बेबी राठौड़
जाखड़वाला, राजस्थान
वैसे तो पूरे राजस्थान का अपना एक इतिहास है। लेकिन इसके कुछ ग्रामीण क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहां एक नया इतिहास लिखने की तैयारी है। ये इतिहास खुद गाँव की किशोरियों द्वारा रचा जा रहा है। इस राज्य के बीकानेर जिला स्थित लूंकरणसर ब्लॉक का जाखड़वाला ऐसा ही एक गाँव है। यहां की किशोरियों की कहानी किसी एक लड़की की नहीं, बल्कि उस सामाजिक सच्चाई की तस्वीर है, जो आज भी देश के कई हिस्सों में चुपचाप ज़िंदा है। आधुनिक समय में जब शिक्षा को प्रगति, समझ और आत्मनिर्भरता की बुनियाद माना जाता है, ऐसे समय में इस गाँव में यह अब भी एक सीमित सुविधा की तरह देखी जाती है। यहाँ शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान नहीं, बल्कि सोचने और सवाल करने की शक्ति से जुड़ी है, और यही शक्ति सबसे पहले लड़कियों से छीनी जाती है।
इस गाँव में यह आम धारणा है कि पढ़ाई और आगे बढ़ने का अधिकार मुख्य रूप से लड़कों का है। लड़कियों को घर की जिम्मेदारियों के लिए तैयार किया जाता है, जैसे उनका जीवन पहले से तय हो। बचपन से ही उन्हें सिखाया जाता है कि ज्यादा बोलना ठीक नहीं, बाहर जाना खतरे से भरा है और उनके सपने का पूरा होना मुमकिन नहीं। परिवार और समाज दोनों मिलकर लड़कियों के चारों ओर रीति रिवाज के नाम पर एक अदृश्य दीवार खड़ी कर देते हैं, जिसके भीतर रहना ही उनके लिए सुरक्षित माना जाता है। गाँव में सिर्फ एक छोटा सा स्कूल है, जहाँ पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाई होती है। इसके बाद आगे पढ़ने के लिए दूसरे गाँव जाना पड़ता है। लड़कों को यह मौका तो बहुत आसानी से मिल जाता है, चाहे उन्हें पढ़ने का शौक हो या न हो। लेकिन शौक और काबलियत के बावजूद लड़कियों के लिए यह रास्ता लगभग बंद हो जाता है। कुछ परिवारों में अगर 2 या 3 साल किसी लड़की को दूसरे गाँव पढ़ने के लिए भेज भी दिया जाता है तो वह भी उसे अकेले नहीं, बल्कि पिता या भाई के साथ। इसके बाद भी उसके हर कदम पर शक, डर और बंदिशें बनी रहती हैं।
यहां लड़कों और लड़कियों की ज़िंदगी में फर्क बहुत साफ़ दिखाई देता है। लड़कों को बाहर जाने, मनपसंद कपड़े पहनने, दोस्तों से मिलने और अपनी पसंद का खाना खाने की आजादी होती है। वे पढ़ाई छोड़ दें तो भी कोई बड़ा सवाल नहीं उठता। कोई खेतों में काम करने लगता है, कोई मजदूरी करता है, कोई बेरोजगार बैठा रहता है, लेकिन समाज उन्हें स्वीकार करता है। वहीं लड़कियों से उम्मीद की जाती है कि वे चुपचाप हर नियम मानें और घर की इज्जत का बोझ अपने कंधों पर ढोती रहें।
लड़कियों की पढ़ाई अक्सर उम्र के साथ खत्म मान ली जाती है। जैसे ही वे थोड़ी बड़ी होती हैं, स्कूल छुड़वा दिया जाता है। इसके पीछे यह संकीर्ण मानसिकता हावी है कि ज़्यादा पढ़ने से लड़कियां बिगड़ जाएँगी, सवाल पूछने लगेंगी या अपनी ज़िंदगी खुद चुनना चाहेंगी। इसीलिए कपड़ों से लेकर बालों तक, उनकी हर चीज़ पर नियंत्रण रखा जाता है। सलवार-सूट के अलावा अन्य ड्रेस पहनना गलत माना जाता है, बाल खुले हों तो फैशन का ठप्पा लगा दिया जाता है और किसी से बात कर लें तो शादी का डर दिखाया जाता है। सबसे पीड़ादायक स्थिति तब होती है, जब छोटी-छोटी बच्चियों को भी डर के माहौल में पाला जाता है। स्कूल जाते समय उनसे यह नहीं कहा जाता कि सावधानी से जाना और किसी भी परिस्थिति का डटकर मुकाबला करना, बल्कि यह चेतावनी दी जाती है कि अगर कुछ हुआ तो स्कूल जाना बंद कर दिया जाएगा। गलती किसकी है, यह जानने की कोशिश ही नहीं की जाती है। इस डर के कारण लड़कियाँ न सिर्फ़ बोलना छोड़ देती हैं, बल्कि खुद को दोषी मानने लगती हैं।
इसका उदाहरण मैं स्वयं हूँ। मैं अपने गाँव की पहली लड़की हूँ, जिसने इन दीवारों के बाहर निकलने की कोशिश की। पढ़ाई जारी रखने और आगे बढ़ने का सपना देखना आसान नहीं था। ताने, रोक-टोक और सामाजिक दबाव हर कदम पर सामने खड़े थे। कई बार लगा कि शायद यही मेरी सीमा है। एक समय ऐसा भी आया जब समाज के दबाव में मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गई। जिससे मैं पूरी तरह टूट गई। महीनों तक घर में बैठकर रोना, खुद से सवाल करना और भविष्य को लेकर डर, यह सब मेरी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया था। लेकिन फिर भी मैं हिम्मत नहीं हारी। लूणकरणसर स्थित उरमूल सेंटर से जुड़ी एक मैडम ने मेरी बात सुनी और मुझे यह एहसास दिलाया कि हर घटना ज़िंदगी का अंत नहीं होती, बल्कि एक सीख भी हो सकती है। धीरे-धीरे मैंने खुद को संभालना शुरू किया और फिर से पढ़ाई की बात घरवालों के सामने रखी। खूब विरोध हुआ, मना किया गया, लेकिन मन ने हार मानने से इनकार कर दिया। इस विरोध के बीच पिता का साथ मिला जो मेरे लिए सहारा बना। 11वीं में दाखिला मिलना आसान नहीं था, डर हमेशा बना रहता था कि अगर कोई शिकायत हुई तो स्कूल छुड़वा दिया जाएगा। फिर भी हर दिन यह सोचकर आगे बढ़ती रही कि अगर मैं रुक गई, तो मेरे बाद आने वाली लड़कियों के लिए रास्ता और मुश्किल हो जाएगा।
आज मेरा सपना अपने पैरों पर खड़ा होने और सफलता के शिखर को छूने का है। यह सपना सिर्फ़ मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि उस व्यवस्था को समझने और बदलने की चाह है, जो लड़कियों को बराबरी का इंसान नहीं मानती। मैं चाहती हूँ कि मेरे गाँव की हर लड़की पढ़े, सवाल पूछे और अपने फैसले खुद ले। उसके सपने बंद दरवाजों के पीछे दम न तोड़ दे बल्कि उसे पूरा होने का अवसर मिले। जब तक शिक्षा को लड़का और लड़की में बाँटकर देखा जाएगा, केवल लड़की होने के आधार पर उससे अवसर छीन लिए जाएंगे, उस वक्त तक समाज का विकास अधूरा रहेगा। ज़रूरत है लड़कियों के प्रति समाज को अपनी सोच बदलने की और गाँव के माहौल को उनके लिए सुरक्षित बनाने की। यह एक बंद किये जा रहे सपनों को खोलने की जिद है। अगर कठिन परिस्थिति में भी मैं आगे बढ़ सकती हूँ, तो गाँव की हर लड़की आगे बढ़ सकती है। दरअसल सपनों को कैद में नहीं, खुले आसमान में साँस लेने का हक़ मिलना चाहिए,