप्ति के लिये दक्ष, उपयोगी व मोक्षगामी
बनाया था। ऐसा करने से ही हमारा देश, समाज व संसार श्रेष्ठ व सुखी बनता है। भावी पीढ़ियों तक इस प्रकार से वेद प्रचार
कार्यों से कर्तव्यों के महत्व का ज्ञान पहुंचेगा तो वह भी इस जीवन पद्धति को अपनाकर आत्मिक उन्नति सहित सुख लाभ
कर सकेंगे। हमें अपने पूर्वजों के मार्ग पर चलना है जो ज्ञान व प्रकाश का मार्ग है। हमें उस मार्ग पर अन्यों को भी चलाना है।
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्यातिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतम् गमय।। यह आदर्श वाक्य ही हमारे उद्देश्य व लक्ष्य हैं। हमें
इनको सिद्ध करना है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
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