2025 में भी जारी रहेगा तापमान बढ़ने का सिलसिला ! 

सुनील कुमार महला


बढ़ती जनसंख्या, विभिन्न मानवीय गतिविधियों और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, वनों की अंधाधुंध कटाई, शहरीकरण, औधोगिकीकरण के कारण धरती पर निरंतर जलवायु परिवर्तन होता चला जा रहा है। कहना ग़लत नहीं होगा कि इस  जलवायु परिवर्तन का असर अब पृथ्वी पर साफ दिखने लगा है। सच तो यह है कि आज सर्दियों में अधिक सर्दी तथा गर्मियों में अधिक गर्मी पड़ने लगी है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से आज दुनिया के कई देश गर्मी से तो बेहाल हो गए हैं। भारत में भी पिछले साल यानी कि वर्ष 2024 में रिकार्ड गर्मी पड़ी और कई राज्यों में तो पारा पचास के आसपास तक पहुंच गया। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि  मानसून के बाद चार महीने अब तक के सबसे गर्म महीने दर्ज किए गए। पिछले साल धरती का तापमान 0.54 डिग्री अधिक दर्ज किया गया था। गौरतलब है कि वर्ष 1901 के बाद वर्ष 2024 भारत में सबसे गर्म वर्ष रहा।

 इधर,मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार जनवरी के दौरान देश के अधिकतर हिस्सों में न्यूनतम तापमान सामान्य से अधिक रहने के आसार हैं। हाल ही में विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यू एम ओ) ने मौसम के बारे में एक चेतावनी जारी की है जो पर्यावरणविदों की चिंताएं बढ़ाता है। बताया जा रहा है कि वर्ष 2025 में भी वर्ष 2024 की तरह तापमान बढ़ने का सिलसिला जारी रहेगा। कहा गया है कि इस वर्ष भी यानी कि 2025 में ग्रीनहाउस उत्सर्जन के पिछले रिकॉर्ड टूटेंगे। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2023 में 1.45 डिग्री सेल्सियस समुद्र की सतह का तापमान बढ़ चुका है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि समुद्र की सतह का तापमान 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य है। पेरिस समझौते ने तमाम देशों ने इस पर सहमति जताई थी। वास्तव में, धरती पर तापमान में लगातार इजाफे की समस्या केवल भारत की ही नहीं है। न केवल एशिया महाद्वीप, बल्कि पश्चिमी देशों से लेकर दक्षिणी गोलार्ध में अंटार्कटिका तक इसकी आंच पहुंच रही है।सच तो यह है कि आज धरती पर अप्राकृतिक मानवीय गतिविधियों ने प्रकृति पर अधिक बोझ डाल दिया है।

दरअसल, जीवाश्म ईंधनों जैसे विभिन्न पेट्रोलियम उत्पाद, कोयला और प्राकृतिक गैस के बेतहाशा इस्तेमाल, जंगलों की अंधाधुंध और अप्राकृतिक कटाई और विकास के नाम पर मानवजाति शहरीकरण, औधोगिकीकरण को लगातार बढ़ावा दे रही है और शायद यही कारण भी है कि आज प्रकृति मानव को अपना रौद्र रूप दिखाने लगी है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज मनुष्य ने अपने स्वार्थ और लालच के लिए धरती की जलवायु को संकट में डाल दिया है और इसी का यह परिणाम है कि आज दुनिया में कहीं अधिक गर्मी, तो कहीं ज्यादा सर्दी पड़ रही है। पाठकों को बताता चलूं कि कुछ समय पहले बाकू में यूएनएफसीसीसी शिखर सम्मेलन के कॉप-29 में नवंबर 2024 में जलवायु वित्त पर उच्च स्तरीय मंत्रिस्तरीय बैठक में समान विचारधारा वाले विकासशील देशों (एलएमडीसी) की ओर से हस्तक्षेप करते हुए भारत ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव एक आपदा से दूसरी आपदा के रूप में तेजी से स्पष्ट होते जा रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि ब्लैक कॉर्बन, मीथेन, ग्राउंड-लेवल ओजोन और हाइड्रोफ्लोरोकॉर्बन (एचएफसी) जैसे एसएलसीपी(अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक) वायु गुणवत्ता को बिगाड़ने के साथ ग्लोबल वॉर्मिंग की महत्वपूर्ण वजह बनते हैं। वास्तव में, एसएलसीपी ग्रीनहाउस गैसों और वायु प्रदूषकों का एक समूह है, जो जलवायु पर निकट अवधि में वॉर्मिंग प्रभाव डालता है। पर्यावरण तो पर्यावरण अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक अर्थव्यवस्था, कृषि, खाद्य सुरक्षा और श्रम जैसे क्षेत्रों को भी प्रभावित कर रहा है।

 कहना ग़लत नहीं होगा कि आज दुनिया के विकसित और विकासशील देश बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं और चीन और अमेरिका जैसे देश आज विकास के नाम पर इतना अधिक कार्बन उत्सर्जन कर रहें है कि इनका ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में बहुत ज्यादा योगदान है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यदि समय रहते एसएलसीपी पर नियंत्रण कर लिया जाए तो हम तापमान में कमी लाने के प्रभाव को तेजी से हासिल कर सकते हैं और दीर्घकालिक अवधि के कॉर्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को काफी हद तक धीमा कर सकते हैं। पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान लगभग 15° C है और यदि ग्रीनहाऊस गैस न हो तो पृथ्वी का तापमान गिरकर लगभग 20°C हो जाएगा।

आज विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण अत्यधिक मात्रा में मीथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन आदि वायुमंडल में जमा हो रही हैं जो कि ग्रीन हाउस गैसें हैं। वास्तव में ये गैसें (ग्रीन हाउस गैसें) लंबे अवरक्त विकिरण (इंफ्रारेड रेडियेशन) को अवशोषित करती हैं और वायुमंडल में इन्हीं ग्रीनहाऊस गैसों की  मात्रा में लगातार वृद्धि होने के कारण संपूर्ण वैश्विक जलवायु लगातार परिवर्तित हो रही हैं, और यही परिवर्तन विश्वव्यापी जलवायु परिवर्तन कहलाता है।

विश्व में बढ़ती ऊर्जा जरूरतों के बीच आज ऊर्जा के परंपरागत स्त्रोतों का ही अधिक उपयोग किया जा रहा है और ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों का उपयोग बहुत ही कम क्षेत्रों में हो रहा है। मसलन, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वार शक्ति, भू-तापीय शक्ति तथा जल शक्ति जैसे आज ऊर्जा के अनेक वैकल्पिक स्रोत हैं, जो कि अक्षय ऊर्जा के भी स्रोत हैं, परन्तु इनके अल्प विकास के कारण विश्व की अर्थव्यवस्था परंपरागत ऊर्जा के स्रोतों पैट्रोल, डीजल, कोयला आदि पर निर्भर है, जिससे न सिर्फ पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ रहा है अपितु वैश्विक तापमान में भी वृद्धि हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि बीसवीं सदी में वैश्विक औसत तापमान लगभग 0.6 बढ़ गया और तापमान में वृद्धि की प्रवृत्ति यदि इसी प्रकार जारी रहती है तो अनुमान लगाया जा रहा है कि इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक पृथ्वी का तापमान लगभग 6°C तक बढ़ जाएगा, जो कि काफी अधिक है।

ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोत्तरी से ओजोन परत भी बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ रहा है। एक शोध में यह पाया गया है कि ओजोन परत में 5 प्रतिशत की क्षति 10 प्रतिशत अल्ट्रावॉयलेट रेडियेशन में बढ़ोत्तरी करती है। इसके फलस्वरूप जीवों में त्वचा कैंसर, मोतियाविन्द, पाचनतंत्र और तंत्रिका तंत्र से संबंधित रोग हो सकते हैं। अत्यधिक मात्रा में अल्ट्रावायलेट विकिरण पौधों में भी प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया को भी प्रभावित करता है। अतः आज जरूरत इस बात की है कि हम जीवाश्म ईंधन का न्यूनतम उपयोग करें ताकि ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम से कम हो। वन भूमि का अधिकाधिक विस्तार करें।जैविक खेती को प्रोत्साहित करें। क्लोरोफ्लोरोकार्बन के विकल्प के विकास पर ध्यान दें क्योंकि ये धरती के सुरक्षा कवच को नुकसान पहुंचाता है। पेट्रोल एवं डीजल के स्थान पर वैकल्पिक ईंधन का प्रयोग करें जैसे कि बायोडीजल, सौर ऊर्जा, सी.एन.जी., विद्युत और बैटरी चालित वाहनों का विकास करें। इतना ही नहीं, सभी प्रकार के प्रदूषणों  के प्रति आज आम लोगों को जागृत किए जाने की आवश्यकता महत्ती है। इसके साथ ही आज ग्रीन टेक्नोलॉजी के विकास पर जोर देने की जरूरत है। अंत में कहना ग़लत नहीं होगा कि प्रदूषण से संबंधित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का ईमानदारी और कड़ाई से पालन करके पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया जा सकता है।

सुनील कुमार महला

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