धर्म-अध्यात्म

ये हैं हिंदुओं के वास्‍तविक दुश्‍मन

डॉ. राजेश कपूर

डॉ. मीणा जी ने जो मुद्दे उठाए हैं वे सारे तो ठीक से स्पष्ट नहीं होते पर जितने भी मुद्दे समझ आने वाले हैं, उन पर अपनी सम्मति प्रमाणों के आधार पर प्रकट करने का विनम्र प्रयास है. …

१. आर्य कहीं बाहर से आये थे, इसके बारे में एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता. पर वे भारत से सारे संसार में गए, इस पर विश्व भर के विद्वानों ने ढेरों प्रमाण दिए है. अनेक ग्रन्थ इस पर है. पाठक चाहेंगे तो एक छोटा सा लेख इस पर सप्रमाण प्रेषित करने में कोई कठिनाई नहीं. ख़ास कर डा.मीणा जी जैसे मित्रों को तो इन तथ्यों को ज़रूर जानना चाहिए.

२.हिन्दुओं के वास्तविक दुश्मन कौन हैं? कमाल है, यह भी कोई छुपा हुआ है. जो हर रोज़ हिन्दुओं को सता रहे है, मार रहे हैं. जो हिन्दुओं को मारने वालों को गले लगा कर पाल-पोस रहे है, उन्हें जेलों में भी वी.आई.पी. सुविधाएं दे रहे हैं. भारत के देशभक्तों की हत्याए कर रहे हैं. संसद पर व हमारे मंदिरों पर आक्रमण करने वालों को फांसी नहीं होने दे रहे. ये सब केवल हिंदुओं के नहीं, देश के शत्रु है. ……… देश को टुकड़ों में बांटने के लिए अगड़े, पिछड़े, अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, प्रांत, भाषा के आधार पर टुकड़ों में बांटने के षड्यंत्र कर रहे हैं; वे सब देश व समाज के शत्रु ही तो हैं. जो भारत में खतरनाक साबित हो चुकी परमाणु ऊर्जा तकनीक लगा रहे हैं, विदेशी बैंकों जमा देश के धन को वापिस लाने में रोड़े अटका रहे हैं, किसानों की ज़मीनें छीन कर मैगा कंपनियों को दे रहे है ; ये सब हमारे समाज के शत्रु हैं. …….. जिन लोगों ने अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया से लेकर मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, नागालेंड तक मूल संस्कृति वालों का सफाया कर दिया, ये सब भी तो देश व हिन्दू समाज के शत्रु है.

३. जिन दर्शन व धर्म ग्रंथों को विश्व भर के विचारकों व विद्वानों ने विश्व का सर्वोतम ज्ञान बतलाया, उनमें केवल कमियाँ देखने वाले, उन्हें विष भरा बतलाने वाले शत्रुओं की श्रेणी में ही तो आएंगे. … इसलिए मुझे नहीं लगता की डा. मीणा जी के कहे पर हिन्दू और अन्य अल्पसंख्यक विश्वास करेंगे, भरोसा करेंगे.

४. जहाँ तक बात है जाति व्यवस्था और मनु की ; तो इसके बारे में विश्व के अनेक विद्वानों का मत मीणा जी जैसे मित्रों से बिलकुल अलग है. वे लिखते है कि दुनिया में ईसाई क्रूसेडर जहां भी गए वहाँ की संस्कृति को समूल नष्ट कर दिया. पर भारत में ऐसा सैंकड़ों साल में भी नहीं हो सका (इस्लामी और मुस्लिम काल मिला कर). इसका एक मात्र कारण भारत की जाति व्यवस्था है. इस बारे में विद्वान लेखक प्रो. मधुसुदन जी (अमेरिका) शायद अधिक विस्तार से जानकारी दे सकें क्यूंकि ऐसे कुछ लेखक अमेरिकी है.

५. मैं अनेकों बार पहले भी निवेदन कर चुका हूँ कि यह पूरी तरह से असत्य है की भारत में अतीत काल में अस्पृश्यता थी. १८२० से १८३५ तक के एडम और मैकाले के सर्वेक्षणों से इसके ठोस प्रमाण मिलते हैं की भारत में डोम, नाइ, ब्राहमण, क्षत्रीय, चंडाल तक साथ मिलकर पाठशालाओं में पढ़ते, पढाते और रहते व खाते, पीते थे. जातियां तो थीं पर उनमें छुआ-छूत या किसी भी प्रकार का ऊंच-नीच का भाव नहीं था. श्री धर्मपाल जी ने ब्रिटेन के पुस्तकालयों में ३० साल तक अध्ययन करके ये सारे तथ्य ” दी ब्यूटीफुल ट्री ” नामक पुस्तक में विस्तार से दिए हैं. सर्वेक्षण रपटें व सन्दर्भ साफ़, साफ़ उधृत किये गए है…… विचार और खोज की बात तो यह है की मैकाले व उसके साथियों और उनके डा. मीणा जी जैसे मानस पुत्रों ने भारत के इस स्वरुप को कैसे विकृत किया, जातिवाद की आग लगा कर हिन्दू समाज ही नहीं सारे देश को दुर्बल बना दिया, समाज को टुकड़ों में बाँट दिया तो कसे यह सब किया ? कमाल तो यह है की ये सब किया हमारे हित व कल्याण के नाम पर. …. इतिहास के इस अविश्वसनीय लगने वाले तथ्यों को हमारे शत्रु या काले अँगरेज़ तो कभी भी जानने का प्रयास करेंगे नहीं, पर हर देशभक्त को इन तथ्यों को जानने का प्रयास करना चाहिए. जहां से हमारी जड़े खोदी गयी हैं , वहाँ तक तो जाना ही पडेगा.

पुनश्‍च:

एक ख़ास बात रह गयी. हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों और संस्कृति की आलोचना करने को उचित ठहराने की बात अनेकों बार सही ठहराने के कोशिश आप द्वारा की जा चुकी है. ताकि हम अपनी जड़ें स्वयं खोदते रहें और दूसरों द्वारा हमारे जड़ें खोदे जाने को गलत न कहें ? यही मतलब हुआ न ? … यदि ये आत्म आलोचना या स्व निंदा बड़ी उत्तम बात है तो मीना जी आपने यह उपदेश कभी मुस्लिम बंधुओं को दिया ? अनेक सम्प्रदायों में बनते हुए ईसाई मित्रों को ये परामर्श दिया ? नहीं न ? तो फिर ये आत्म निंदा का उपदेश, ये हीन भावना बढ़ने व जगाने वाला उपदेश हिन्दू समाज के लिए ही क्यूँ है ? यही चाहते हैं न आप लोग कि आत्म आलोचना के नाम पर हिन्दू समाज के ग्रंथों, परम्पराओं व संस्कृति की इतनी दुर्दशा की जाये कि कोई भी हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहलाने में शर्म महसूस करे. मुझे तो स्पष्ट लगता है कि आपके अधिकांश लेखों का छद्म उद्देश्य यही है. एक उद्देश्य होता है आप सरीखों का कि समाज को अधिक से अधिक टुकड़ों में कैसे बांटा जाए. आपके सारे लेखों को यदि एकत्रित कर के देखा जाए तो कोई भी यह अर्थ सरलता से निकाल लेगा. यदि आप अल्प संख्यकों के सचमुच हित चिन्तक हैं तो बतलाईये कि आज तक आपने किस किस के कोई काम करवाए जिनसे उन अल्प संख्यकों का कोई भला हुआ हो ? आखिर इतनी बड़ी संस्था है न आप की जिसके आप प्रमुख हैं . क्या काम किये हैं आप लोगों ने अभीतक जो समाज के हित में या भारत देश के हित में हों ? उचित समझें तो ज़रा पाठकों को बतलाने की कृपा करें. .. महोदय आप इतना कड़वा, इतना अनर्गल व अनुचित लेखन करते हैं, इतनी कुटिलता होती है, इतने गुप्त प्रहार होते हैं कि न चाहते हुए भी कुछ कठोर भाषा का प्रयोग करना ही पड़ जाता है….. अस्तु आपका शुभचिंतक