रंगों में बांट दिया स्त्री संसार

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मनोज कुमार 

स्त्री सशक्तिकरण के सौ साल गुजर चुके हैं और आज भी समाज उन्हें सशक्त बनाने की कोशिश में है। एक ओर समाज कहता है कि आधी दुनिया उनकी लेकिन आधी तो क्या खुले मन से एक टुकड़ा भी देने को राजी नहीं है। यकीन ना हो तो देख लीजिए कि स्त्री संसार को रंगों में बांट दिया गया है, वह भी एक कलर में। पिंक कलर यानी स्त्री संसार और शेष पर कब्जा रहेगा हमारा। सवाल यह है कि क्यों एक रंग उन्हे दे रहे हैं। उनका भी सब रंगों पर अधिकार है लेकिन पुरुषवादी मानसिकता इससे बाहर आने नहीं देगी। सुनीता विलियम भले ही अंतरिक्ष छू आए या कि पीटी उषा खेल में परचम लहरा ले, आर्थिक मामलों में पुरुषों को पीछे धकेल कर आगे बढ़ जाए या शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावी दखल हो, उन्हें नोटिस नहीं लिया जाएगा। उन्हें बस समाज एक मिसाल के तौर पेश करेगा लेकिन कभी ये कोशिश नहीं होगी कि समाज में आज के दौर की आइकन सुनीता, पी टी उषा, सुधा मूर्ति बना सके। 

लोकमाता देवी अहिल्या के बारे में सोचना भी बेमानी है, सावित्री बाई फूले, सरोजनी नायडू और पंडित विजय लक्ष्मी जी की याद ही नई पीढ़ी को नहीं है। दुनिया में शासन का डंका बजाने वाली इंदिरा गांधी इसलिए याद है क्योंकि उन्होंने इमर्जेंसी थोपा था लेकिन लोग भूल गए कि इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक माफी भी मांगी थी। मृदुभाषी सुषमा स्वराज हों या पंद्रह साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित राजनीतिक कारणों से स्मरण में हैं। हालांकि इनमें से किसी एक  नाम को एक रंग की जरूरत नहीं थी बल्कि अपने कौशल से उन्होंने रंगों का संसार सजा दिया था।

आज हम जिस दौर में हैं वहां ना स्वर्णकालिक इतिहास है और ना भविष्य रचने वाली कोई पीढ़ी। हैरानी है कि हर गली कूचे में स्त्री विमर्श हो रहा है लेकिन स्त्रियों के हक में क्या सुधार आया, यह कुछ दिखता नहीं है। अखबारों के पन्ने पलटते ही कलेजा मुंह में आ जाता है जब नवजात बच्चियों के साथ वीभत्स व्यवहार किया जाता है। हर घटना के बाद हम भूल जाते हैं कि इन नासुरों से निपटने की जवाबदारी हम सबकी है। कुछ कोशिशें हो रही होगी लेकिन यह सब नाकाफी है। बेटियों को सशक्त बनाने के लिए हमारे पास एक उपाय है, उन्हें सम्मानित कर दो। यह भी ठीक माना जा सकता है लेकिन उन्हें चुनकर जवाबदेही सौंपे तब बात कुछ बने। 

देवी अहिल्या लोकमाता ऐसी ही नहीं बनीं। समाज और ख़ासतौर पर स्त्री को सशक्त बनाने के उनके प्रयासों ने उन्हें लोकमाता का दर्ज दिया। अनेक अपमान सह कर स्त्री शिक्षा के लिए खड़ी होने वाली सावित्री देवी फुले का स्मरण करते हैं। इन्होंने अपने कार्यों से समाज में इंद्र धनुष तान दिया। एक स्त्री की शक्ति अपार है और इसलिए एक दिन उनके नाम करने से कोई भला नहीं होगा। पुरुषवादी सोच को सम्मान देने का दिखावा करना होता है तो कभी स्त्री को दुर्गा, तो कभी लक्ष्मी तो कभी सरस्वती बता कर वाहवाही लूट लेता है। सवाल यह है कि जा स्त्री लांछित होती है, अन्याय का शिकार होती है तब पुरुष समाज कहां खड़ा होता है। 

रील और सोशल मीडिया में उलझी नई पीढ़ी को रंगों में उलझाने के बजाय इतिहास से अवगत कराया जाए। प्राथमिक शिक्षा में हमारे समाज की महान स्त्री विभूतियों को पढ़ाया जाए। सांस्कृतिक कार्यक्रम में इन पर ही केंद्रित कार्यकम का निर्माण हो। बच्चों को आपस में समानता का भाव उत्पन्न किया जाए ताकि आगे कभी समाज स्त्री संसार को रंगों में ना बांट सके और स्त्री विमर्श के स्थान पर पुरुष विमर्श हो। यह बात जान लेना चाहिए कि आधा आसमान नहीं, पूरी सतरंगी दुनिया उनकी है और रहेगी।

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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