ये तुम्हारी ज़िंदगी है , तुम जियो भरपूर इसको।

युवा पीढ़ी के प्रति —
परिवर्तन

                         *
  फूल  बन  सुरभित  करो , उपवन  ये  सारा,
  तुम सदा आगे बढ़ो, बनकर परस्पर तुम सहारा।
  चकित सा रह जाए जग ये,देख दृढ़-निश्चय तुम्हारा,
  सफलता  तव  चरण चूमे, बढ़े  नित गौरव हमारा ।।
                             *
   ज़िंदगी हम जी चुके हैं, उम्र भी अब ढल गयी है ,
   हो गये अनुभव  पुराने, बुद्धि  भी  तो खो गयी है ।
   हम  किसी का मार्गदर्शन , कर नहीं सकते यहाँ,
   है  ज़माना तीव्र  गति  से, बढ़ गया जाने कहाँ ?
                             *
   पीढ़ियों  के  बीच  में  हैं, दूरियाँ  कितनी  बनीं ,
   मानसिकता भिन्न है  और  विवशताएँ  भी  घनी।
   नये युग  की  मान्यताओं में , सभी बँध से गये हैं,
   हम  लिये  संस्कृति पुरानी, मूक-दृष्टा रह गये हैं।।
                            *
   उभरती  सी  नयी  पीढ़ी , बहुत  आगे  जाएगी ,
   ढल  रही  पीढ़ी  पुरानी, देखती  रह  जाएगी ।
   जर्जरित  सी  डाल है वह, टूटकर  गिर  जाएगी,
   शाम  है  ये  ज़िंदगी  की , रात  में  सो जाएगी।।
                            *
   पीढ़ियों का द्वन्द्व  तो ये , सदा से चलता रहा है ,
  बिखरते से वृद्ध मन को , समय ये छलता रहा है।
  सृष्टि का ये क्रम सुनिश्चित,आदि से चलता रहा है,
  और हर युग में यही जग, इसी  में  ढलता  रहा है ।।
                     ***************
                                   — शकुन्तला बहादुर
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शकुन्तला बहादुर
भारत में उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में जन्मी शकुन्तला बहादुर लखनऊ विश्वविद्यालय तथा उसके महिला परास्नातक महाविद्यालय में ३७वर्षों तक संस्कृतप्रवक्ता,विभागाध्यक्षा रहकर प्राचार्या पद से अवकाशप्राप्त । इसी बीच जर्मनी के ट्यूबिंगेन विश्वविद्यालय में जर्मन एकेडेमिक एक्सचेंज सर्विस की फ़ेलोशिप पर जर्मनी में दो वर्षों तक शोधकार्य एवं वहीं हिन्दी,संस्कृत का शिक्षण भी। यूरोप एवं अमेरिका की साहित्यिक गोष्ठियों में प्रतिभागिता । अभी तक दो काव्य कृतियाँ, तीन गद्य की( ललित निबन्ध, संस्मरण)पुस्तकें प्रकाशित। भारत एवं अमेरिका की विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ एवं लेख प्रकाशित । दोनों देशों की प्रमुख हिन्दी एवं संस्कृत की संस्थाओं से सम्बद्ध । सम्प्रति विगत १८ वर्षों से कैलिफ़ोर्निया में निवास ।

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