लेख

विवाह के ‘शादी’ हो जाने की त्रासद परिणति

  मनोज ज्वाला

    हिन्दू समाज रिलीजन व मजहब के अधार्मिक संक्रमण से बुरी तरह संक्रमित होता हुआ अनजाने में ही बहुविध अवांछित रुपान्तरण के दौर से गुजर रहा है । वेद-विदित वैज्ञानिक जीवन-पद्धति-संस्कृति पर आधारित यह समाज तथाकथित आधुनिक शिक्षण एवं बाजार के अतिक्रमण और फिल्मी अपसंस्कृति के अंधानुकरण की प्रवृति का शिकार होता हुआ अपनी अस्मिता व मौलिकता खोता जा रहा है । समाज का यह परिवर्तन-रुपान्तरण भाषा-भूषा, बोल-चाल, रहन-सहन, रीति-रिवाज के स्तर पर ही नहीं; अपितु अब तो इसके मूल धार्मिक विधियों-कर्मकाण्डों तक सर्वत्र देखा जा रहा है । क्रिश्चियनिटी नामक रिलीजन व इस्लाम नामक मजहब से सम्बद्ध समाज का एक-एक व्यक्ति जहां अपनी अवैज्ञानिक अवधारणाओं-मान्यताओं के प्रति भी अपरिवर्तनीय रुप से कट्टरता को धारण किये हुए है, वहीं निहायत वैज्ञानिक-वैदिक  अवधारणाओं पर आधारित हिन्दू समाज स्वयं ही स्वयं के अंग्रेजीकरण-मजहबीकरण को सहज स्वीकार करता हुआ पतन-पराभव की ओर बढता जा रहा है ।

    यह तो हम सभी जानते हैं कि समस्त हिन्दू-समाज के धर्म-शास्त्रों की भाषा संस्कृत है और देश में कायम शिक्षा-व्यवस्था की मुख्य धारा से संस्कृत निष्कासित कर दी गई और अंग्रेजी प्रतिष्ठित, जिसके कारण हमारे बच्चे धर्म-संस्कृति के मूलभूत संक्षिप्त ज्ञान से भी वंचित होते जा रहे हैं, हो चुके हैं ।   थोडा-बहुत अगर जानते भी हैं, तो अंग्रेजी रुपों में ही ; जैसे- वेद नहीं ‘वेदा’, योग नहीं ‘योगा’ धर्म नहीं ‘रिलीजन’ या ‘मजहब’ आदि की तरह । भाषा ही नहीं , हमारी भूषा भी संकट-ग्रस्त हो चुकी है- पुरुषों के धोती-कुर्ता-पगडी छोड पैण्ट-पतलून-टाई अपना लेने तथा स्त्रियों के साडी-दुपट्टा-बिन्दी-विन्यास छोड शॉर्ट शर्ट , जिन्स पैण्ट अपना लेने और मां के आंचल की छाया से बच्चों के वंचित होते जाने पर भी समाज मौन है, कहीं कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं । बोलचाल में होली-दिवाली-नवरात्रि-दशहरा के साथ ‘हैप्पी’ व ‘मुबारक’ शब्द जुड गए , यत्नपूर्वक ही कोई बोलता है अब ‘शुभ’ या ‘मंगल’ ; परिवार ‘फैमिली’ हो गई, माता-पिता हो गए ‘मॉम-डैड-पैरेण्ट’ , तो दम्पत्ति भी हो गए अब ‘कपल’ । हम अंतिम पीढी के लोग हैं, जो काका-काकी-फुआ-फूफा, मौसी-मौसा आदि पारिवारिक सम्बन्धों का मर्म जानते हैं, हमारी पीढियां इन सबसे वंचित हो कर अल्पसंख्यक होते हुए कमजोर भी हो जाएंगी और एक बहुत बडे आसन्न संकट में फंस जाएंगी । हमारे महान रीति-रिवाजों को भी रिलीजियस-मजहबी ग्रहण इस कदर ग्रसित करते जा रहे हैं कि व्यक्ति-परिवार-समाज निर्माण की परिष्करण-विधि (प्रोसेसिंग सिस्टम) के सोलह संस्कारों में से दो चार ही बचे हैं अब और वे भी विकृत रुपों में । जन्मदिवस तो कोई संस्कार नहीं, केवल उत्सव है, जो ‘हैप्पी बर्थ डेय’ बोले बिना मनता ही नहीं । बाकी विवाह व अन्त्येष्टि के अलावे गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (मुंडन), विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत (उपनयन), वेदारंभ, केशान्त, समावर्तन संस्कारों से तो समाज एकबारगी विमुख ही हो चुका है ।      

हिन्दू जीवन-सोपान में चार आश्रम हुआ करते हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास । दूसरे आश्रम के आरम्भ में सम्पन्न होने वाला विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्व का संस्कार है, क्योंकि यह परिवार-संस्था एवं गृहस्थ-आश्रम की आधारशिला है । यह इस कारण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अन्य तीनों आश्रमों- ब्रह्मचर्य-वानप्रस्थ-सन्यास का पोषण इसी गृहस्थ आश्रम से होता है , जिसका निर्माण विवाह संस्कार से ही होता है । स्पष्ट है कि प्रकारान्तर से सम्पूर्ण हिन्दू समाज की होतव्यता और भवितव्या का आधार भी यही है- विवाह संस्कार । किन्तु दुर्भाग्य से यह भी अब हिन्दू समाज के हाथ से निकलता जा रहा है और ‘शादी’ के नाम से जाना जा रहा है । रिलीजन-मजहब एवं फिल्म व बाजार के चतुष्कोणीय आक्रमण से विकृत होते-होते अपनी उपादेयता खोता जा रहा है विवाह संस्कार । मैं ऐसा इस कारण से कह रहा हूं क्योंकि विवाह की प्रक्रिया में अब वैदिक संस्कार-तत्व एवं धार्मिक विधि-विधान उपेक्षित होते जा रहे हैं और अवैदिक-अवांछित-अधार्मिक अनिष्टकारी उपादान प्रतिष्ठित कर दिये जाने लगे हैं । सबसे पहली अवांछनीयता तो उसका रात में संपन्न किया जाना है । विवाह विशुद्ध वैदिक यज्ञ है और कोई भी यज्ञ रात में किया जाना वेद-विरुद्ध होने के कारण सर्वथा वर्जित है । मुगलकालीन आपद्धर्म धारण किये जाने से पहले ; अर्थात प्राचीन काल से तब तक विवाह कर्म सूर्य के प्रकाश एवं अग्नि की साक्षी में ही होते रहे , जिसे परिणयन अथवा पाणिग्रहण कहा जाता रहा है ; जबकि ‘शादी’ का उल्लेख समस्त वैदिक वांग्मय में कहीं नहीं है ।

  विवाह के रात्रिकालीन आयोजन के अनुचित प्रचलन के कारण अनेक अवांछनीयतायें जुड चुकी हैं इससे । जैसे- वर-पक्ष ‘वारात’ कही जाने वाली एक बडी भीड ले कर कन्या-पक्ष के घर जाने के लिए देर रात गाजे-बजे के साथ निकलता है । यह यात्रा बडी दीर्घसूत्री होती है- एक घण्टे की यात्रा  उन यात्रियों की असहज हरकतों के कारण प्रायः तीन-चार घण्टे में पूर्ण होती है । अनावश्यक आतिशबाजी का शोरगुल, रंग-बिरंगे विद्युत वल्बों की कण्डिकायें सिर पर धारण किये मजदूरों का संकूल, पीछे-पीछे धूंआ उगलते जेनरेटर के साथ डीजे-बैण्ड की कानफाडू आवाज, शराब के नशे में धूत्त मनचलों का उपद्रवकारी हुजूम, तथा ‘आज मेरे यार की शादी है’ तो ‘लौण्डिया  लन्दन से लायेंगे-रात भर नचायेंगे’ जैसे अश्लील-फुहड फिल्मी गान-धुन पर कमर हिलाते, छाती पीटते, सिर धुनते युवक-युवतियों का समूह और इन सब अशिष्ट आपत्तिजनक  मर्यादाहीन कृत्यों को विवश भाव से देख-देख हर्षित होने की चेष्टा करते कतिपय संभ्रान्त जनों की बेवशी; इस यात्रा की विशेषतायें होती हैं, जिन्हें कुल मिला कर देखें, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे भांटों-बटमारों का कोई आक्रमणकारी दल कहीं किसी को जीत लेने के लिए टूट पडा हो । फिर कन्या के द्वार पर पहुंच कर वे वर-यात्री (वाराती) वहां घण्टों वही सब कृत्य दुहराते हैं , जहां एक ऊंचा मंच सजा हुआ होता है- कन्या को जीत लेने के लिए । ‘जयमाला’ या ‘वरमाला’ का रस्म कहे जाने वाले उस कार्यक्रम का विवाह की वैदिक रीति-विधि से कोई सम्बन्ध नहीं  होता है , क्योंकि उस दौरान कन्या को विविध भाव-भंगिमाओं एवं आपत्तिजनक मुद्राओं में प्रदर्शित किया-कराया जाता है ; विवाह से पहले ही वर और उसके साथियों-सम्बन्धियों के द्वारा उसके ‘पाणि’ ग्रहण (हरण) कर लिए जाते हैं । यह सब विभिन्न मुद्राओं में उसकी फोटोग्राफी-विडीयोग्राफी के लिए किये जाते हैं । ऐसे में यह सब अवांछित कृत्य करते-कराते रात के बारह बज चुके होते हैं, निशिथ पहर बीत चुका होता है, तो विवाह का पूर्व-निर्धारित दिनांक-तिथि-नक्षत्र भी बदल जाते हैं, स्वरुप-स्वभाव तो पहले ही बदल चुके रहते हैं, क्योंकि ये सारे अनर्थ ‘शादी’ के नाम पर होते हैं ।  

 यद्यपि न तो वैदिक पंचांग में कहीं शादी लिखा हुआ होता है, न ही तत्विषयक विधि-पद्धति की पुस्तक में ; तथापि पुरोहित से ले कर यजमान तक, सभी लोग विवाह को शादी ही कहने लगे हैं अब । ज्ञात हो कि शादी शब्द विवाह का पर्यायवाची नहीं है । यह तो संस्कृत क्या, किसी भी भारतीय भाषा का ही शब्द नहीं है । यह अरबी भाषा का शब्द-‘शाद’ से बना है, जिसका अर्थ होता है- ‘खुश होना-रहना’ । ‘शाद’ से बना ‘शादी’ शब्द अरबी में भी विवाह के समानार्थी नहीं है । वहां विवाह के अर्थ में ‘निकाह’ शब्द है, ‘शादी’ नहीं और निकाह कोई संस्कार नहीं है , अपितु मुस्लिम युवक-युवतियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अनुबंध है । अरबी में शादी का अर्थ खुशी या जश्न होता है । तो इस दृष्टि से मुस्लिम समाज में निकाहजनित खुशी के तौर पर निकाह को शादी कहा जा सकता है, तब भी मुस्लिम लोग निकाह को शादी नहीं कहते । किन्तु संस्कृत भाषा में सम्पन्न होने वाले हिन्दू-संस्कार- ‘विवाह’, जिसके अनेक सार्थक-सुंदर पर्यायवाची शब्द हैं, जैसे- पाणिग्रहण, परिणयन, गठ्बन्धन व्याह  आदि, को ‘शादी’ कहना तो घोर मूर्खता है । मेरा मानना है कि विवाह को शादी जब से कहा जाने लगा है, तभी से इसके वैदिक-धार्मिक संस्कार पक्ष का क्षरण और अवैदिक-अधार्मिक जश्नीय पक्ष का अतिक्रमण शुरु हुआ है, जो हिन्दू समाज की उदासीनता और ब्राह्मणों-पुरोहितों  की उदासीनता के कारण अब तेजी से बढता जा रहा है ।   

    अब तो विवाह शब्द कहने-सुनने में भी  यदा-कदा ही किसी-किसी के द्वारा प्रयुक्त होता है, अन्यथा सामान्य तौर पर अब शादी ही कहा जाने लगा है विवाह संस्कार को । ऐसे में आगे विवाह को अगर ‘निकाह’ भी कहने लगें लोग, तो बहुत सम्भव है कि दोनों शब्दों के उच्चारण की ध्वनि-समानता के कारण अधिकतर हिन्दू उसे भी सहज स्वीकार कर लेंगे, कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं होगा कहीं ।

 ध्यातव्य है कि भाषा का प्रभाव व्यक्ति के विचार-व्यवहार-संस्कार को निर्धारित करता है । तभी तो भाषाविदों-मनोवैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष दिया हुआ है कि भाषा हमारे विचारों, भावनाओं और आचार-व्यवहार को आकार देती है । हम अपने किसी विशेष क्रिया-कर्म के लिए अपनी मातृभाषा अथवा अपने स्वधर्म से इत्तर अन्य किसी भाषा के शब्दों का उपयोग करते हैं, तो उन शब्दों के अर्थ के साथ-साथ उनकी संस्कृति के आचार-विचार को भी ग्रहण करने लगते हैं । यही कारण है कि विवाह के लिए शादी शब्द को अंगीकार कर लेने से हम इसके वैदिक अर्थ एवं वेदोचित आचार-विचार-संस्कार को खोते जा रहे हैं और अरबी अर्थ-आचार-विचार ग्रहण करने लगे हैं । इसे आप ऐसे समझिए कि हिन्दू संस्कृति में और संस्कृत भाषा में विवाह के विरुद्ध ‘तलाक’ नाम का कोई शब्द नहीं है, क्योंकि विवाह तो विवाहित स्त्री-पुरुष के सात-सात जन्मों तक एक बने रहने की व्यवस्था का द्योत्तक है, किन्तु जब हमने विवाह के बजाय शादी को अपना लिया तब तलाक अपने आप ही हमारे समाज में आ गया । आज हिन्दू समाज में परिवार नामक संस्था के क्षरण और दाम्पत्य-विच्छेदन की जो समस्या बढती जा रही है, सो विवाह के शादी हो जाने की त्रासदी से उत्त्पन्न स्थिति की परिणति है । अतएव अनावश्यक रुप से परायी संस्कृति के शब्दों  और उनसे सम्बद्ध रीतियों के अनुकरण की प्रवृति का शमन करना होगा और इसके लिए ब्रह्मणों-पुरोहितों को ही आगे आना होगा ।
  • मनोज ज्वाला