विधि-कानून

ऑपरेशन ब्लूस्टार की गाथा

operation_blue_star_pe_20070820बातें पुरानी जरूर हो गई हों, पर उसकी यादें लोगों के जेहन  में अब भी हैं। ठीक पच्चीस साल पहले सिख धर्म के सबसे पवित्र धार्मिक स्थल यानी अमृतसर के हरिमंदिर साहिब परिसर पर भारतीय सेना ने ऑपरेशन ब्लूस्टार को अंजाम दिया गया था। इस कार्रवाई से दुनिया भर का सिख समुदाय दंग रह गया है। कई अन्य लोग भी आहत हुए थे।इस कार्रवाई से पंजाब की समस्या पूरे विश्व में चर्चा का विषय बन गई थी। घटना के पचीस साल बाद आज भी कई जानकार यह मानते हैं कि तात्कालीन सरकार के इस कदम ने पंजाब की समस्या को और जटिल बना दिया था।

उधर भारत सरकार और ऑपरेशन ब्लूस्टार के सैन्य कमांडर मेजर जनरल के.एस. बराड़ का कहना था कि उनकी जानकारी के मुताबिक कुछ ही दिनों में ख़ालिस्तान की घोषणा होने वाली थी। उसे रोकने के लिए ऑपरेशन को जल्द से जल्द अंजाम देना ज़रूरी हो गया था।

इस समस्या की नींव 1970 के दशक में पड़ी। यह अकाली राजनीति में खींचतान और अकालियों की पंजाब संबंधित मांगों को लेकर शुरू हुई थी। पहले वर्ष 1973 में और फिर 1978 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया। इसमें सुझाया गया था कि भारत की केंद्र सरकार का केवल रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर अधिकार हो। जबकि अन्य विषयों पर राज्यों को पूर्ण अधिकार हो। अकाली ये भी चाहते थे कि भारत के उत्तरी क्षेत्र में उन्हें स्वायत्तता मिले। धीरे-धीरे अकालियों की पंजाब संबंधित मांगें ज़ोर पकड़ने लगीं।

इसी दौरान अमृतसर में 13 अप्रैल 1978 को अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच हिंसक झड़प हुई। जिसमें 13 अकाली कार्यकर्ता मारे गए। जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने बढ़-चढ़कर इसका विरोध किया। लोगों का मानना है कि पंजाब में चरमपंथ की शुरुआत यहीं से हुई। यह भी आरोप लगाया जाता है कि सिख समुदाय में अकाली दल के जनाधार को घटाने के लिए कांग्रेस ने सिख धर्म प्रचारक भिंडरांवाले को प्रोत्साहन दिया था। पर इसके लेकर खासा विवाद है।

धीरे-धीरे भिंडरांवाले ने अपना एजेंडा तैयार कर लिया। पंजाब में हिंसक घटनाएं दिनों-दिन बढ़ने लगीं। भिंडरांवाले के ख़िलाफ़ हिंसक गतिविधियों को बढ़ावा देने के आरोप लगने लगे लेकिन पुलिस का कहना था कि उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के पर्याप्त सबूत नहीं हैं।

हालांकि, सितंबर 1981 में भिंडरांवाले ने महता चौक गुरुद्वारे के सामने गिरफ़्तारी दी। लेकिन वहाँ एकत्र भीड़ और पुलिस के बीच गोलीबारी हुई और ग्यारह व्यक्तियों की मौत हो गई। पंजाब में हिसा का दौर शुरू हो गया। सिख स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के सदस्यों ने एयर इंडिया के विमान का अपहरण भी किया।

भिंडरांवाले के साथ लोगों को जुड़ते देख अकाली दल के नेताओं ने भी उसके समर्थन में बयान देने शुरू कर दिए। वर्ष 1982 में भिंडरांवाले चौक महता गुरुद्वारा छोड़ पहले स्वर्ण मंदिर परिसर में गुरु नानक निवास और इसके कुछ महीने बाद सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था अकाल तख्त से अपने विचार व्यक्त करने लगे। धीरे-धीरे स्थिति विकट होती गई। पटियाला के पुलिस उपमहानिरीक्षक के दफ़्तर में भी बम विस्फोट हुआ। पंजाब के तात्कालीन मुख्यमंत्री दरबारा सिंह पर भी हमला हुआ।

अप्रैल 1983 में पंजाब पुलिस के उपमहानिरीक्षक ए.एस. अटवाल को दिन दहाड़े हरिमंदिर साहब परिसर में गोलियों से भून दिया गया। पुलिस का मनोबल लगातार गिरता चला गया। इस घटना के कुछ ही महीने बाद पंजाब रोडवेज़ की एक बस में घुसे बंदूकधारियों ने जालंधर के पास पहली बार कई हिंदुओं को मार डाला। तब केंद्र में काबिज इंदिरा गाँधी की सरकार ने पंजाब में दरबारा सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया। और राष्ट्रपति शासन लगू कर दिया गया।

ऐसा कहा जाता है कि ऑपरेशन ब्लूस्टार से पहले इंदिरा गाँधी सरकार की अकाली नेताओं के साथ तीन बार बातचीत हुई। आख़िरी चरण की बातचीत फ़रवरी 1984 में गई। लेकिन यह बातचीत तब टूट गई जब हरियाणा में सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा हुई। एक जून को भी स्वर्ण मंदिर परिसर और उसके बाहर तैनात केंद्र रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स के बीच गोलीबारी हुई। हालांकि, तब तक वहाँ ये आम बात बन गई थी।

स्वर्ण मंदिर परिसर में हथियारों से लैस संत जरनैल सिंह, कोर्ट मार्शल किए गए मेजर जनरल सुभेग सिंह और सिख स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के कार्यकर्ताओं ने चारों तरफ़ ख़ासी मोर्चाबंदी कर रखी थी। तीन जून को गुरु अरजन देव का शहीदी दिवस होने की वजह से दो जून से ही परिसर में हज़ारों श्रद्धालुओं ने आना शुरू हो गया था।

उधर प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश को संबोधित किया तो ये स्पष्ट हो गया था कि सरकार स्थिति को काफी गंभीरता से देख रही है और कोई भी कड़ा फैसला कर सकती है। तब पंजाब से आने-जाने वाली रेलगाड़ियों और बस सेवाओं पर रोक लग गई। फ़ोन लाइनें काट दी गईं। यहां तक की विदेशी मीडिया को राज्य से बाहर कर दिया गया। लेकिन सेना और सिख विद्रोहियों के बीच असली मुठभेड़ पांज जून की रात ही शुरू हुई।

तीन जून तक भारतीय सेना अमृतसर में प्रवेश कर स्वर्ण मंदिर परिसर को घेर चुकी थी। शाम में शहर में कर्फ़्यू लगा दिया गया था। चार जून को सेना ने गोलीबारी शुरू कर दी। ताकि चरमपंथियों के हथियारों और उनकी तैयारियों का अंदाज़ा लगाया जा सके।

इस कार्रवाई को अंजाम दे रहे सैन्य कमांडर के.एस. बराड़ ने माना कि विद्रोहियों की तरफ से इतना कड़ा जवाब मिला कि पाँच जून को बख़तरबंद गाड़ियों और टैंकों को इस्तेमाल करने का फैसला किया गया। उनका यह भी कहना था कि सरकार चिंतित थी कि यदि स्वर्ण मंदिर की घेराबंदी ज़्यादा लंबी चलती है तो तरह-तरह की अफ़वाहों को हवा मिलेगी और जन-भावनाएं भड़केंगी।

अंततः भीषण ख़ून-ख़राबा हुआ। कई पुरानी चीजें तबाह हो गईं। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सिख पुस्तकालय जल गया। भारत सरकार के श्वेतपत्र के अनुसार कार्रवाई में 83 सैनिक मारे गए और 249 घायल हुए। जबकि 493 विद्रोही या आम नागरिक मारे गए। 86 घायल हुए और 1592 को गिरफ़्तार किया गया। लेकिन इन सब आँकड़ों को लेकर अब तक विवाद चल रहा है। सिख संगठनों का कहना है कि हज़ारों श्रद्धालु स्वर्ण मंदिर परिसर में मौजूद थे और मरने वाले निर्दोष लोगों की संख्या भी हज़ारों में है। हालांकि, भारत सरकार इसका खंडन करती आई है।

इस कार्रवाई से सिख समुदाय की भावनाओं को बहुत ठेस पहुँची। कई प्रमुख सिख बुद्धिजीवियों ने सवाल उठाए कि स्थिति को इतना ख़राब क्यों होने दिया गया कि ऐसी कार्रवाई करने की ज़रूरत पड़ी? कई प्रमुख सिखों ने या तो अपने पदों से इस्तीफ़ा दे दिया या फिर सरकार द्वारा दिए गए सम्मान लौटा दिए।

इसके कुछ ही समय बाद दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने 31 अक्तूबर को तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या कर दी। इसके बाद भड़के सिख विरोधी दंगों से कांग्रेस और सिखों की बीच की खाई और चौड़ी हो गई। यकीनन आजाद भारत के इतिहास का यह एक काला इतिहास है।