राजनीति

फिर शिव सेना, मनसे, कांग्रेस और राष्ट्रद्रोहियों में अन्तर ही क्या रह जायेगा…

आज देखा जाये तो महाराष्ट्र में संकीर्ण राजनीति की मैराथान दौड़ प्रतियोगिता चल रही है जिस में प्रमुख प्रतियोगी हैं राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और शिव सेना। कांग्रेस भी उस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहती लगती है। इस दौड़ में कड़वी ज़ुबान भागती है और निर्णायक मानदण्ड है कि किसकी भाषा कितनी अधिक विषैली है और उसमें कितनी अधिक संकीर्णता है।

वस्तुत: देखा जाये तो इस सारी दौड़ में न तो मराठी मानुष है जिसके नाम पर यह सारा नंगा नाच हो रहा है और न ही इससे राष्ट्र का ही कोई हित होने वाला है। यदि कुछ होगा तो केवल देश का, महाराष्ट्र और समूचे भारत का अहित।

जब भी देश पर कभी भी संकट आया है तो उसका मुकाबला किसी प्रदेश या क्षेत्र विशेष ने नहीं किया। सारे भारत ने किया, भारत की समस्त जनता ने किया। जब भी भारत पर विदेशी आक्रमण होता है तो वह कभी समस्त भारत पर नहीं हो सकता क्योंकि भारत एक विशाल देश है। हमला सदैव किसी क्षेत्र विशेष पर ही हुआ है। जब-जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो उसके असर सीमा पर स्थित प्रदेशों पर ही सब से अधिक होता है। युध्द की भयावह स्थिति और बर्बादी उन्हीं प्रदेशों पर होती है जैसे जम्मू-काश्मीर, पंजाब, राजस्थान, गुजरात या फिर बांग्लादेश के साथ सांझी सीमा वाले राज्य जैसे पश्चिमी बंगाल, त्रिपुरा आदि। जब चीन ने आक्रमण किया तो उसका भार ढोया जम्मू-काश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, सिक्किम, अरूणाचल, तथा तिब्बत से सटे अन्य प्रदेश। पर यह लड़ाई मात्र इन प्रदेशों की न होकर समूचे भारत, समूचे राष्ट्र की थी। समूचे राष्ट्र ने एक जुट होकर आक्र्रमणकारी का डट कर मुकाबला किया।

इसी प्रकार जब पिछले वर्ष 26/11 हुआ तो वह हमला केवल मुम्बई या महाराष्ट्र पर न हो कर पूरे भारत पर था और उसका मुकाबला भी पूरे राष्ट्र ने किया। उसमें सारे राष्ट्र का पूरा योगदान था। यह इसलिये हुआ क्योंकि सारा राष्ट्र एक है, भावना एक है, दिल एक है।

जम्मू-काश्मीर पर जब-जब पाकिस्तान ने आक्रमण किया और पिछले बीस वर्ष से अधिक समय से वहां पाकिस्तानी घुसपैठियों, राष्ट्रविराधी तत्वों तथा अलगाववादियों का मुकाबला अकेले काश्मीरी ही नहीं कर रहे, पूरा राष्ट्र कर रहा है। पूरे देश की जनता व सेना इस कार्य में जुटी है।

सारे भारत को एक समझने और उसकी रक्षा करना सभी भारतीयों का कर्तव्य है। यह सब इसलिये कि हम सब समझते हैं कि भारत एक है और एक रहेगा। कोई भी प्रदेश उतना ही उस प्रदेश के लोगों का है जितना कि अन्य भारतीयों का। पंजाब उतना ही पंजाबियों का है जितना कि बंगाल के लोगों का और इसी प्रकार मुम्बई और महाराष्ट्र उतना ही मराठी मानुष का है जितना कि पंजाब या अन्य राज्यों का। काश्मीर उतना ही काश्मीरियों का है जितना कि मराठी मानुष का। यह बात देश के अन्य प्रदेशों पर भी खरी लागू होती है।

हम सब जानते है कि काश्मीर भारत का अभिन्न, अभिभाज्य अंग है। भारतीय संविधान में धारा 370 जब बनाई गई थी तो कांग्रेस के महान् नेताओं ने ही इसे ”अस्थाई, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध” के रूप मे संविधान में वर्णित किया था। बाद में संकीर्ण राजीति व चुनावी लोभ के कारण इसे हटाने की मांग को ही ‘साम्प्रदायिक’ बताने का ढोंग रच दिया गया। प्रश्न तो यह उठता है कि यदि इस धारा को हटाने की मांग वस्तुत: ‘साम्प्रदायिक’ है तो क्या इसे ”अस्थाई, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध” करार देने वाले जवाहरलाल, अब्बुल कलाम आज़ाद, रफी अहमद किदवई सरीखे हमारे कर्णधार भी ‘साम्प्रदायिक’ थे?

हम सब भारत के सभी प्रदेशों व क्षेत्रों को एक और सब को सांझा भाग मानते हैं इसी कारण भारतीय जनता पार्टी, शिव सेना तथा अन्य अनेक राष्ट्रवादी संगठन बार-बार इस धारा 370 को तुरन्त समाप्त कर देने की अपनी मांग प्राय: दोहराते रहते हैं।

इसलिये मुम्बई और महाराष्ट्र को मराठी मानुष की बपौती करार देने वाली शिव सेना क्या महाराष्ट्र में भी धारा 370 लागू करने की वकालत नहीं कर रही? और क्या वह स्वयं ही अपने स्टैण्ड को नहीं झुठला रही? यह तो हो नहीं सकता कि जम्मू-काश्मीर के लिये तो कोई भी राजनैतिक दल अलग मापदण्ड रखें और अपने प्रदेश के लिये अलग।

शिव सेना को तो यह भी याद रखना होगा कि उसके प्रणेता छत्रपति शिवाजी मराठा गौरव अवश्य थे पर उतने ही गौरवशाली वह समस्त भारत के लिये भी थे। उन्होंने आक्रमणकारी शासकों से लोहा केवल अपने प्रदेश के लिये नहीं समूचे राष्ट्र के लिये लिया था। यदि कोई व्यक्ति छत्रपति षिवाजी को एक प्रदेश की सीमाओं में ही बान्धना चाहेगा या उन्हें समूचे राष्ट्र का न मान कर महाराष्ट्र तक ही सीमित रखना चाहेगा तो वह उनके एक महान्, विराट व्यक्तित्व को बौना बनाने का घृणित अपराध ही कर रहा है और उसे न महाराष्ट्र की जनता ही क्षमा कर सकती है और न समूचा राष्ट्र।

सच मानिये तो चाहे भतीजे राज ठाकरे हों या चाचा बाल ठाकरे व चचेरा भाई उध्दव ठाकरे हों या कांग्रेसी मुख्य मन्त्री अशोक चव्हान, सभी बचकानी बातें व हरकतें कर रहे हैं। इस में कोई शक नहीं कि मराठी प्रदेश के एक प्रतिष्ठित व समृद्ध भाषा है और उसका स्थान कोई नहीं ले सकता। साथ में यह भी तथ्य है कि हिन्दी राष्ट्र भाषा है और इसे भारत के अन्य भागों की तरह ही समूचे महाराष्ट्र में भी सहज भाव से बोला व समझा जाता है। स्वयं बाल ठाकरे, उध्दव ठाकरे, राज ठाकरे समेत प्रदेश के मुख्य मन्त्री व कांग्रेस समेत सभी राजनैतिक दलों के लोग बोलते और समझते हैं।

यह भी सत्य है कि मराठी को प्रादेशिक भाषा के रूप में पूरा सम्मान मिलना चाहिये। प्रादेशिक भाषाओं का राष्ट्र भाषा हिन्दी से कोई विवाद नहीं है। वस्तुत: सभी प्रादेशिक भाषायें और हिन्दी एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी या प्रतिध्दन्दी नहीं।

ऐसी स्थिति में यह संकीर्णता समझ नहीं आती कि किसी को इस बात पर ऐतराज़ क्यों हो यदि कोई व्यक्ति किसी समय हिन्दी बोलता है या विधान सभा में इस भाषा में शपथ ग्रहण करता है?

यह सभी जानते हैं – यदि उनमें बुद्धि है तो – कि व्यक्ति को जिस प्रदेश में रहना है, नौकरी करनी है और अपना व्यवसाय चलाना है तो उसे उस प्रदेश की भाषा तो सीखनी ही होगी और उसी में काम भी करना होगा। मुझे यदि अमरीका या जापान में नौकरी करनी है या अपना कोई व्यवसाय चलाना है तो मुझे अंग्रेजी या जापानी तो सीखनी ही होगी। यदि मैं वहां भी हिन्दी या मराठी में ही काम करना चाहूंगा तो मेरे जैसा मूर्ख कोई नहीं। न मुझे वहां नौकरी ही मिल पायेगी और न मेरा कोई काम-धन्धा ही चल पायेगा। इस लिये ऐसा करने के लिये मुझे किसी के आदेश की आवश्यकता नहीं।

पर जब कोई तानाशाही फरमान मिलता है तो वह अवश्य चुभता है, अखरता है।

सभी जानते हैं कि यदि मुम्बई में टैक्सी चलानी है तो उस चालक को मराठी का सामान्य व्यावहारिक ज्ञान तो होना ही चाहिये वरन् उसका काम चौपट हो जायेगा। पर अधिक से अधिक संकीर्ण दिखने की इस दौड़ में महाराष्ट्र के मुख्य मन्त्री अशोक चव्हान भी अपने आपको पीछे न रख सके। पहले फरमान जारी कर दिया कि टैक्सी परमिट उसी को मिलेगा जो मराठी जानता हौ। फिर यह आदेश वापस ले लिया। कुछ दिन बाद फिर यही राग अलाप दिया।

यह ठीक है कि फिल्म अभिनेता शाहरूख खां की आईपीएल में किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी को न लिये जाने पर टिप्पणी अनावश्यक थी। उनकी तो एक अपनी ही टीम है। वह ले लेते किसी को। अगर वह न ले पाये तो उसके कुछ व्यावसायिक कारण रहे होगे। कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता। यही स्वयं शाहरूख ने किया। फिर दूसरों को नसीहत क्यों? पर शाहरूक का अपराध इतना भी अक्षम्य न था कि इतना बावेला खड़ा कर दिया जाता। उससे किरकिरी शाहरूख की कम शिव सेना की अधिक हुई है।

भारत के गोरव क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेन्दुल्कर पर भी शिव सेना प्रमुख का गुस्सा अनायास ही था और संकीर्णता की बू देता है। सचिन ने कुछ गलत नहीं कहा था कि मैं भारतीय हूं और साथ ही मुझे मुम्बई का होने का भी गर्व है। शिव सेना तो राष्ट्रीयता का दम भरती है। तो क्या राष्ट्र के प्रति समर्पित होना मराठी मानुष के लिये शर्म की बात है?

वस्तुत: जो कुछ भी हो रहा है वह केवल राजनैतिक भावना और चुनाव में दाव मारने के लोभ में हो रहा है। संकीर्णता का नंगा नाच कर राज ठाकरे को विधानसभा चुनाव में कुछ सीटें क्या मिल गई सभी पार्टियों में होड़ लग गई जनता को यह आभास देने के लिये कि मैं अपने विरोधी से अधिक संकीर्ण हूं। एक ओर तो बाल व राज ठाकरे व अशोक चव्हान सरीखे महानुभाव राष्ट्रवादी होने का दम भरते हैं और दूसरी ओर वोटों के कुछ टुकड़ों के लिये संकीर्ण क्षेत्रवाद का ज़हर फैला कर देश में विघटन के बीज बो रहें हैं। यही काम तो अलगाववादी राष्ट्रविरोधी तत्व कर रहे हैं। फिर शिव सेना, मनसे व कांग्रेस और राष्ट्रद्रोहियों में अन्तर ही क्या रह जायेगा?

-अम्बा चरण वशिष्ठ