आत्मा यात्री है देह आत्मा का वाहन

—विनय कुमार विनायक
आत्मा अगर यात्री है
तो देह आत्मा का वाहन!

आत्मा ना कभी मरती
ना लेती है कभी जन्म!

आत्मा वासना कामना
और कर्मफल के कारण
किसी जीव की कोख में
करती है देह को धारण!

फिर देह लेती है जन्म
यात्रा का होता है आरंभ
पहला पड़ाव है बचपन!

आत्मा के लिए देह का
धीरे-धीरे चाल में चलन
फिर एक ठहराव यौवन!

यौवन के बाद वृद्धापन
और अंततः दैहिक मरण!

आत्मा देह से निकलकर
भटकती है इधर उधर
फिर कर लेती देह धारण
यही जीवचक्र जीवनक्रम!

अकेली होती हर आत्मा
कोई नहीं होता है अपना!

वो मेरा पिता है, मैं उनका पुत्र हूं
मैं उसका पुत्र हूं, मैं उनका पिता हूं
वो मेरी मां है, वो मेरी पत्नी है
मैं उसका पुत्र हूं, मैं उसका पति हूं!

मगर मैं न खुद पिता हूं न पुत्र हूं
मैं न खुद मां हूं न खुद पत्नी हूं
बल्कि मैं आत्मा हूं एक यात्री हूं!

वो आत्मा हैं वो सहयात्री हैं
बस मैं और वो मिले एक मोड़ पे
अलग दिनों की सहयात्रा सबकी
अलग दिनों में अलग लोग मिलते
फिर होते जाते हर कोई अकेले!

मैं जो देखता हूं सपने अपने लिए
वो जो देखते हैं सपने अपने लिए
मेरे सपने में वो होते हैं
मगर उनके सपने में मैं नहीं हूं!

सब अपने लिए अपने सपने देखते
सब के सपने में अलग लोग होते!

मगर किसी के भी सपने
कभी भी सच नहीं होते हैं
क्योंकि कोई किसी के नहीं होते
सब कोई अकेले-अकेले होते!

देह है आत्मा का आवरण
एक दूसरे को बांध रखने हेतु
रिश्तों बीच भटकाने के लिए

मैं स्वयं की एक आत्मा हूं
मैं आत्माओं की आत्मा नहीं हूं!
देह आत्मा आत्मा का आवरण
परमात्मा से दूरी विभेदीकरण!
—विनय कुमार विनायक

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