
—विनय कुमार विनायक
मैंने जिस मिट्टी में जन्म लिया वो चंदन है,
मैं जिस गोद में खेला हूं उसका अभिनंदन है!
जिसने ये तन दिया उस मां को मेरा नमन है,
जिस पिता का मैं पुण्य फला उनका वन्दन है!
इस मिट्टी को मेरे नाम किया जिस ईश्वर ने
उनकी शान में समर्पित मेरा संपूर्ण जीवन है!
मूक-बधिर,अंधा-लंगडा बना देना उनके बस में,
उन्हें कोटिशःप्रणाम, जिनका दान चंगा तन है!
आया इस भू पर असहाय अकेले रोते कलपते
स्वागत में देखा मां पिता मित्र कुटुम्ब धन है!
कहने को सब माया है, बेगाना सब काया है,
किन्तु इतने इंतजाम किए जिसने वे कौन हैं?
सृष्टि के आरम्भ से यह रहस्य है बना हुआ,
खोज पा लेना उनको सबसे बड़ा अन्वेषण है!
अबतक खोजे हैं जितने वो यहीं उपलब्ध थे,
अब भी जिसे खोजना बांकी वो अपनापन है!
ईश्वर,रब,खुदा, भगवान विविध नाम उनका,
ये तो सिर्फ उस अप्राप्ति का सीमा बंधन है!
ईश्वर व ईश्वर की संज्ञा भाषाई अभिव्यक्ति,
उस अदृश्य, परमसत्ता का संदेश तो अमन है!
ये मेरा अपना, वो पराया, मन का ये वहम है,
ना कोई अंत्यज,ना ब्राह्मण, ना ही दुश्मन है!
ना कोई हिन्दू, ना मुस्लिम, ना किश्चियन है,
ये धर्मभाई,वो बिरादर, मजहबी खोखलापन है!
मिट्टी का खिलौना है, ये बम,बारूद,मिसाइल,
मत इतराओ आयुधों पर, ये कागजी ईंधन है!
पशु अच्छे मानव से जिसमें धर्म,रंग-भेद नहीं,
अलग-अलग धर्म-दर्शन कहना, मानवी भ्रम है!
खोजें, ईजाद करें, अन्वेषण करें, इन्भेन्सन करें,
अपना इष्ट जिनका नाम अपनापन है,अमन है!
जिसे खोज नहीं पाया कोई पंडित,पोप, पैगम्बर,
जो सिर्फ आपके अंतर्मन में सदियों से दफन है!
धारण कर कभी गेरुआ कभी सफेद, कभी कंचन,
कभी शेरबानी वसन तन पे सबके सब कफन है!
जन्मे कितने सिकंदर, हिटलर,गजनवी, तैमूरलंग,
लंगड़े लूले नंगे बदन, छोड़ गए जो, नंगा तन है!
कैसी व्यवस्था है उनकी ना ताला ना संदूक-बंदूक,
अंततः ले जा पाता नहीं कोई एक मिट्टी कण है!
आवाज दे भेजा जिसने बेआवाज ले जाते, क्या नहीं
ये इच्छा,वासना,कामना मानवाधिकार का दमन है?
अंत में एक और भंगिमा छोड़ जाती मानव जाति,
पशु से परे मुखपर वो गहरी वेदना या मुस्कान है!
—विनय कुमार विनायक