गाय बची तो ही हिन्दू और मुसलमान बचेगा

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-हरपाल सिंह

भारत की संस्कृति, समृद्वि और सभ्यता का आधार गंगा, गौ, गायत्री, गीता और गुरु ही रही है। भारत की संस्कृति प्रकृति मूलक संस्कृति है। दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदो में कण-कण के प्रति अहोभाव की अभिव्यक्ति है। हमने सूर्य-चन्द्र, ग्रह नक्षत्र, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, पेड़-पौधों को पूज्य माना है। प्रकृति का कण-कण हमें देता है। इसीलिए कण-कण में देवाताओं का निवास माना है। इस प्राकृतिक संरचना में गाय को हमने विशेष दर्जा दिया है। उसे कामधेनु तथा सर्व देव मयी गौ माता माना है। वह हमें दूध, दही, घी, गोबर-गोमूत्र के रूप में पंचगव्य प्रदान करती है। सृष्टि की संरचना पंचभूत से हुई है। यह पिंड, यह ब्रहमाण्ड,पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश रूप पंचभूतों के पांच तत्वो से बना है। इन पंचतत्वो का पोषण और इनका शोधन गोवंश से प्राप्त पंच गव्यों से होता है। इसीलिए गाय को पंचभूत की मां कहां गया है। ‘मातर: सर्व सुखप्रदा:। इस प्रकार वह प्रकृति की माता है। वह गोबर से धरती को उर्वरा बनाती है। जल और वायु का शोधन करती है। हमें अग्नि व ऊर्जा प्रदान करती है। आकाश को निर्मल और पर्यावरण को शुद्ध रखती है। गोबर गाय का वर है। यानि वरदान है। वह सोना रुपी खाद है। अमृत खाद है। गोबर में धन की देवी लक्ष्मी का निवास बताया गया है। ‘गोमये बसते लक्ष्मी धरती में जब हम यह अमृत खाद डालते हैं। तो धरती सोना उगलती है। हमें अमृत तुल्य पोषण तत्व प्रदान करती है। इसी प्राकृतिक देन से भारत सोने की चिड़िया बना। धन-धान्य सम्पन्न रहा। पर आज हम विपन्न क्यों बन गये। गरीबी की सीमा रेखा से नीचे कंगाली के स्तर तक क्यों पहुंच गये। हमारे गांव जो -कृषि सम्पदा, वनस्पति, गौ-सम्पदा एवम् खनिज आदि सम्पदाओं व संसाधनों के स्रोत तथा कला, कौशल का हुनर ,कारीगरी, कुटीर व ग्रामोघोगों के केन्द्र व स्वरोजगार सम्पन्न रहे है। आज क्यों उजड़ गये है। हमारे कुशल कारीगरो को गांवों से पलायन कर शहरों में सामान्य मजदूर बन कर गंदे नालों के आसपास नारकीय जीवन बसर करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ रहा है। प्राकृतिक संतुलन और प्रदूषण क्यों बढ़ रहा है। आज प्रत्येक व्यक्ति क्यों किसी ना किसी रोग से ग्रसित है। यह यक्ष प्रश्न आज हमारे सामने मुहं बायें खड़ा है। इसका तत्काल समाधान खोजना आज विश्व की प्राथमिक आवश्यकता बनता जा रहा है। इसलिए विश्व को दिशा देने वाले भारत की प्राचीन प्रकृति मूलक गो-आधारित स्वरोजगार सम्पन्न स्वावलम्बी ग्राम की चरणबद्ध कार्य योजना पर विश्व को चलना होगा। हमारे पुराण व शास्त्रा अत्यन्त पुरातन होते हुए भी पूर्ण संतुलन के विज्ञान को दर्शाते है। 17 वीं सदी तक भारत विज्ञान में आगे था। 18 वीं सदीं में इग्लैंड के जेम्सवाट ;1750ध्द द्वारा वाष्प शक्ति की खोज ने इस समीकरण को बदलना प्रारम्भ किया। आधुनिक प्रौद्योगिकी की क्रान्ति का स्रोत कोयला था। कोयला जलने से प्राप्त ऊर्जा से यूरोप वासियों की सामाजिक शक्ति में भारी उन्नति हुई। इस उन्नति का प्रभाव आप वर्तमान में प्रकृति असंतुलन पर कोपेनहेगन में माथा पच्ची से भविष्य की चिताओं को समझ सकते है। कोयले के साथ कच्चा तेल, परमाणु ऊर्जा, प्राकृतिक गैस पन बिजली, रासायनिक खेती, जैविक खेती, खान-पान, रहन सहन, जैसे तमाम कारणों की वजह से धरती का तापमान पिछले सौ साल तापमान 0.74 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। एक अनुमान के मुताबिक 0.50 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से ही पीने योग्य पानी में 1/4 कमी आ जायेगी। 1/4 गेहू-और अन्य पफसलो का उत्पादन घट जायेगा। जिस हिसाब से जनसंख्या बढ़ रही है, उसी हिसाब से मांग भी बढ़ रही है। साथ ही साथ प्राकृतिक आपदाओं और प्रदूषण से संसार विनाश की ओर बढ़ रहा है। कोपेन हेगन के वैज्ञानिको का ही निष्कर्ष है कि कृषि से 12.8 प्रतिशत ग्लोबल वार्मिग पर प्रभाव पड़ रहा है। लेकिन वे लोग भूल जाते है। कि कृषि में रासायनिक खेती को हरित क्रान्ति के नाम पर भूमि को बांझ बनाने वाले, नाइट्रस आक्साइड, मिथेन, कार्बन डाईआक्साइड हाइड्रोफ्रलुरोकार्बन, सल्पफर हैक्सा फ्रलोराइड जैसी तापमान बढ़ाने वाली गैसों की रासायनिक खेती की पैदाइस भी उन्हीं की देन है। दूसरी तरपफ यही लोग अन्तरराष्ट्रीय स्तर हल्ला मचाते है। कि भारत के पशुओं से मिथेन का उत्सर्जन ज्यादा हो रहा है। उसमें भी गौ माता को आधार बनाते है। दूसरी तरफ यही लोग अपने पशुओं को सोयाबीन, मक्का, मटर, खिलाकर मिथेन का उत्सर्जन अधिक कर मांस प्राप्त करने के लिए तापमान बढ़ा रहे है। इन मांसो को पकाने मे 18 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन हो रहा है। अमेरिका में औसतन एक व्यक्ति एक साल में 125किलो मांस खाता है। वही ब्राजील में 90 किलो, चीन में 70 किलो, बिट्रेन 110 किलो, विश्व स्तर देखा जाय तो 2009 में 42.8 करोड़ टन मांस का उत्पादन होने का अनुमान है। इसे पकाने में पृथ्वी के तापमान पर क्या असर पड़ेगा। इन लोगों को पता ही नहीं कि हमारे देश की प्राचीन पद्धति शाकाहारी, प्राकृतिक खेती, जल, जंगल, जमीन, जन जानवर के परस्पर सम्पोषण जैसे प्रकृति परख विकास की रही है। हमारे देश की गो माता घास खाती है। जिसमें ओमेगा चर्वीदार अम्ल अधिक मात्रा में उपलब्धा होते है। जिससे मिथेन की मात्रा कम होती है। साथ ही दूध की मात्रा बढ़ जाती है। इन वैज्ञानिकों को पाराशर मुनि द्वारा दी गयी विधिा की भी जांच करनी चाहिए जिसमें उन्होंने माघ महीने में 25डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर गोबर खाद में विघटन करने वाले जीवाणु ज्यादा सक्रिय होते है। इसी समय गड्डे में गोबर का उलट पफेर ठीक होने की बात कही है। ताकि मिथेन का उत्सर्जन हो ही ना। गोमाता को स्वच्छ जल कुदरती चारा और कम से कम 6 घंटे टहलने की बात कही ताकि गाय की आत में अनुकूल प्रति जैविक निर्माण करने में लेक्टो बसीलस, बायपिफड़ो बैक्टेरियम, स्टे्रप्टोकाकस, एप्ट्रोकाकंस, ल्यूकान स्टाक, पेड़ीओकाकस, पीस्टकल्चरस अस्परजिनेस इन जीवाणुओं की भूमिका होती है जिसके कारण पर्यावरण संतुलन निर्माण होता है। इस आत में पर्यावरण के घटक होते है स्थिर जीवाणु और अस्थिर जीवाणु, लार स्वादुपिण्ड रस, लीवर और आत के अंत:स्राव, विर्सजक द्रव्य, विद्रव्य पदार्थ, संजीवक बाईलक्षार, यूरिया, संरक्षक प्रोटीन और अन्य असंख्य घटक द्रव्य होते है। ये द्रव्य पर्यावरण संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। रूस के वैज्ञानिकों ने अनुसंधान किया कि गाय के घी से हवन करने से, धुंए के प्रभाव क्षेत्र कीटाणु और बैक्टीरिया से मुक्त हो जाता है। घी और चावल रूपी मिश्रित हवन से प्रदूषण जनित रोगों में तनावों से मुक्ती वातावरण शुद्ध िव पुष्टि देने लगता है। यज्ञ प्रभाव क्षेत्र के मनुष्य, पशु, पक्षी तथा वनस्पति की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। हवन से निकलने वाली महत्वपूर्ण गैसों में इथीलीन, आक्साईड, प्रोपलीन आक्साईड, पफार्मल्डीहाईड गैसों का निर्माण होता है। इथीलीन आक्साईड गैस जीवाणु रोधक होने पर आजकल आपरेशन थियेटर से लेकर जीवन रक्षक औषधियों के निर्माण में प्रयोग मे लायी जा रही है। वही प्रोपलीन आक्साइड गैस का प्रयोग कृत्रिम वर्षा कराने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है। केवल गो माता के गोबर को सूखाकर जलाने से मेन्थोल, पिफनोल, अमोनिया, एंव पफार्मेलिन का उत्सर्जन होता है। इन सभी रसायनों की जीवाणु क्षमता से आप चिर परिचित जरूर होगें आजकल अस्पतालों, प्रयोगशालाओं मे इन्ही का प्रयोग किया जा रहा है। इन्ही परम्पराओं में हमें ऋषि-मुनियों ने चलना सिखाया था जिससे हम प्रकृति परख सन्तुलन बनाये रखते चलते थे। तभी गाय हमारी माता है। ओजोन छेदों को भरने की क्षमता हवन में होती है।

हमारे वेदों में वर्णन किया गया है। गोमये वसते लक्ष्मी। भारतीय गाय के गोबर में अनंत कोटी कें जीवाणु होते है। गाय के गोबर में जीवाणु कहां से आते है। वे आते है गाय की आंत से। इस धरातल पर स्थित समस्त सजीव सृष्टि को जीवन देने का और जिंदा रखने का सामर्थ्य गाय के आंत और भूमाता के ऊपरी सतह के 4.5 इंच मिट्टी के स्तर में होता है। हमारे भारतीय गाय की आंत और भूमि के सतह की 4.5 इंच मिट्टी कृषि संस्कृति का मूलाधार और कल्पवृक्ष है। घर की माता को भोजन धरती माता देती है। और धरती माता को भोजन गो माता देती है। भारतीय खेती का मुख्य आधार पशुधन है। हजारों सालों से 1960 तक हमारे भारतीय खेती की उर्वरता बची रही । हरित क्रान्ति के नाम 1985 तक रासायनिक खेती से पैदावार बढ़ने की बात करने वाले लोग आज किस परिणाम पर पहुंचे है। हजारों सालों की जमा उर्वरता शक्ति का दोहन रासायनिक खेती से कराकर धरती को बांझ व पथरीली तो बनाया ही है। पर्यावरण पर बुरे प्रभाव से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी घटी है। साथ ही शरीर जघन्य बिमारियो की चपेट में आया है। जिस खेत की बैल से 4.5 इंच जुताई के लिए अधिाकतम 5 हार्स पावर की आवश्कता की पूर्ति हो जाती है। उसी धरती की जुताई के लिए 40 से 75 हार्स पावर के ट्रैक्टर का इस्तेमाल किया जा रहा है। आज देश में कुल 85 लाख टै्रक्टर हैं। हरित क्रान्ति के समय ये टै्रैक्टर 63 हजार थे, 85 लाख ट्रैक्टरो की कीमत 1445 खरब तक आकी जा रही है। साथ ही आयात, डीजल खर्च पर घ्यान दे तो इसका व्यय भी 9 खरब से उपर बताया जा रहा है। जिस ट्रैक्टर के 25 डिग्री सेल्सियस तापमान की गर्मी पैदा होने से सूक्ष्म पोषण जीवाणु ट्रैक्टर से दबकर तो अधिाक गर्मी से मर जाते है। उसी को आधार पश्चिम देश मानते है। भारत की सरकार रासायनिक खाद पर जो सब्सिडी दे रही है जो कि 1 लाख करोड़ है। रासायनिक खाद की पूरे भारत मेें खपत खरबों में है। फिर भी सरकार खाद उपलपब्धा कराने में सपफल नही हो पा रही है। क्योंकि भूमि की मांग बढ़ती जा रही है। और इसकी उपलब्धता घटता जा रही। पृथ्वी के गर्भ में कुछ भी एक सीमित मात्रा में है। प्रकृति से प्राप्त नाइट्रोजन, पफास्पफोरस, पाटैशियम जो रासायनिक खनिजों से अत्यधिाक गुणवान होते है। उस पर किसी का धयान नहीं है। हमारे देश के 40 करोड़ पशुधन से ही, 83 लाख 92 हजार 500 एकड़ भूमि को गोबर और मूत्र से उर्वरा बना सकते है। भारत मे हर दिन 92 करोड़ 59 लाख लीटर मूत्र और 185 करोड़ 18 लाख किलो गोबर के लाभ से हम वंचित हो रहे है। 60 करोड़ टन ताजा गखाद की कीमत आकेगे तो 1खरब 90 अरब करोड़ रुपए होती हैं। जिसमें 92 करोड़ 59 लाख लीटर मूत्र से प्राप्त खनिजों की तो हम बात ही नही कर रहे है। जिसमें नाइट्रोजन, पाटैशियम, अमोनिया, पफास्पफोरस, आयरन, सोडियम, सल्पफर, कापर, ताबा, कैल्शियम जैसे कुल 56 तत्व पाये जाते है। गौ आधारित प्राकृतिक खेती कर रहे किसानों के परीक्षण से पता चला कि एक भारतीय देशी गाय के गोबर और मूत्र से 30 एकड़ की जीटो बजट की खेती सपफलता पूर्वक हो रही है। और भारत में तेजी से पफैल रही है। उसकी विशेषता यह है। कि कुछ भी बाहर से नहीं खरीदना पडेग़ा तो बचत का आकलन आप स्वयम् कर लें। प्राकृतिक खेती के सपफल विभिन्न तरीको से प्रकृति को सन्तुलित रखते हुए। भूमि की उर्वरता बढ़ाने के साथ उत्पादन रासायनिक खाद से कई गुना अधिाक हो रहा है। पफसलों की सिचाई करने के लिए जिस उर्जा की आवश्यकता पड़ती है। उसकी पूर्ति बैलों के द्वारा चालित पम्पिंग सेट और जनरेटर से सपफलतापूर्वक हो रही है। जिससे रासायनिक खाद और प्रकृति को असंतुलित कर रही उर्जा से मुक्ति मिल जायेगी विश्व विख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने स्वर्गीय अमरनाथ झा के हाथों भारत के लिए संदेश भेजा था, जिसमें उन्होने कहा था कि भारत ट्रैक्टरों, उर्वरकों के कीटाणुनाशक यंत्रीकृत खेती पद्धति न अपनाए। क्योकि 400 सौ साल की खेती में अमेरिकी खेती की उर्वरता कापफी हद तक समाप्त हो चली है। जबकि भारत की भूमि का उपजाउ पन कायम है जहां 10 हजार वर्षो तक प्राकृतिक खेती होती रही है। आज के परिदृष्य को घ्यान में रखे तो घ्यान आता मंहगी खेती से देश में अब तक 2 लाख 35 हजार किसानों ने आत्म हत्या की है। ये पश्चिमी यंत्रीकृत प्रकृति विरोधी कृषि पद्धति का ही परिणाम है। देश में 11करोड़ 55 लाख 80 हजार किसानों में 7 करोड़ 11लाख 19 हजार किसान 1एकड़ के है। 2 करोड़ 16 लाख 43 हजार 5 एकड़ के है। 1 करोड़ 42 लाख 61 हजार 10 एकड़ के है। तेजी से टूटते परिवारों की वजह से आज गांव की संख्या 7 लाख के करीब पहुंच चुकी हैं। गांवो को मंहगाई से बचाने के साथ समद्धि के लिए गो आधारित प्राकृतिक खेती ही अपनाना भविष्य के लिए ठीक होगा । बाराह संहिता के हरीखाद, अग्निहोत्र, सींग की खाद, अमृतपानी खाद, खरपतवारों से खाद, पशुशव की खाद, मनुष्य मलमूत्र की खाद, एवम छाछ का छिड़काव का चलन बढ़ा है।

प्राचीन काल से ही हमारे लिए स्वच्छ उर्जा का स्रोत तो पशुधन ही रहा है। आज भी देश उर्जा की पूर्ति 66 प्रतिशत पशुधन उर्जा से ही प्राप्त हो रहा है कोयला और पैट्रोल से 14 प्रतिशत ऊर्जा, गैसों से 20 प्रतिशत ऊर्जा प्राप्त हो रही है। आज बिजली बनाना ही उर्जा उत्पादन का पर्याय हो गया है। देश के समस्त विघुत उर्जा उत्पादन को धयान से देखने पर पता चलता है। कि थर्मलपावर से 64.5 प्रतिशत जलविघुत से 24.6 प्रतिशत परमाणु उर्जा से 2.9 प्रतिशत तथा पवन उर्जा से 1 प्रतिशत बिजली मिल रही है। जबकि वितरण में 23 प्रतिशत बिजली बर्बाद हो रही है। जिसकी कीमत 8000 करोड़ में है। कोयले से 27.4 प्रतिशत, कच्चे तेल से 33.5 प्रतिशत, प्राकृतिक गैस से 22.8 प्रतिशत, जल विधुत से 6.3 प्रतिशत, परमाणु उर्जा से 5.9 प्रतिशत, भूगर्मीय उष्मा से 2.5 प्रतिशत, पाइपलाइन गैस आपूर्ति में 1.6 प्रतिशत, कार्बन गैसों का उत्सर्जन हो रहा है। कोयला और कच्चे तेल से ही सबसे ज्यादा कार्बन गैसे निकाली जा रही है। जलविघुत परियोजनाये देश के भूकम्पीय जोन में होने के कारण कभी भी विनाशलीला मचा सकती है। इस जोने में 1911 मे 8.5 रिक्टर स्केल वाला भूकम्प आ चुका है। जबकि टिहरी जैसा बॉध 7.2 स्केल तक ही सुरक्षित है। इस बॉध के टूटने से 40 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। जबकि बड़े बांधो को अंतर राष्ट्रीय स्तर पर 15 मीटर उंचाई तक की ही अनुमति है। भोपाल गैस कांड से आप भली भांति परिचित होगें । परमाणु उर्जा की भी यही स्थिति है। विश्व के 417 रिएक्टरों से 297927 मेगावाट उत्पादन हो रहा है। जो कि पूरे विश्व में ऊर्जा का 16 प्रतिशत है। 400 करोड़ टन कार्बनडाई आक्साईड का उत्सर्जन हो रहा है। अब तक 300 भंयकर दुर्घटनाये घट चुकी जिससे 6 लाख लोगों पर रेडियोएक्टिव किरणों के प्रभाव से स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा है। पुरी दुनिया में 124 रिएक्टर बंद कर दिये गए उसके बावजूद भारत परमाणु करार के लिए हाय तोबा मचा चुका है। बचा कुचा स्वाभिमान बेचकर अमेरिकी खेमे में दुम हिला रहा है। इसका कारण अमेरिकी 100 बिलियन डालर के रिजेक्टेड रिएक्टर के साजो सामान खपाने के लिए जी.ई. एनर्जी, थोरियम पावर, वी. एस. एक्स टेक्नोलाजी, कन्वर डायन जैसी 250 दिग्गज कम्पनियों का लक्ष्मी रूपी पफेंका चारा है। द फ्रयुचर आपफ द ट्रबल्ड वर्ल्ड के डायरेक्टर आर्म स्ट्रांग के आकंलन के अनुसार भारत को पैट्रोल 7 गुना, गैस 8 गुना कोयला 9 गुना, लोहा 75 गुना, तांबा 100 गुना, टिन 200 गुना, विघुत खर्च 1000 किलोवाट प्रति व्यक्ति होने के कगार पर प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में इतना बिजली उर्जा की आवश्यकता पड़ेगी। जबकि प्रकृति के गर्भ में द्रव्य सीमित मात्रा में होने के कारण युरेनियम 85 साल में, कोयला 70 साल, तेल 58 सालों में, गैस 52 सालों में, दो तिहाई खत्म हो जायेगें। ऊर्जा उत्पादन स्रोतों के खर्च का ब्यौरा देखने पर पता चलता है कि 1 मेगावाट विद्युत उत्पादन में कोयले से 14 करोड़, नाभिकीय से 21करोड़, कचरे से 10-11 करोड़ ;साथ ही 200 टन खाद मुफ्त में ध्द बायोमास से ढाई से 3 करोड़ ; साथ ही 20 लाख रुपये की खाद मुफ्रत मेंध्द की लागत आती है। देश कि घरेलू ईधन की आपूर्ति तो अब बायों गैस से ही सम्भव है। आईआईटी दिल्ली ने कानपुर गोशाला और जयपुर गोशाला अनुसंधान केन्द्रों के द्वारा 1 किलो सी .एन.जी. से 25 से 40 किलोमीटर एवरेज दे रही तीन गाड़ियां चलाई जा रही है। और घरेलू गैस सिलेन्डर भरना प्रारम्भ कर दिया गया है। घरेलू गैस के व्यापार पर आर्थिक नजर डाले तो लगभग 70 हजार करोड़ है। जबकि देश के 40 करोड़ वाहन मिलाकर 10 लाख टन प्रतिवर्ष कच्चा तेल खा जाते है। साथ ही 50 करोड़ टन कार्बनडाई आक्साईड उत्सर्जित करते है। मात्र 10 करोड़ टन गोबर से 8 से 10 करोड़ परिवार के ईधन की पूर्ति हो सकती है। जिस देश में 30 प्रतिशत गोबर जलाया जाता है। ब्रिटेन में प्रतिवर्ष 16 लाख टन बिजली का उत्पादन एक गोबर गैस प्लान्ट से हो रहा है। बैतूल में गोबर गैस से कम्पयूटर चलाया जा रहा है। बायोगैस से हेलीकाप्टर उड़ाने की सपफलता के करीब हम हैं। चीन में डेढ़ करोड़ परिवारों को घरेलू गैस की आपूर्ति गोबर गैस प्लान्ट से चलाई जा रही है। गोवंश के गोबर गैस प्लान्ट से ही 6 करोड़ 80 लाख टन लकड़ी बच सकती और 3 करोड़ 40 लाख पौधो बच सकते है। जिससे 3 करोड़ 40 टन कार्बनडाई आक्साईड का खात्मा भी होता रहेगा। साथ ही 3.5 करोड़ टन कोयला की बचत होगी। जापान के वैज्ञानिको ने दो महत्वपूर्ण बैक्टीरिया की प्रजातियों का पता लगाने का दावा किया है। जो एक बायो रिएक्टर में हाइड्रोजन का निर्माण कर सकेंगे। इस खोज को गुप्त रखा गया है। हाइड्रोजन से पेट्रोल की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा ऊर्जा प्राप्त होती है। देश में बैल, ऊंट, घोड़े, भैसों की बढ़ी संख्या है। जिसमें तीन करोड़ 21लाख बैल बचे है। एक बैल के रेहट से साढ़े तीन घंटे लगातार घूमाने पर 24 बोल्ट बैटरी चार्ज हो जाती है। साथ ही जनरेटर के माघ्यम से चारा काटने वाली मशीन, पंखे, छोटी राइस मील, छोटा थ्रेशर, पम्पिंग सेट, तीन हार्स पावर की मोटर आसानी से सपफलता पूर्वक चलाई जा रही है। एक किसान परिवार की सभी विद्युत जरूरतों की पूर्ति लायक क्षमता विकसित होती जा रही है। जुताई, ढुलाई निराई, पेराई, कोटाई मे बैल की उर्जा का उपयोग तो हो ही रहा है। उर्जा मंत्रालय द्वारा प्रतिवर्ष 60000 मेगावाट बिजली जरूरतों को घ्यान में भी रखे तो गाय से हमें 30000 मेगावाट प्रति वर्ष उर्जा प्राप्त हो सकती है वही बैलों की ऊर्जा शक्ति पर शोध् हो तो लगभग 1 लाख 50 हजार मेगावाट बिजली का प्रतिवर्ष उत्पादन किया जा सकता है। जिसमे बैलों द्वारा पवन चक्की चलाने का शोध भी शामिल है। इस प्रकिया कि खास बात यह है कि बायोगैस प्लान्ट में गोबर के उपयोग के बाद भी हमें गोबर की खाद की मात्रा अच्छी और अधिक रूप मे प्राप्त होगी। जो करोड़ो रुपए में होगी। एक गाय रात दिन में 12 सौ वाट ऊर्जा शरीर से उत्सर्जित करती है। जब की बैल आधे से तिहाई हार्स पावर अश्वशक्ति प्रदान करते है। जनसंख्या की बढ़ती मांग को धयान में रखकर हमें प्रकृति को खत्म करने वाले तरीकों को छोड़ना होगा और स्वच्छ ऊर्जा की श्रृखंला की ओर बढ़ना होगा। जिससे समृद्वि और प्रकृति पोषक ऊर्जा विकास की सुन्दर रचना हो सकें और हम विनाश से बच सके।

जितनी सब्सिडी सरकार पवन उर्जा, सौर उर्जा, जल विघुत उर्जा पर दे रही और कई गुना पैसा परमाणु उर्जा पर खर्च कर रही उसका 25 प्रतिशत पशुधन उर्जा पर लगा दे तो जल्द ही तस्वीर कुछ और ही होगी और हम स्वच्छ प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों से निरंतर ऊर्जा प्राप्त करते रहेंगे।

पूरे विश्व के 33 प्रतिशत उद्योग पर हमारा आध्पित्य था। पिछले दो सालों में यह 5 प्रतिशत रहा और आज 3.5 प्रतिशत पर हम आ गए हैं। प्राचीन स्वावलंबी भारत की कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, उर्जा, साहित्य, संगीत, अघ्यात्म, लघु उघोग, संस्कृति के उत्कृष्ठ नीति नियामक मापदंड का तो कोई जबाव नहीं था। जिसके कण-कण में प्रकृति परख विकास की ही परिकल्पना से हम उत्कृष्ट शिखर पर थे। पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर धयान दें तो सेक्स उघोग पहले स्थान पर है। अफीम, चरस, हथियार उद्योग दूसरे स्थान पर, दवा उद्योग तीसरे स्थान पर है, विज्ञान प्रौद्योगिकी चौथे स्थान तथा कृषि पाचवें स्थान पर है। जबकि आज भी अगर हम स्वदेशी उद्योग पद्धति को समाहित करे तो परिणाम कापफी आश्चर्यजनक प्राप्त किये जा सकते है। हमारे देश में पशुधन खाद्य की वस्तु ही नहीं उघोग की वस्तु पैदा करने की पफैक्ट्री बनते जा रहे है। सामाजिक परिवर्तन में लगे लोगों के द्वारा गोवंश जैविक कृषि उत्पादन, ऊर्जा पैदा करने और बचाने के उपकरण, पर्यावरण रक्षा, प्राकृतिक कृषि, सुरक्षा जैसे क्षेत्रों के विकास में अतूलनीय योगदान निभा जा रहे है। देश के नंदियों से ही 3 घंटे चक्कर काटने से 12 से 24 बोल्ट की बैटरी चार्ज होने से घरेलू उर्जा की बचत और आपूर्ति में 4 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष से अधिाक का पफायदा हो सकता है। बिजली की किल्लत से हमेशा की छुट्टी हो सकती है। नंदीचालित उपकरणों में, धानी चक्की, आटा चक्की, दुलाई ड्राली, जुताई हल, दवा छिड़काव मशीने, सिंचाई पम्ंपिग सेट के विकास से ही इसके बाजार पर कब्जा करने में ही 50000 हजार करोड़ प्रतिवर्ष लाभ हमारे देश को प्राप्त हो सकता है। जो बाहरी कम्पंनिया उठा रही है। यही नही इसके पफैलाव से अनकूट धन की वर्षा हो सकती है। अकेले कृषि ट्रैक्टरों के बाजार और कृषि तेल की खपत पर घ्यान दे तो 84 लाख ट्रैक्टरों की 1445 खरब रुपये कीमत का पफायदा साथ ही साथ प्रतिदिन लगभग 12000 हजार करोड़ के डीजल की बचत होगी।

जिसके पर्यावरण असंतुलन फैलाने के योगदान का आकलन और आयात लाभ का आकंलन तो किया ही नही जा रहा है। जिसकी अपार सम्भावनायें है। द्वितीय विश्व युद्ध के बचे बारुद की रासायनिक खाद बनाकर कृषि उपज की हरित क्रान्ति के नाम जो जहर बोया गया है। उस की खपत और बाजार पर घ्यान दे तो 2007 में ही 39773.78 मिट्रिक टन कीटानाशकों का प्रयोग किया गया जिसकी कीमत भारतीय बाजार में 7 हजार करोड़ आकी गयी है। जिसमें 75 प्रतिशत विदेशी कंम्पनियो की हिस्सेदारी है। जबकि 35 हजार गाय बैलो से ही 160000 टन वर्मीकम्पोस्ट 70000 लीटर बायो पोस्टिसाइड का निर्माण किया जा सकता है यही नही देश के गाय बैलो के गोबर और मूत्र से ही विश्व के रासायनिक खाद बाजार पर और रासायनिक पेस्टिसाइड बाजार पर कब्जा कर लाखों मिलियन कमा सकते हैं। भारत सरकार रासायनिक खादों पर दे रही सब्सिडी से मुक्त हो सकती है। प्राकृतिक तरीको से की गयी खेती के उत्पाद भी खासे महंगे मूल्य पर बिकने से लाभ ज्यादा कमा सकते है। देश के गोवंश से प्राप्त गोबर के आर्थिक लाभ की नीति बनाये तो धन लक्ष्मी की इतनी वर्षा होगी की कल्पना नही कर सकते है। 10 करोड़ टन गोबर को उद्योग दृष्टि से इस्तेमाल करे तो 8से 70 करोड़ परिवारो के घरेलू रसोई गैस की पूर्ति हो सकती है। सिपर्फ रियलांइस के इस क्षेत्र के लाभ का आर्थिक आकंलन ही कागजों पर 40 हजार करोड़ है। जबकि इससे उसको कहीं ज्यादा पफायदा प्राप्त हो रहा हैं। 10 करोड़ टन गोबर प्राकृतिक खाद बनाये तो 60 करोड़ हेक्टेयर के लिए 300 करोड़ टन खाद और 7.5 करोड़ लोगों को रोजगार राष्ट्रीय आय 45 हजार करोड़ होगी। 10 करोड़ टन गोबर अगर हम बायो सी. एन. जी. बनाने में उपयोग मे लेते है। तो पूरे विश्व में तेल की बचत के साथ-साथ प्रत्येक गाड़ी की औसत एवरेज 25 से 40 किलोमीटर 1 किलो सी.एन.जी. से हो जायेगी। वर्तमान समय मे बायोगैस से चलने वाली कारों में तेजी से विकास हुआ है। जिसका नजारा दिल्ली के कार मेले देखने को प्राप्त हुआ। हम सोचते है और विदेशी भविष्य के बाजार को धयान में रखकर उपकरण उतार देते है। अब आप जरा सोचिए कि अगर ये उपकरण हम बनाएगे तो बचत कितनी होगी। विदेशी वैज्ञानिक गोबर से पेट्रोल बनाने में तेजी से प्रयासरत हैं। गोबर गैस प्लान्ट से देश में बायो जनरेटर सपफलतापूर्वक चलाये जा रहे है। जिसका उपयोग विघुत उपकरणों को चलाने मे हो रहा है। इस विधि से लाखों मेगावाट बिजली बनायी जा सकती है। जिसका आर्थिक लाभ खरबों मे होगा। मराठा चेम्बर आफ कामर्स इण्ड्रस्टीज पुणे द्वारा )तुराज प्लास्टर सीधो-सीधो जो गर्मी ठंडी रोधक सीमेन्ट के नाम से महशूर हो चला है। इसके कई पफायदे भी है। 15 करोड़ टन गोबर से 15 करोड़ वार्षिक उत्पादन से 3 करोड़ लोगों रोजगार और राष्ट्रीय आय 90 हजार करोड़ की होगी। साथ-साथ रेडिएशन के दुष्प्रभाव गर्मी सर्दी के प्रकोप से मूक्ति भी मिल जायेगी।

आज पूरा देश बिमार है। ऐसा कोई परिवार नहीं होगा जहां एक या दो लोग बिमारी हालत में ना हो अगर कहीं नही भी है तो कब होगे भरोसा नहीं है। भोजन हवा में जहर इस कदर घुल गया है। कि आदमी का जीवित रहना अब मुश्किल है। इसका सबसे बड़ा कारण हमारा प्रकृति विरोधी जीवन शैली ही है। केन्सर, ब्लडप्रेशर, अर्थराइटिस, सवाईकल हड्डी संबधिात रोग होना अब आम बात हो गयी है। इनकी संख्या करोड़ो में है। डब्लू एच. ओ. के अनुसार। एक लाख 70 हजार महिलाओं की मृत्यु गर्भावस्था के समय आयरन की कमी से एक लाख 17 हजार बच्चों की अकाल मृत्यु कैल्सियम की कमी से हो जाती है। शरीर के आवश्यक तत्वो की कमी से मरने वालो की तादात भी कम नहीं है। मलेरिया, टी. बी., केन्सर, हैजा में दवाये अब प्रभाव शून्य हो रही है। शरीर में और ज्यादा एन्टी बायोटिक्स को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रही । विश्व व्यापार संगठन की जो ट्रेडमार्क नीति है वैसे में किसी दवा को भी नकली घोषित किया जा सकता है। जेनेरिक दवाओं को तो खत्म करने का इरादा है। एसे में सस्ती दवा का ख्वाब कैसे पूरा हो सकता है। मेडिकल जर्नल मिक्स के अनूसार भारत में लगभग 93 हजार करोड़ का कारोबार अकेले अग्रेजी दवा कम्पनियां चला रही है। एक अनुमान के अनुसार 2 लाख पच्चास हजार करोड़ का सिपर्फ अग्रेजी दवा उद्योग है। जिसमें 8 हजार करोड़ नकली दवा की खपत तो दिल्ली में और 5000 करोड़ नकली दवा की खपत राजस्थान में है। अभी 28 बढ़े राज्यों में इसकी क्या स्थिति होगी तो आपको अन्दाजा लगेगा कि लगभग एक लाख करोड़ रुपये का नकली दवाओं का उद्योग हो गया है। ऐसे में जान माल की रक्षा कैसे सम्भव है। भारत सरकार ने अगर प्राकृतिक वैदिक वैद्य परम्परा पर शोध किया होता तो स्वस्थ भारत के साथ स्वस्थ विश्व की कल्पना कोई बड़ी बात नहीं है। और पूरे दवा उद्योग पर आपका अधिापत्य होता जो आज नहीं है। ऐसा कोई रोग नहीं जिस रोग में पंचगव्य से चिकित्सा नहीं की जा सकती और वो भी जो पदार्थ सर्वसुलभ उपस्थिति हो उसका क्यों नहीं प्रयोग हो। हालाकि पूरे देश में अब पुन: प्राकृतिक परम्परागत चिकित्सा पद्धति बढ़ रही है। यह एक सुखद संकेत है। बस आवश्यकता है देश में बड़े-बड़े शोध संस्थानों के स्थापना की। गोवंश को स्वास्थ्य पर्यावरण, उद्योग, कृषि, उर्जा इत्यादि क्षेत्रो में व्यापक उपयोग कर हम पुन: विश्व समृद्धि की सर्वोच्च शिखर पर पहुच सकते है। क्योंकि इन तरीको में अपार बचत की सम्भावनाये होती है। आज पुन: आवश्यकता है कि पथ विमुख हुए विश्व को सही राह दिखा कर हम भारत के प्राचीन प्रभुत्व को स्थापित करें। यह तभी संभव है जब हमारी सोच प्रकृति विरोध न होकर प्रकृति पोषक होगी और जल, जंगल, जमीन, जन, जानवर के प्रति हमारी श्रद्धा होगी।

18 COMMENTS

  1. कृपया निम्नलिखित बिन्दुओं पर और जानकारी दे |
    १:बैतूल में गोबर गैस से कम्पयूटर चलाया जा रहा है।
    २:मराठा चेम्बर आफ कामर्स इण्ड्रस्टीज पुणे द्वारा )तुराज प्लास्टर सीधो-सीधो जो गर्मी ठंडी रोधक सीमेन्ट के नाम से महशूर हो चला है। इसके कई पफायदे भी है। 15 करोड़ टन गोबर से 15 करोड़ वार्षिक उत्पादन से 3 करोड़ लोगों रोजगार और राष्ट्रीय आय 90 हजार करोड़ की होगी। साथ-साथ रेडिएशन के दुष्प्रभाव गर्मी सर्दी के प्रकोप से मूक्ति भी मिल जायेगी।

  2. बहुत सुन्दर लेख है आपका इससे काफी प्रेरणा मिलेगी लोगो को- यह देश का दुर्भाग्य है की गो माता सड़क पर है गाय ही सृष्टि को बचायेगी

  3. harpal jee gau raksha ke upar parisram se likha gaya lekh sarahaniy hai gay ko sampraday se jorhane ke bajay sankriti aur samriddhee se jorh kar aapne samaj ko ek aaena dikhaya hai lekin gau ko khatara unhi logo se hai jo gau mata ki raksha ki vakalat karte hai kya aap bhi esi dayre me hai ese spasht kare eske liye maphee chahuga

  4. harpal ji namaskar kafi dino ke bad aap se baat ho rahi hai
    aapkonjankar khushi hogi ki maine aap logo ke ashirwad se 14-15
    panchgavya prodcts ka nirman kar liya hai jinmai 3 type ki phynel- ak
    neem gomutra 2 adhi neem or gomutra 3 simple gomutra 4neem khad 5
    vermicomposed 6 keet niytrak neem adharit 7 panchgavya murtiya 8
    soap 9 doopbatti 10 malish tel 11 havan samagri 12 facepack 13
    poojan lap 14 sevesidh tilak 15 sab se bari baat gobar gomutra
    se distemper ka kam 80% safal ho chuka hai sath hi sath hamari
    prerna se ab delhi may 100 – 125 go grass rath bi chal raha hai ab
    hum delhi mai free gomutra aur eye – nose ki dava ka bi vitran kar
    rahi hai aap ki partisha mai lovekesh gaur prant mahamantri
    goraksha ayam vhp ph no 9136358469

  5. उपयोगी और सारगर्भित लेख. लेखक को साधुवाद.
    न जाने गोहत्या से किसको फ़ायदा है, जो हमारी सेकुलर बिरादरी और राजनीति हमेशा उसकी पैरवी करती है?
    गाय केवल एक पशु नहीं बल्कि हमारी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की धुरी रही है. प्रकृति और पर्यावरण से ताल-मेल रखने में और उसके संरक्षण में ही विश्व का कल्याण है. ऐसे में गोसेवा और संवर्धन समय की मांग है.

  6. मने आपका लेख देखा अच्चा लगा आप मुजे अपना फ़ोन नंबर दे मेरा से आप का फ़ोन मिल नहीं रहा है . मुजे आप से चर्चा करने है आप की हिंदी की यह वयवस्था अची lagi

  7. singh sahab mai koe pracharak nahi hu mai aam nagrik hone ke nate jab mai bhojan banata hu to pahali roti sarhak par ghumane wali gau mata ko hi khilata hu agar kisi ki tabet kharab hoti hai to gau ark se bani dava lene ki salah deta hu aur pahucha bhi deta hu kae prayogo se pratyaksh jurha hu bhashrh nahi deta kyoki mujhe pata hai ki jeero bajat ki kheti jeero bajat chikitsa aur kam pujee ka udyog barhega to gau mata apne aap sarhak se hat jayegi samasya ka samadhan hal dene se hai naki aarop se kabhi miliye sab samajh me aajayega

  8. मैंने आपका लेख नहीं नहीं पढ़ा और न मैं पढना चाहता हूँ क्योंकी मुझे पता है की आपने गायों की महिमा का वखान किया होगा और उसमे प्राचीन काल से आज तक का उदाहरण पेश किया होगा.और भी बहुत सी बातें लिखी होंगी जिससे यह सिद्ध होता की गायों की महत्ता संदेह के दायरे से परे है.मैं भी इसको मानता हूँ.फिर भी मैंने आपका लेख नहीं पढ़ा,क्योंकि मैं गायों की वर्त्तमान दुर्दशा का सबसे ज्यादा दोषी उन्ही को मानता हूँ जो गायों को माता का दर्जा देते हैं.मेरी बात पर विश्वास न हो तो अपने आस पास नजर दौड़ाइए आपको समझ में आ जाएगा की मैं क्या कहना चाहता हूँ?

  9. हरपाल जी बधाई स्वीकार करें. अति सुन्दर,अति महत्वपूर्ण लेख है. इसे अधिकतम प्रचार मिलना चाहिए.

  10. श्री हरपाल जी ने बहुत ही बढ़िया लेख लिखा है. आपने बहुत अच्छे आकडे दिए है. हम सभी का नैतिक कर्त्तव्य है की इस लेख तो कम से कम कुछ लोगो तक तो पहुंचा ही सकते है. एक बार फिर से हरपाल सिंह जी को बहतु बहुत धन्यवाद.

  11. बहुत मेहनत के साथ लिखा गया प्रेरकलेख. लोग बात को समझे तो सही. हो सकता है, की लेख पढ़ कर कुछ हिंसक लोग छाती पर सवार हो जायेंगे. कोई कहेगा मै गौ मांस बड़े चाव से खाता हूँ..कोई कहेगा. गाय कटनी चाहिए. आदि-आदि. मुझे खुशी इस बात की है, की अभी भी लाखो-करोडो लोग गाय को मानते है. गाय माँ से कमनही.

  12. बंधुवर,सुंदर लेख के लिए बधाई स्वीकार करें।

  13. बहुत दिनों बाद एक लेख एसा मिला जो देश की संस्कृति के लिए उपयोगी हो सकता है|

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