तमिल प्रदेश में हिन्दी-विरोध का मूल, ‘एनईपी’ नहीं, रिलीजियस उसूल

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                                       मनोज ज्वाला

     खबर है कि देश के तमिल प्रदेश में भारत की राष्ट्रभाषा- हिन्दी का विरोध फिर उफान पर है । विरोधी उपद्रवियों ने भारतीय रेलवे के कई स्टेशनों के हिन्दी नामों को कालिख पोत-पोत कर मिटा दिया है । इस बार यह विरोध केन्द्र सरकार की नई शिक्षा-नीति को मोहरा बना कर किया जा रहा है । इस विरोध का राग तो वही है, किन्तु रंग बदला हुआ है । बताया जा रहा है कि केन्द्र सरकार  नई शिक्षा नीति के माध्यम से  तमिल प्रदेश पर हिन्दी थोपने का काम कर रही है । इसी आधार पर नई शिक्षा-नीति (एनईपी) का भी विरोध किया जा रहा है । जबकि, सच यह है कि नई शिक्षा-नीति में ऐसा कुछ भी नहीं है ।
    बावजूद इसके, देश के तमिल प्रदेश (तमिलनाडू)  में
द्रमुक-अन्नाद्रमुक व एआईएमआईएम० आदि राजनीतिक दलों के एमके स्टालिन व असद्दुदिन ओवैसी जैसे राजनीतिबाजों और उनके उतर-भारतीय सिपहसालारों द्वारा हिन्दी  अनुचित विरोध किया जा रहा है । यह विरोध निहायत राजनीतिक है और इसका संचालन-सूत्र हिन्दूत्व-विरोधी अभारतीय विदेशी रिलीजियस विस्तारवादी शक्तियों के हाथों में है, जिसकी विरोधी   पडताल आवश्यक है ।
        मालूम हो कि दक्षिण भारत में हिन्दी का पहले भी जो विरोध होता रहा है, सो केवल राजनीतिक वितण्डा मात्र नहीं रहा है, बल्कि विभाजनकारी पश्चिमी रिलीजियस- मजहबी योजनाओं के क्रियान्वयन का एक उपक्रम भी रहा है और भारत के विखण्डन पर आमदा ईसाई-इस्लामी विस्तारवादी शक्तियों-समूहों के द्वारा एक षड्यंत्र के तहत
समय-समय पर प्रायोजित किया जाता रहा है । इस हिन्दी-विरोध का मूल कारण- भारत के दक्षिण में दुनिया के ‘पश्चिम’  का वह षड्यंत्रकारी उसूल कायम हो जाना है, जो अंग्रेजों की औपनिवेशिक सत्ता के सहारे चर्च मिशनरियों के सिपहसालार बुद्धिबाजों द्वारा गढी गई है । जी हां ! पश्चिम की, अर्थात युरोपियन-अमेरिकन ईसाई-विस्तारवादी शक्तियां भारत राष्ट्र के विखण्डन हेतु पिछले १००-१५० वर्षों से एक षड्यंत्र के तहत अनेकानेक विखण्डनकारी योजनाओं को भाषा, साहित्य व शिक्षा विषयक विविध हथकण्डों के माध्यम से अंजाम देने
में लगी हुई हैं । इस बावत उन रिलीजियस-मजहबी शक्तियों से सम्बद्ध बुद्धिबाजों ने अत्यन्त चतुराई से अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान व इतिहास-अनुसंधान सम्बन्धी बे-सिर-पैर के विधान रचते हुए तरह-तरह  की संगतियां-विसंगतियां उठा-बैठा कर दक्षिण भारत की दो प्रमुख भाषाओं- ‘तमिल’ और ‘तेलगू’ को जबरन ही ‘संस्कृत भाषा-परिवार’ से बाहर की ‘हिब्रू’ से मिलती-जुलती भाषा प्रतिपादित कर उसे इस कदर प्रचारित कर दिया है कि अब वहां के शिक्षण-संस्थानों में भी कमो-बेस यही तथ्य स्थापित हो चुका है । जबकि यह निर्विवादित सत्य है कि भारत की समस्त भाषायें संस्कृत से निकली हुई एक ही भाषा-परिवार की  हैं । किन्तु विलियम जोन्स और मैक्समूलर आदि मिशनरी
षड्यंत्रकारी भाषाविदों ने उतर भारतीय लोगों को संस्कृत-भाषी ‘आर्य’ और
दक्षिण भारत के लोगों को उन आर्यों से शोषित-विजित ‘द्रविड’ नाम दे कर एक ही मूल भाषा- संस्कृत एवं एक ही मूल संस्कृति (सनातन-वैदिक) से समरस भारतीय समाज के बीच शोषक-शोषित की जो विभाजक-रेखा खींच रखी है , सो आज भी उनके पश्चिम-परस्त भारतीय राजनेताओं की कृपा से यथावत कायम है ।चर्च-मिशनरियों की मजहबी नीतियों से निर्देशित शैक्षिक संस्थाओं द्वारा इस आधारहीन विभाजक उसूल को अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान और नस्ल-विज्ञान के सहारे इतना हवा दिया जा चुका  है कि यह ‘सफेद झूठ’ ही सच के रूप में
स्थापित हो कर भारत की राष्ट्रभाषा- हिन्दी को नकारने का उत्प्रेरक बना
हुआ है । दक्षिण में ‘पश्चिम’ का यह उसूल स्थापित करने की शुरुआत भारत पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राज-पाट स्थापित हो जाने के बाद उस औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध करने के बावत पश्चिमी विद्वानों द्वारा
‘भाषा-विज्ञान’ व ‘नस्ल-विज्ञान’ नामक हथकण्डा खडा किये जाने  के साथ ही शुरू हो गई थी, किन्तु ‘द्रविड’ नस्ल गढने एवं उसके आधार पर संस्कृत और संस्कृत से निःसृत हिन्दी के विरोध  का षड्यंत्र  सन १८५६ ई० में कैथोलिक चर्च के एक पादरी ने क्रियान्वित किया । रॉबर्ट कॉल्डवेल नामक वह पादरी ऐंग्लिकन चर्च के ‘सोसायटी फॉर द प्रोपेगेशन ऑफ द गास्पल’ से सम्बद्ध मद्रास-स्थित तिरुनेलवेली चर्च का ‘बिशप’ था । इस षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए पहले उसने सन १८८१ ई० में ‘कम्परेटिव ग्रामर ऑफ द ड्रैवेडियन रेश’ नामक एक पुस्तक लिख कर ‘द्रविड’ शब्द के अर्थ का अनर्थ करते हुए यह प्रस्तावित किया कि भारत के मूलवासी द्रविड थे, जिनकी मातृभाषा- तमिल संस्कृत-परिवार से बाहर की भाषा है ।
          अंग्रेजों की विभेदकारी नीति के अनुसार कॉल्डवेल ने भारतीय
लोगों को भाषा और धर्म के आधार पर दो भागों में विभाजित करने तथा
तमिल-भारतीयों को ईसाइयत के ढांचे में बैठाने के उद्देश्य से दक्षिण भारत
के एक स्थान-विशेष के तथाकथित इतिहास की एक पुस्तक लिखी थी- ‘ए पॉलिटिकल एण्ड जेनरल हिस्ट्री ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ तिरुनेलवेली’ जिसे सन- १८८१ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मद्रास प्रेजिडेन्सी ने प्रकाशित कराया था । उस पुस्तक में तिरुनेलवेली के उस कैथोलिक चर्च बीशप ने आसेतु हिमाचल व्याप्त बहुसंख्य बृहतर भारतीय धर्म-समाज में दरार पैदा करने तथा द्रविड नस्ल की सांस्कृतिक व भाषिक पृथकता प्रस्तुत करने और उस द्रविडता को ईसाइयत के नजदीक ले जाने का जो काम किया , उससे अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन और चर्च के विस्तारवादी कार्यक्रम , दोनों को आगे चल कर बहुत लाभ मिला  । ‘एशिया में निवासियों की पहचान’ पर कथित रुप से शोध करने वाले टिमोथी ब्रूक और आन्द्रे स्मिथ के अनुसार “कॉल्डवेल ने व्यवस्थित रूप से द्रविड विचारधारा की बुनियाद रखी और…..उसने दक्षिण भारत की संस्कृत-भाषी आबादी व गैर-संस्कृत-भाषी आबादी के बीच भाषिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व नस्ली विभेद खडा कर असंस्कृत-भाषी तमिलों को ‘द्रविड’ घोषित कर उनके पुनरुद्धार की
परियोजना प्रस्तुत की ।”  इसी कारण बाद में अंग्रेज प्रशासकों ने मद्रास
के मरीना समुद्र-तट पर बीशप काल्ड्वेल की एक प्रतिमा स्थापित कर दी, जो
आज के चेन्नई शहर का एक ऐतिहासिक स्मारक बना हुआ है । इतना ही नहीं, उस षड्यंत्रकारी काल्ड्वेल के ऐसे काले कारनामों को ही अंग्रेज हुक्मरानों द्वारा और बाद में उनके हस्तकों द्वारा दक्षिण भारत का इतिहास बना दिया गया और उसी विकृत इतिहास के आधार पर न केवल वहां के समाज-धर्म-संस्कृति को विकृत करने का एक अभियान सा चल पडा ,  बल्कि हिन्दी को उतर भारतीय भाषा बता कर उसके विरोध का राजनीतिक वितण्डा भी खडा कर दिया गया । कालान्तर बाद उन्हीं सन १९१६ में चर्च-मिशनरियों ने ‘जस्टिस पार्टी’ नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया-कराया , जिसने सन १९४४ में एक पृथक ‘द्रविडस्तान’ देश की मांग कर डाली थी । उसी जस्टिस पार्टी का नया संस्करण है- ‘द्रविड मुनेत्र कड्गम’, है, जिसका हिन्दी अर्थ- ‘द्रविडोत्थान संघ’ है ; जबकि अन्ना द्रविड मुनेत्र कड्गम’ इसी का
प्रतिद्वंदी राजनीतिक दल है ।

      जाहिर है- तमिलनाडू में राष्ट्रभाषा- हिन्दी का विरोध किये जाने के
पीछे इन्हीं पश्चिमी तत्वों का यही विभाजनकारी उसूल सक्रिय रहता है ।
तमिल-तेलंगाना आदि इन दक्षिणी प्रदेशों में यूरोप-अमेरिका की चर्च
मिशनरियों के साथ उनसे सम्बद्ध अनेक एन०जी०ओ० भी भाषिक-अलगाववाद फैलाने के बावत इस कदर सक्रिय हैं कि तमिलनाडू में उपरोक्त जिन दो प्रमुख राजनीतिक दलों- ‘द्रमुक’ और ‘अन्ना द्रमुक’ की सरकार हुआ करती है, वे दोनों भी द्रविडवाद और हिन्दी-विरोध  की ही राजनीति करते हैं । ऐसे में स्पष्ट है कि भाजपाध्यक्ष व केन्द्रीय गृहमंत्री अमितशाह द्वारा हिन्दी
के संवर्द्धन की हिमायत किए जाने का ‘हिन्दुत्व’ से तो कोई लेना-देना कतई
नहीं है, किन्तु हिन्दी के विरोध की यह सियासत चर्च-मिशनरियों के रिलीजियस उसूलों की मजहबी सोच से ग्रसित अवश्य है ।
•       मनोज ज्वाला

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