सवाल न्यायपालिका की साख का – अमलेन्दु उपाधयाय

judiciaryगाजियाबाद के पीएफ धोटाले के मूख्य अभियुक्त आशुतोष अस्थाना की मौत पर दो पंक्तियों में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है – ‘अधेरों ने हमारे अंजुमन की आबरू रख ली/ न जाने कितने चेहरे रोशनी में आ गए होते।’ दीपावली वाले दिन अस्थाना की गाजियाबाद की जिला जेल में रहस्यमय मौत हो गई थी। इससे पहले भी गाजियाबाद की जिला जेल में कई अन्य हाई प्रोफाइल केस के अभियुक्तों की रहस्यमय मौतें हो चुकी है। लेकिन आशुतोष अस्थाना की मौत समूची न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है।

आशुतोष अस्थाना पीएफ घोटाले का मुख्य अभियुक्त था और अपने इकबालिया बयान में वह छत्तीस जजों के नाम उगल चुका था कि इन जजों के सहयोग और आदेश से उसने इस घोटाले को अंजाम दिया था। बताया तो यह भी जा रहा है कि अस्थाना अदालत में कोई और इकबालिया बयान देने जा रहा था और सीबीआई भी फाइनल चार्जशीट लगाने जा रही थी लेकिन वह समय आता उससे पहले ही अस्थाना सीने में बहुत से राज छिपाए हुए इस दुनिया से रूखसत हो गया।

समाचार पत्रों में यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित हुई है कि अस्थाना के परिवारवालों ने कहा है कि उन्होंने पुलिस को कम से कम दो बार ये सूचना दी थी कि अस्थाना को जान का खतरा है। परिवार वालों ने इस मामले की सीबीआई जांच करवाने की मांग भी की है। हालांकि गाजियाबाद के पुलिस अधीक्षक का बयान भी सभी समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने इस बात से इंकार किया है कि अस्थाना ने अपनी जान को खतरा बताया था। यहां सवाल यह है कि अगर अस्थाना ने पुलिस से सुरक्षा की गुहार नहीं भी की थी तो क्या यह पुलिस का काम नहीं था कि इतने महत्वपूर्ण हाई प्रोफाइल केस के मुख्य अभियुक्त की सुरक्षा के इंतजामात किए जाते? आईजी जेल सुलखान सिंह ने एक निजी टीवी चैनल के सामने स्वीकार भी किया है कि पहले भी कोर्ट में पेशी के दौरान अस्थाना के साथ मारपीट की गई थी।

बताया जा रहा है कि आशुतोष अस्थाना से एक दिन पहले ही सीबीआई ने कई घंटे तक पूछताछ की थी और इसके एक दिन बाद उसकी मौत होना सवाल खड़े करता है। क्या इस पूछताछ में भी कुछ रहस्य छिपा हुआ है? यह भी कहा जा रहा है कि पिछले कई रोज से सीबीआई अधिकारी जेल में उससे पूछताछ कर रहे थे और अस्थाना अदालत में अपने बयान देने वाला था जिसमें कई बड़े नाम लपेटे में आने वाले थे। इससे पहले भी अपने बयान में वह तीन न्यायाधीशों को लपेट चुका था। बताया जाता है कि अनुच्छेद 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए बयान में अस्थाना ने खुलासा किया था कि उसे पुलिस से छिपने में तीन जजों ने मदद की थी। अस्थाना को हाईकोर्ट के तीन न्यायधीशों ने भरोसा दिया था कि जांच पूरी होने के बाद वे मामले को देख लेगें। तीनों न्यायधीशों का नाम घोटाले से लाभ कमाने वालों की सूची में भी बताया जाता है।

यह केस कितना गम्भीर था इसी बात से समझा जा सकता है कि जांच करने में सीबीआई के भी पसीने छूट गए। समझा जा सकता है कि जांच टीम भी किस मानसिक दबाव से गुजर रही होगी कि उसे सुप्रीम कोर्ट से अपील करनी पड़ी कि घोटाले से संबंधित मामले की जांच दिल्ली में कराई जाए ताकि जांच एजेंसी को अपने मुख्यालय से जांच कराना सुविधाजनक हो। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार भी इस केस की सीबीआई जांच कराने से कन्नी काटती रही लेकिन जब गाजियाबाद बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष नाहर सिंह यादव ने मोर्चा खोला और अधिवक्ता एकजुट हुए तब सीबीआई जांच बैठाई गई। स्वयं सुप्रीम कोर्ट की तीन बेंच में यह मुकदमा स्थानान्तरित हुआ और सुनवाई करने वाले विद्वान न्यायाधीशों पर पक्षपात करने के आरोप भी लगे।

 

अस्थाना का फ्रॉड का केस भी बहुत नाटकीय अंदाज में खुला। यह आम चर्चा है कि अस्थाना का गाजियाबाद की जिला कोर्ट में इतना रुतबा था कि सीजेएम और एडीजे स्तर के अधिकारी भी उससे अनुमति लेकर उसके कमरे में दाखिल होते थे। और तुतीय व चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी तो उसके कमरे में जूते बाहर उतारकर दाखिल होते थे। गाजियाबाद में किस जिला जज की नियुक्ति हो रही है यह अस्थाना को पहले से मालूम रहता था। जाहिर है एक क्लर्क का यह रूतबा बिना ऊपर के आशीर्वाद के नहीं बना होगा। उसका यह धोटाला पकड़ा भी नहीं जाता अगर वह एक ईमानदार महिला जज से न उलझा होता। चर्चा है कि अस्थाना सीबीआई की स्पेशल जज रमा जैन, जो उस समय नजारत की इंचार्ज भी थीं, से एक फर्जी बिल पास कराने पहुँचा। बतातें हैं कि रमा जैन ने वह बिल पास करने से मना कर दिया। इस पर अस्थाना ने उन्हें घुड़की दी कि यह बिल तो पास होंगे ही लेकिन इंचार्ज बदल जाएगा और अगले दिन ही रमा जैन से वह चार्ज छिन गया। इस पर महिला जज ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से शिकायत की कि गाजियाबाद की अदालतों में कुछ ऐसा है जो गलत है। इस पर जैन को जांच का जिम्मा मिला और उन्होंने आते ही एकाउन्ट्स और नजारत को सील किया फिर जब जांच की तो अस्थाना का फर्जीबाड़ा खुला। तब रमा जैन ने स्वयं गाजियाबाद के थाना कविनगर में एफआईआर दर्ज कराई। यह वही रमा जैन हैं, जिन्होंने निठारी केस में पंढेर और कोली को फांसी की सजा सुनाई थी।

अपनी गर्दन फंसती देखकर अस्थाना ने अदालत में सेक्शन 164 के तहत इकबालिया बयान दर्ज कराकर पोल खोल दी कि यह फर्जीवाड़ा तो वह जजों के सहयोग से कर रहा था और यह राशि भी जजों के ऊपर ही खर्च होती थी। उसने बाकायदा कई बिल भी उपलब्ध कराए जो उसके बयान की पुष्टि करते हैं।

भले ही आशुतोष अस्थाना की मौत स्वाभाविक रूप से हुई हो लेकिन अगर निश्पक्ष जांच न हुई, ऐसी जांच जिसमें कोई न्यायिक अधिकारी शामिल न हो, बल्कि कई संवैधानिक संस्थाओं के लोग शामिल हों, तो लोग भरोसा नहीं करेंगे। केस की गम्भीरता को देखकर लगता है कि अस्थाना की मौत एक रहस्य ही बनी रहेगी। इसीलिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी मौत का कारण अभी तक सामने नहीं आया है। जिस केस में 36 बड़े जज फंस रहे हों, जिनमें से एक सुप्रीम कोर्ट और ग्यारह हाई कोर्ट के जज हों, उस केस के मुख्य अभियुक्त की मौत से रहस्य से पर्दा इतनी आसानी से उठ भी कैसे सकता है? उप्र सरकार अस्थाना की मौत की जांच की घोषणा कर चुकी है। लेकिन जांच कौन करेगा? वही पुलिस, जिसके कप्तान साहब अस्थाना के इकबालिया बयान पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से जजों से पूछताछ करने की अनुमति मांग रहे थे! यह अभी भी रहस्य बना हुआ है कि अस्थाना की मौत कैसे हुई। बताया जाता है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है। जैसा कि संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि उसकी मौत जहर खाने से हुई तो सवाल ये है कि तो उसे जेल में जहर कहां से मिला । दूसरा बड़ा सवाल ये कि उसने ये जहर खुद खाया या फिर किसी ने उसे जबरन जहर खिलाया। अगर उसने खुद जहर खाया तो खुदकुशी की वजह क्या थी और उसने जहर खाने के बाद किसी से इसका जिक्र क्यों नहीं किया। इसलिए अगर यह संदेह सही है कि मौत जहर खाने से ही हुई तो निश्चित रूप से यह हत्या का मामला ही नजर आता है।

इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। लेकिन संभवत: यह पहला अवसर है कि न्यायिक जांच के निश्पक्ष होने पर ही संदेह व्यक्त किया जा रहा है। सवाल सिर्फ अस्थाना की मौत की निश्पक्ष जांच का नहीं है बल्कि पूरी की पूरी न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता संकट में है। इसलिए जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से ही होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि जब पुलिस ने आरोपित जजों से पूछताछ करने की अनुमति मांगी तब मुख्य न्यायाधीश ने पुलिस से संभावित सवालों की सूची माँगी। इससे जनमानस में यह संदेश गया कि क्या मुल्क में दो कानून हैं? जजों के लिए एक और आम आदमी के लिए अलग?

अक्सर न्यायपालिका पर उंगलिया उठती रही हैं। मसलन सूचना के अधिाकार की परिधिा में जज साहब क्यों नहीं आते हैं? सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति की क्या प्रक्रिया है? जज साहब की जवाबदेही किाके प्रति है इस देश के संविधान के प्रति, सरकार के प्रति या जनता के प्रति या किसी के प्रति नहीं?

एक टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में कुछ सांसद रंगे हाथ रिष्वत लेते हुए पकड़े गए थे। लेकिन संसद ने एक स्वर से उन दागी सांसदों की सदस्यता रद्द करके बाहर का रास्ता दिखाया और अपनी विश्वसनीयता बचाकर एक नजीर पेश की। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि अस्थाना ने जिन जजों के नाम अपने इकबालिया बयान में लिए वह अभी तक बदस्तूर न्यायिक काम निपटा रहे हैं और जो काम नहीं भी कर रहे हैं वह महज इसलिए क्योंकि वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इतना ही नहीं जिन तीन जजों के नाम अस्थाना ने अपने इकबालिया बयान में लिए थे कि किस तरह इन जजों ने उसे गिरफ्तारी से बचने में मदद की और छिपाया उन जजों के खिलाफ भी अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

भले ही कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कह रहे हों कि अस्थाना की मौत से इस केस की जांच पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन इतिहास बताता है कि अंजाम क्या होगा?

जिस तरह से जजों की संपत्तिा के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की पहल पर जजों ने स्वयं अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने का साहसिक निर्णय लिया था उसी तरह की नजीर पीएफ घोटाले में भी पेश की जानी चाहिए और उन जजों से सारा न्यायिक काम छीन लिया जाना चाहिए जिनके नाम अस्थाना ने अपने इकबालिया बयान में लिए थे। अस्थाना की मौत के बाद ऐसी निश्पक्षता का प्रदर्शन और जरूरी हो जाता है ताकि न्याय केवल हो ही नहीं बल्कि होता हुआ दिखाई भी दे। क्या ऐसा साहस दिखा पाएंगे मी लॉर्ड !!!!!!!!!!!

लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं

अमलेन्दु उपाधयाय

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