अल्पसंख्यकवाद से खतरा

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क्या अल्पसंख्यकवाद का संकट सचमुच इतना गम्भीर है कि निवर्तमान सरसंघचालक कुप.सी. सुदर्शन ने देश के संविधान, देश की चुनाव प्रणाली और देश के जनमानस को बदलने तक का आह्वान कर दिया? पड़ताल कर रहें हैं राष्ट्रवादी लेखक और अंतराष्ट्रीय चितंक संस्थान ऑब्ज़रवर रिसर्च फाउण्डेशन के सीनियर मीडिया रिसर्चर शाहिद रहीम

आश्चर्य का विषय है कि भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों की सुविधा और उनके तुष्टिकरण को लक्ष्य करके कानून तो बनाए गए हैं, लेकिन ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिभाषा नहीं लिखी गई है, न भारत में इस शब्द के उपयोग का अभिप्राय स्पष्ट किया गया है। यही कारण है कि इस शब्द का प्रयोग भ्रम ज्यादा फैलाता है, और समस्याओं के समाधान में सक्षम नहीं है।” यह बात जब हिमाचल रिसर्च इंस्टीच्युट और संस्कृति समन्वय संस्थान, जयपुर के संयुक्त तत्वाधान में, ‘भारत में अल्पसंख्यक: संवैधानिक, जनसांख्यिकीय वस सामाजिक पक्ष’ ‘विषय पर चण्डीगढ़ में 26-28 जून 2009 को आयोजित, राष्ट्रीय संगोष्‍ठी में उभरी, तो समस्त देश से आए 150 से ज्यादा बुद्धिजीवियों का समूह जैसे अवाक रह गया था। शायद इसलिए कि इससे पहले किसी ने इस विषय पर गम्भीर चिंतन नहीं किया था।’

हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय के प्रोफेसर डॉ कुल्दीप चंद अग्निहोत्री द्वारा विषय प्रवर्तन के बाद, जब राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इन्द्रेश कुमार ने इस विचार गोष्‍ठी का उद्धाटन करते हुए अपने उद्भोधन में यह कहा कि-‘भारत में आ बसे यहूदी और इरानी-पारसी अल्पसंख्यक माने जा सकते हैं, लेकिन कसौटि पर जो अल्पसंख्यक सिध्द नहीं होते वह मजहबी कारणों से विषेश अधिकारों की मांग कर रहे हैं, यद्यपि उन्हें पूजा पध्दति अलग होने के कारण ही अल्पसंख्यक माना जाता है। राजनीतिक दल अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए इस प्रवृति को बढ़ावा दे रहे हैं, जो गलत है। इस विषय में व्यापक बौद्धिक बहस होनी चाहिए, ताकि खतरे टाले जो सके” तो यह बात स्पष्ट हो गई कि भारत में ‘अल्पसंख्यकवाद’ के सभी स्वरूपों से नहीं, बल्कि धार्मिक ‘अल्पसंख्यकवाद’ से ख़तरा बढ़ा है, इसलिए इसकी समाप्ति ज़रूरी है।

तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठि में पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक पूरण चंद डोगरा, राष्ट्रीय सिख संगत के अध्यक्ष जी.एस.गिल, शिक्षा उत्‍थान न्यास के संयोजक अतुल भाई कोठारी, अजमेर विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति मोहन लाल छीपा, हिमाचल के पूर्व प्रांतीय संघचालक पंडित जगन्नाथ शर्मा, राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष जसवीर सिंह, संघ प्रचारक एवं उत्तर-पूर्व सांस्कृतिक मामलों के विशेषज्ञ राम प्रसाद, इस्लामी विद्वान शाहिद रहीम, पांचजन्य अख़बार के संपादक बलदेव भाई शर्मा और लेखक मुजफ्फर हुसैन आदि कोई 18 लोगों ने विस्तार से इस विषय पर चर्चा की, और मुख्य रूप से तीन बातें उभर कर सामने आई:-

1- ”अल्पसंख्यकवाद अवधारणा ब्रिटिश साम्राज्य की देन है, जिससे देश का विभाजन हुआ, और यह अवधारणा आज भी सरकारी संरक्षण में यथावत लागू है, जिसका परिणाम है कि भारत के मैदानी इलाकों में बाग्लादेशी मुसलमानों की बढ़ती हुई संख्या के तुष्टिकरण और प्राचीन जनजातियों के मतान्तरण से पर्वतीय क्षेत्रों के इसाईकरण को मिली खुली छूट से देश की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो गया है।”

2- ” सच्चर समिति एवं रंगनाथ मिश्रा आयोग ने केवल मुसलमानों और ईसाईयों को अल्पसंख्यक माना है, और अल्पसंख्यक विकास की सारी ज़िम्मेदारी कट्टरपंथियों को हाथ में सौंपी जा रही है। मुख्यधारा के मुसलामानों की उपेक्षा हो रही है, जिसके कारण कट्टरपंथियों के सरंक्षण में इस्लामी अतिवाद पनप रहा है जिससे मुस्लिम समुदाय के तालिबानीकरण और देश के पुर्नविभाजन का ख़तरा पैदा हो सकता है। मनमोहन सरकार अल्पसंख्यकवाद में गिरफ्तार हो कर देश की हिन्दु अस्मिता को नाकारने का काम कर रही है।”

तीसरी बात राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के निवर्तमान सरसंघचालक माननीय सुदर्शन जी ने अपने समापन भाषण में स्पष्ट की:-

3- ”अल्पसंख्यक अवधारणा के कारण भारत के सामने अनेक संकट खड़े हो गए हैं। अल्पसंख्यक तुष्टि या विकास के नाम पर एक या दो समूह विशेष को सुविधाएं देने की राजनीति पुन: धार्मिक अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा दे रही है, जो निश्चित ही एक अन्य विभाजन का ख़तरा बन सकता है, इसलिए इसे बदलना होगा, यदि इसके लिए संविधान बदलना पड़े, चुनाव प्रणाली बदलनी पडे या जनमानस को बदलना पड़े तो वह भी बदले।”

विषय समाप्त करते हुए उन्होंने इस मुद्दे पर विचार के लिए समस्त भारत के बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया और दो नीतियां निर्धारित की। एक तो यह कि, ” ‘हिन्दुत्व’ को मज़हब का प्रर्याय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह भौगोलिक प्रतीक है, देसरे यह कि इस मुद्दे पर विचार करने के लिए राजनीति स्वार्थो से उपर उठने की ज़रूरत होगी।”

बहस की ज़रूरत

संघ ने इस मुद्दे की प्रसंगिकता पर तो मोहर लगा दी है , लेकिन किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले बुध्दिजीवियों के विचार आमंत्रित किए हैं। बौद्ध, जैन और सिख समुदाय इस मुद्दे पर संघ के साथ खड़े हैं। ईसाई और मुसलमानों की तर्कसंगत बौध्दिक प्रतिक्रिया का इंतजार है।

यद्यपि इस विषय पर एक वर्ष पहले ही इस मुद्दे पर बहस शुरू हो जानी चाहिए थी, जब मुम्बई के निवासी वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री मुजफ्फर हुसैन ने इस विषय पर ‘खतरे अल्पसंख्यकवाद के’ नामक पुस्तक लिखी थी और दिल्ली के प्रकाशन ने 2008 ई में इसका प्रकाशन किया था। अंग्रेजी में यह किताब मार्च 2004 में ही छप चुकी थी। ‘इन्साइट इन्टू माइनॉरिटिज्म’ संयुक्त राष्ट्र ने भी इस विषय के महत्व को समझा और अपने बुद्धिजीवियों के अध्यन हेतु किताब की 1000 प्रतियां खरीदीं। तात्पर्य यह कि अब इस विषय को न तो अंदेखा किया जा सकता है, न इसे नकारने की गुंहजाइश है।

अवधारणा और लक्ष्य

यह बताने की ज़रूरत नहीं, कि 100 में 1 से 49 तक अल्पसंख्यक होते हैं। इन्साइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइसेज़, मैकमिलन के अनुसार-”अल्पसंख्यक वह समूह है, जो उसी समाज में रहने वाले दूसरे समूह से प्रजाति, राष्ट्रीयता, धर्म और भाषा की दृष्टि से भिन्न यथा एक दूसरे के प्रति नकारात्मक दृष्टि रखते है। सत्ता की दृष्टि से दोनों की स्थितियां अलग-अलग हैं और बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यक से भेदभावपूर्ण व्यवहार करता है।”

”भारत के संविधान के धारा 25,26,27,28,29 और 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा भाषा एवं धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों में निहित है।”

शब्द जब अपने अर्थ में व्यक्ति से समूह की ओर, संकीर्णता से व्यापकता की ओर बढ़ जाए, तो केवल विषय नहीं रहता अवधारणा का रूप ले लेता है और यह भी सच है कि अवधारणाएं बदली तो जा सकतीं हैं, लेकिन मिटाई नहीं जा सकती क्योंकि अवधारणाएं मानव समाज के कल्याण का मार्ग होतीं हैं। लेकिन जब वहीं अवधारणा व्यक्ति, समूह या समाज के लिए अभिशाप बनने लगे तो उसका बदले जाना ही ज़रूरी होता है बशर्ते की वांछित परिवर्तन सहिष्णुता और शांति भंग करने का कारण न बने।

‘अल्पसंख्यक’ ऐसे ही अवधारणा है’। कुछ राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए इसका उपयोग कर लेते हैं, कुछ नहीं कर पाते। भारत में इसका प्रतिपादन मुस्लिम असंतोष को उभरने से रोकता है। तो पाकिस्तान में इसकी उपेक्षा हिन्दू असंतोष को इतना उभारती है उनका क्रन्दन भारत में सुनाई देता है मुख्यतया इसके तीन रूप हैं। अनुवांशिक, धार्मिक और भाषायी। हिन्दू कोड बिल प्रस्तुत करते हुए बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर ने केवल इसके धार्मिक स्वरूप की व्याख्या की थी-”जो धर्म से बाहर आए हैं, और जो भारत के सांस्कृतिक प्रवाह से अलग हैं, केवल उन्हीं को अल्पसंख्यक श्रेणी में रखा जा सकता है।” यही कारण था कि उन्होंने जैन, बौध्द और सिखों को हिन्दु समाज से अलग नहीं माना। ऐसी अवस्था में जब सिखों को अल्पसंख्यक आयोग का सदस्य बनाया गया था, तो उन्हें सदस्यता स्वीकृति से इनकार करना चाहिए था, परंतु ऐसा नहीं हो सका। इसी प्रकार मध्यप्रदेश में जब मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ‘जैन समाज’ को अल्पसंख्यक घोषित किया तो दूसरे प्रांतों के जन समूह भी इस मांग को लेकर खड़े हो गए, किसी ने इन्कार नहीं किया।

अल्पसंख्यकवाद के भाषिक स्वरूप पर नज़र डालें, तो भारत में तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, बांग्ला, असमिया, कैराली और मराठी, गुजराती आदि देश की प्राचीन जनपदिए भाषाओं का समेकित विकास क्यों नहीं हो सका ?

क्या यह अल्पसंख्यकावाद की भाषिक विडम्बना नहीं है, कि ऐसे भिन्न भाषायी क्षेत्रों में राष्ट्र भाषा हिन्दी की ही उपेक्षा हुयी और आज भी चैन्नई, गोवा, असम, अरूणाचल आदि भारतीय प्रांतों में हिन्दी भाषा-भाषियों का सार्वजनिक विस्तार किया जाता है? क्या हिन्दी की उपेक्षा देश और राष्ट्र की उपेक्षा नहीं है ?

अल्पसंख्यकवाद का महत्वपूर्ण स्वरूप, अनुवांशिक है, जिसके आधार पर भारत की पिछड़ी ज़ातियों को और आदिवासियों को प्रशासन ने अनुसूचित किया और अबाद गति से उनका विकास जारी है। यदि यह अनुवांशिक अल्पसंख्यकवाद न होता तो दक्षिण अफ्रिका में नेलसन् मंडेला ने आजादी की जंग हार दी होती। रंग भेद आंदोलन की कामयाबी भी अल्पसंख्यकवाद पर ही टिकी है। अमेरिका में बाराक हुसैन ओबामा का राष्ट्रपति बन जाना वास्तव में अनुवांशिक अल्पसंख्यकवाद की विजय है।

वैश्विक धरातल पर अल्पसंख्यकवाद मानव कल्याण का आधार रहा है। यह मानवाधिकारों की रक्षा के लिए समाज और चौकीदार के डंडे और स्कूल मास्टर की छड़ी जैसी है अब अगर कोई इसका उपयोग अनुशासन बनाए रखने की बजाए राहगीरों को लूटने और छात्रों से लंच बॉक्स छीनने के लिए करे, यह चौधरी बनने के लिए अपने ही भाई पर सिर दे मारे!, तो दोष र्’कत्ता’ का है, छड़ी या डंडे का नहीं।

मेरी समझ से अनुवांशिक और भाषिक अल्पसंख्यकवाद भारत की प्राचीन वैश्विक अस्मिता का मूल मेरूदंड है। इसी आधार पर सैंकड़ों की संख्या में गुजराती, मराठी, मद्रासी, आदि समुदायों का संयुक्त और समान अधिकार सुरक्षित हो सका, और भाषाओं का अस्तित्व बच गया, अन्यथा एकता में समाहित तमात विविधताएं विलीन हो गई होतीं।

परंतु यह भी सच है, कि धार्मिक अल्पसंख्यकवाद ने भारत के वैदिक कालीन भूगोल को खंडित किया है। पाकिस्तान, बंगलादेश, अफ़गानिस्तान, तीनों देश विगत 1000 वर्ष पहले तक भारत का अंश थे, और धार्मिक अल्पसंख्यकवाद के कारण ही विभाजित हुए। आज उन तीनों देशों में, ‘संगठित इस्लामीकरण आन्दोलन’, यदि दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा सर दर्द है, तो भारत के लिए भारत की 25 करोड़ मुस्लिम आबादी ‘संगठित इस्लामीकरण आन्दोलन’ से प्रभावित हो सकती हैं, क्योंकि अल्पसंख्यक विकास की सारी राशि कट्टरपंथी मुल्ला मोलवी के पास जा रही है, वे इस राशि का सद उपयोग कर पाएंगे, संदेह है ‘इस्लामीकरण’ में निवेश करने लगे ? तो भारतीय अस्मिता का क्या होगा? शांति और सुरक्षा का क्या होगा? ऐसे ही कई सवाल हैं, जो धीरे धीरे सामने आएगें, और हमें जवाब के लिए तैयार रहना है, भारत में वैश्विक धरातल पर अल्पसंख्यकवाद के घातक स्वरूप पर प्रतिबंध के लिए।

12 COMMENTS

  1. मेरी दृष्टिमे एक सुझाव, जो विषयसे कुछ संबंध रखता है, प्रस्तुत करता हूं।सामुहिक चर्चा और विचारणा के लिए।
    (१) जिस समाजने भारतमे कुछ शतक (६+/-) न्यूनाधिक शतक तक शासन किया, वो भी बहुसंख्यकोंपर जझि़या नामक कर लगाकर,और अन्य अनगिनत और अमानुषी,अवर्णनीय अत्याचार करते हुए,
    (२) अंग्रेजी शासन (डेढसौ वर्ष) ने भी उस समाजसे, बहुसंख्यकोंकी अपेक्षा, विशेष हितकारी और पक्षपाती व्यवहार ही किया। वे उनके स्नेह भाजन हि बन कर रहा। ( यह मान्यताभी प्रवर्त मान निश्चित है।)
    (३)—तो फिर आज, किस अन्यायसे, उऋण होनेके लिए, उसी शतकोंसे आहत और पीडित, बहुसंख्यक समाज द्वारा, आज उसी अनुग्रहित और परितुष्टित समाजको तुष्टिकारक,अतिरिक्त अधिकार दिए जाए? क्या बहुसंख्यक समाज किसी और अन्यायके लिए उत्तरदायी था, या है? जो शतकोंसे देते आया, उसने और देतेही रहना चाहिए?
    {वास्तवमे आहत समाज को विशेष सुविधाए देना अधिक तर्क संगत था}–मै इसकी भी याचना नही करता। न ऐसा करनेसे हम एक समर्थ राष्ट्र के रूपमे खडे हो सकते हैं।
    (४)समान अधिकारोंका विरोध नहीं है। वास्तवमे यही बात बहुसंख्यकोंके असन्तुष्टि(Discontent) का कारण है। ऐसा मै मानता हूं।
    और अंततोगत्वा यही बात हमे और विभाजित कर सकनेकी क्षमता रखती है।इस बिंदूको केवल सभीके सामने रखनेके उद्देशसे लिखा गया है, कोई द्वेषसे प्रेरित होकर नहीं। मै तो मानता हूं,कि “सभी नागरिकोंको समानता के आधारपर देश चुटकीमे एक होकर खडा होगा,सामर्थ्यवान होगा। किसीके मनमे, दुसरे समाजको ज्यादा मिला, और मुझे कम, ऐसी असंतुष्टिका प्रश्न नही रहेगा। रही बात, सचमुचमे लाभसे वंचित बंधुओंकी। उन बंधुओंके लिए, आर्थिक आधारपर विशेष सुविधाएं सोची जाए । उसमे भी गडबडी(जलदी) ना की जाए। दूर दर्शिता, और भविष्यका पूरा विचार, और चिंतन,करके आगे बढें। फिरसे मुझे दिन दयालजी के लिखे हुए (शायद एकात्म मानववाद के हि व्यावहारिक पहलुपर वो चिंतनात्मक लेख था) लेखका स्मरण हो रहा है।

  2. Who is in Minority, than other according to linguistic, cultural,Ethinic,Relegious or Social difference have right to live with each other under Peacefull and happy environment.No person or Community having strength than other could be humiliate, weeakened, or expoiled any of the person amongst the human being over the earth maddened by the One God.

    This is human right factors and have legetimised in all the country vize constitutions to protect peoples living in dissatisfatory situation over the Glob. If any of the person or Community deny to obey the ethics would not be count as person of civilised society.
    Any of the ISM, whatever you call it Socialism, Communism, or Islamism should be develop towards maintaining Humanity, or it should be end without discuss.Any of the ISM have no power to smash other ISM, niether it would be possible.So go ahead towards maintain Peace, and you are free to do any thing to maintain Peace amngst our social gathering, situated any where or in any of the dimention.
    Thanks and regard
    Shahid Raheem, ORF

  3. यह एक बहुत ही विचारणीय मुद्दा है जिस पर गंभीर चिन्तन जरुरी है। अल्पसंख्यवाद की समस्या हमारे देश में जरुरत से ज्यादा है जबकि हमारे देश में लगभग सभी अल्पसंख्यक समुदाओं को अपने अधिकरों की पूरी स्वतंत्रता है (न सिर्फ आज से बल्कि सैंकड़ों सालों से अन्यथा आज हमादे देश में इतने समुदाय होते ही नहीं)। इस शब्द से किसी आम अल्पसंख्यक को कभी कुछ भी फायदा नहीं मिलता बल्कि नेता और सत्ताधारी ही फायदा उठाते हैं। किन्तु हमारे देश में सरकार तो संख्या पर चलती है जिसकी कीमत……………….. एक गरीब भूखों रहकर चुंकाता है।

  4. First thanks for a Good Article but I think a writer of your stature should not mention any data which can be questioned though first you should mention the authenticated Data and after that in bracket you may mention what you think.

    The same situation may be about persons of other religion and thus the figures of total population of India is also need to change. In these circumstances, mention of figures of any community in percentage is a correct way.

    Please take it into a positive way not otherwise.

    Satish

  5. वास्‍तव मे आज अल्‍पसंख्‍यकवाद देश की एक प्रमुख समस्‍या बन गई है। अल्‍पसंख्‍यक राष्‍ट्र की मुख्‍यधारा में जुडे, इस समुदाय के लोग शिक्षित हो, इन्‍हें रोजगार मिले, इसके लिए कोई प्रयास नहीं हो रहे है, अलबत्‍ता इनके वोट को हथियाने के लिए लोग राष्‍ट्रहित से भी समझौता करने से नहीं हिचकते है। शाहिदजी जैसे राष्‍ट्रवादी लेखक धन्‍यवाद के पात्र हैं जो अदम्‍य साहस का परिचय देते हुए हमारे सामने सच परोसते हैं।

  6. Dear Satish Mudgal
    There are Real counting of Muslim population in India is only 13 crore.According to recent Census this figure is recorded in Government Population register. However it is another question of That Is this DATA is true? some of the Muslims clames that these Data is untrue, Because the Census workers have not visited door to door in Muslim Populated areas, and have filled-up the Census forms, in verbal way, even without confirmation of the what population has living in such area.According to my Own experience it is true, because a Known Family was residing at their native Place, Chandwara, Muzaffarpur, Bihar,with their ten of faimily members during the Census 2001,But there are no name out of ten has registered in that Census list of Bihar in that District Muzaffarpur.It is not a case of one district, but it is a case of about 50,000 muslim areas have not registered the true population residuing in their areas.Now, think over it that, If any one of Pakistani will have to come to reside in those areas, have not registered, how could you underlined them, and identified to outs fropm the xzone, or how could you put them behind the bar?
    Please think,
    Thanks and regard
    Shahid Raheem, ORF
    September 4, 2009

  7. Dear Md. Umer Kairanvi Saheb,
    From which book you read the population of Muslim in India is 10 Crores.
    Oh! NO, you are not reading but you are listening from somewhere else surely that is not India and only this is the Unfortunate One for India and nothing else.
    Satish

  8. यह कहां के आंकडे प्रस्‍तुत किये जा रहे हैं, RSS के दफतर से या सच्‍चर कमेटी की रिपोर्टों से छाती फूली जा रही है यह आंकडे देख कर, 25 करोड और फिर लोग कहते हैं 10 करोड वाले देश में चले जाओ जिसको स्‍वयं जरूरत है, रहीम साहब आप रोशनी डालें इन आंकडों पर अन्‍यथा हम तो इतनी संख्‍या देखकर पागल होजायेंगे, मेरे कानों तक तो 10 करोड से अधिक आवाज आइ नहीं शायद इसलिये भी नहीं बताई जाती कि हमें अपनी संख्‍या पता लग गई तो फिर पता नहीं किया किया बताना पड जायेगा,

  9. Dear Sahid Rahim,

    First I want to know that from where the population of Muslim in India taken as about 25 Crores. as per Census of India 2001 the figures comes only less than 14 Crores which may be increased @ 2.5 Per Thousand Per Year and may go in the year 2009 only upto 16 to 17 Crores. If there is a mistake in Data about 50% then how we can say that we are going to discuss truely and on the correct way.

    Census-2001
    Religious Composition Population * (%)
    Hindus 827,578,868 80.5
    Muslims 138,188,240 13.4
    Total * 1,028,610,328 100.0

  10. हिन्‍दुस्‍तान को अल्पसंख्य से नहीं अल्पसंख्यक वाद से खतरा है, आप बहुत अच्‍छा हिखते हैं, इस लेख से मैं अल्पसंख्यक को काफी अच्‍छी तरह से समझ सका, इसी तरह हिन्‍दुत्‍व को भी समझा दें, यह लोग तो हिन्‍दुत्‍व के मामले में बस उलझा रहे हैं, हर 30 या 40 साल बाद इसकी परिभाषा बदल देते हैं कहीं किसी लेख से आसानी से समझ सके तो उसका लिंक दें आभारी हूंगा,

    • Dear Mr. Kairanvi
      I have seen your comments. it is good for the other in new generation. the real population data of Indian Muslims is not less than 25 Cores. There are census form has been filluped in fake way during School holy day hours by the teachers. the census workers is not devoted to the work, because no Census workers has paid satisfactory. so there is real Censs work have turned into fake scenses work.
      Thanks and regards
      Shahid Raheem, ORF

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