लेख

यही है शहर के वरिष्ठ नागरिकों की आपबीती

—विनय कुमार विनायक

कभी हमारी आवाज की तूती बोलती थी

साठ के बाद हमारी बोलती बंद हो गई

अब बोलना चाहता हूं खुलकर जब कभी

कि धर्म पत्नी जुबाँ पर ताला लगा देती

घिघ्घी बंध जाती, समझ में नहीं आती!

आखिर सोचता हूं किसके निकट जाकर

बात करूं अभिव्यक्ति की आजादी पर

बेटे से बोलने के पूर्व वधू से डर जाता हूं

बेटी से बतियाते दामाद से भय खाता हूं!

बरबस याद आता है बचपन का संगी साथी

अकसर याद आते दफ्तर के दोस्त सहकर्मी

जिनके साथ में ठहाका लगाता था खुलकर

उनके घर गए अरसे बीते अब सकपकाता हूं!

सोचता हूं उनके भी तो बाल बच्चे बड़े होके,

क्या उन्हें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से

रोक नहीं रहे होंगे? नहीं भी रोके,  फिर भी

क्या दो प्याली चाय के लिए पहले की तरह

अपनी बहू, घरवाली से फर्माइश कर पाएंगे?

क्या उन्हें बोलने पर कोहनी नहीं मारती होगी

आंखों-आंखों में इशारा नहीं करती होगी घरनी?

ऐसे ही उम्र गुजर जाने से सबकी छिन जाती

अपने घर-परिवार में अभिव्यक्ति की आजादी!

ओ साठ साल उम्र पार के वरिष्ठ नागरिकों!

किस संविधान के बलबूते पर हासिल करोगे

अपनी खोई हुई अभिव्यक्ति की आजादी को?

साठ के बाद दफ्तर से बेदखल कर दिए गए,

घर के किसी कोने बरामदे में चुपके दुबके पड़े

तुम किस हाल में हो किससे दरयाफ्त करोगे?

तुम्हें घर के बाहर दफ्तर में जो आदत पड़ी थी

आठ घंटे पहर ऊंची आवाज में बातें करने की

फोन पर, वो अब धीमी हो गई मिमियाने जैसी,

पत्नी कहती आदत सुधारो ये दफ्तर नहीं है जी!

गांव की गली, पड़ोसी का मोखा,बरगद की छाँव,

अब नहीं, अब तो टुकुर-टुकुर ताकने की नियति,

किसी को फुर्सत नहीं,अब बुजुर्ग की जरुरत नहीं,

यही है शहर के वरिष्ठ नागरिकों की आपबीती!

–विनय कुमार विनायक