फिर तो मुश्किल हो जाएगा सीमाओं की निगरानी के लिए जवान ढुढ़ना !

 सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’

यार अपना भारत भी कमाल का देश का है । एक ओर जब पूरा देश दामिनी प्रकरण में उलझा था ठीक उसी वक्त पाक सैनिकों ने सीमा की सुरक्षा में मुस्तैद हमारे दो जवानों को बुरी तरह मार डाला । हैवानियत की हद तो तब हुई जब ये पता चला कि उनमें से एक जवान का धड़ सिर के बिना ही बरामद हुआ । क्या ये एक सामान्य मुद्दा है ? इन जवानों के प्राणोत्सर्ग के शोक में कितनों ने मोमबत्तियां जलाईं ? क्या ये बलात्कार प्रकरण से छोटा मुद्दा था? सरहदों पे तैनात जवानों के साथ पेश आई ये दुर्दांत घटना क्या मानवाधिकारों से परे है ? क्या सैनिकों के मानवाधिकार नहीं होते ? अगर होते हैं तो अब तक कहां सोये हैं मानवाधिकारों की दुहाई देने वाले ? ऐसे अनेकों प्रश्न हैं जिनके उत्तर अब तक अनुत्तरित हैं या यूं कहें कि कोई भी देने की जहमत नहीं उठाना चाहता । किंतु शुतुरमुर्ग की तरह सिर रेत में गाड़ लेने से प्रश्न हमारा पीछा नहीं छोड़ते ।

अभी कुछ दिनों पूर्व एक दुष्कर्म के मामले में आसमान को सर पर उठा लेने वालों की खामोशी अब खलने लगी है । भारत मां की रक्षा के लिए प्राणों की आहुती देने वाले इन जवानों के लिए डीडीए में फ्लैट,परमवीर चक्र,नकद ईनामों की घोषणाएं भी नहीं की जा रही हैं । हैरान हूं ये वाकया और ये राजनीतिक दोगलापन देखकर । अजीब है हमारा लोकतंत्र इस तंत्र में कसाब को दामाद बनाया जा सकता है लेकिन शहीदों के त्याग को मूल्यहीन समझा जाता है । बहरहाल अभी सिर्फ एक घटना की बात क्यों करें ऐसी अनेकों लगातार घटती जा रही हैं जिससे ये साबित होता है कि इस नुमाइशी तंत्र में जवानों का क्रम अक्सर ही सबके बाद आता है । इस घटना के आसपास घटी एक अन्य घटना में नक्सलियों ने मृत जवान के शव में विस्फोटक भर दिया था । क्या ये घटना हमारे लोकतंत्र को शर्मसार नहीं करती? काबिलेगौर है कि देश में आतंकियों और नक्सलियों की वकालत करने वाले तो हजारों मिल जाएंगे लेकिन जवानों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार पर टिप्पणी भी करने से गुरेज किया जाता है । वजह है हमारी दोमुंही सेक्यूलर परंपरा । मजे की बात है कि इसी माह हम अपना 65 वां सैन्य दिवस भी मना रहे हैं । ऐसे में सैनिकों के प्रति सरकार की जवाबदेही भलीभांती समझी जा सकती है ।

इन सारी चर्चाओं के बीच अगर सेक्यूलर जनों की बात न की जाए तो बात कुछ अधूरी लगती है । ध्यातव्य हो खुद को सेक्यूलर नं 1 एवं समाजवाद का ठेकेदार साबित करने वाले मुलायम के पुत्र फिलहाल उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री सरकार चला रहे हैं । दुर्भाग्य से शहीद लांस नायक हेमराज मथुरा से थे । ऐसे में घडि़याली आंसू बहाने के लिए ही सही हमारे युवा मुख्यमंत्री को आगे आना ही चाहीए था, मगर अफसोस अमर शहीद की अंतिम यात्रा अखिलेश जी तो दूर उनके सिपहसलारों ने भी आना मुनासिब नही समझा । हैरत की बात मौलवी मदरसों के छोटे कार्यक्रमों में भी खासे उत्साह से भाग लेने वाले मुलायम जी के सुपुत्र ने शव यात्रा से दूरी क्यों बनाई ? जवाब स्पष्ट ये अखिलेश जी वही मुख्यमंत्री हैं जिन्होनें कठमुल्लों के दबाव में अभी कुछ दिनों पूर्व ही उत्तर प्रदेश में आतंकियों पर चल रहे सभी केस वापस लेने का फैसला किया था । अब उनके इस फैसले से उनके चरित्र को तो बखूबी समझा जा सकता है ।जरा सोचिये देश की रक्षा के लिए अपना पुत्र और पति सौंपने मां एवं पत्नी पर बिना सिर की लाश देखकर क्या बीती होगी ? इन सबके अलावा प्रशासनिक उपेक्षा क्या सैनिक परिवारों का मनोबल तोड़ने की कोशिश नहीं है । ये कहानी तो थी हमारे सेक्यूलर समाज के युवा चेहरे की लेकिन राजनीति पर लगे इस कलंक को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने लांस नायक सुधीर सिंह के शव को बकायदा कंधा देकर धोया ।

इन सबके बावजूद केंद्र सरकार की पाक को दी गई नसीहत अब तो मजाक लगने लगी है । अंततः जैसा कि आसार था ब्रिेगेडियर स्तर की मीटिंग निरर्थक सिद्ध हुई । पाकिस्तान अब भी अपने रटे रटाये जवाब ही दोहरा रहा है कि उसका इस घटना से कोई लेना देना नहीं है । बहरहाल पाकिस्तान चाहे जो भी कहे इस पूरी घटना को मनमोहन सरकार की एक और नाकामी के तौर पर भी देखा सकता है । हांलाकि इस दिशा में थलसेनाध्यक्ष बिक्रम सिंह के बयान से थोड़ी राहत अवश्य मिली है । अपने बयान में श्री सिंह ने भारत सरकार को उसके कत्र्तव्य की याद दिलाते हुए कहा कि शहीद जवान का सिर वापस लाने की जिम्मेदारी भी सरकार की है । देखने वाली बात है कि इस दिशा में भारत सरकार की अग्रिम कार्रवाई क्या होगी ? अफसोस की बात है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए तो ये कत्तई नहीं लगता की सरकार इस दिशा में गंभीर कदम उठाएगी । सोचने वाली बात है कि कब तक हम पाक की बदनीयती का शिकार होकर वार्ता के असफल प्रयास करते रहेंगे ? जहां तक भारतीय सेना का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर हमारे पास की सर्वाधिक अनुशासित सेना है । अन्यथा अगर कहीं यहां भी पाक जैसे हालात होते निश्चित तौर पर हमारे लोकतंत्र के ढ़कोसले की इतिश्री हो चुकी होती । इन सबके बावजूद भी अगर देश का राजनीतिक दोगलेपन का अंत नही ंतो निश्चित तौर पर आने वाले समय में सीमाओं की निगरानी के लिए जवानों की खोज मुश्किल हो जाएगी । अंततः वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्यों को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि …..

बस्तियों से दूर शायद एक मकां होगा,वतन पे मरने वालों का यहां ना फिर निशां होगा !

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