चुनाव

धमकियों के खिलाफ मतदाता

संदर्भः- जम्मू-कश्मीर व झारखण्ड में चुनाव

प्रमोद भार्गव

 

आतंकवाद से ग्रस्त जम्मू-कश्मीर और नक्सली हिंसा का संत्रास झेल रहे झारखण्ड में विधानसभा के पहले चरण में रिकाॅर्ड तोड़ हुआ मतदान लोकतंत्र के विरोधियों के गाल पर करारा तमाचा है। खून जमा देने वाली ठंड के बावजूद जम्मू-कश्मीर में 71 फीसदी मतदान होना इस बात का शुभ संकेत है कि कश्मीरी अवाम भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक परंपरा पर अटूट विश्वास रही है। इसी तरह नक्सल प्रभावित झारखण्ड में मतदाता ने 62 प्रतिशत मतदान करके नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए साफ कर दिया है कि देश के नागरिकों को हिंसा व रक्तपात से संचालित गतिविधियों पर कतई भरोसा नहीं है। यह भारी मतदान तब हुआ है, जब दोनों राज्यों में कुछ अलगाववादी व राष्ट्रघाती संगठनों ने जनता से चुनाव बहिष्कार की अपील की थी। लेकिन चाक-चौबंद पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों की कड़ी सुरक्षा में मतदाताओं ने बेखौफ मतदान करके जता दिया है कि दोनों राज्यों में परिवर्तन की बयार चल रही है।

पिछले कुछ सालों में आई राजनैतिक जागरुकता का ही परिणाम है कि देश में होने वाले हरेक चुनाव में मतदाता अपने दायित्व-निर्वाह में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है। वरना, अब से करीब दो-ढाई दशक पहले तक एकाध दक्षिणी राज्य को छोड़कर शेष राज्यों में मतदान फीका ही रहता था। जम्मू-कश्मीर के आतंक प्रभावित क्षेत्रों में तो बमुश्किल 15 से 20 प्रतिशत मतदान संभव हो पाता था। युवा और कुलीन मतदाता भी कमोबेश मतदान के प्रति उदासीन दिखाई देता था। लेकिन इधर चुनाव आयोग द्वारा निरंतर चलाए जा रहे मतदाता जागरुकता अभियान ने जहां मतदाता को कत्र्तव्य पालन के प्रति सचेत किया, वहीं मीडिया ने मतदाता को केंद्र तक पहुंचाने में उत्प्रेरक की अहम् भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चलाए सुशासन और विकास के फंडे ने भी मतदान के पक्ष में माहौल बनाने का उल्लेखनीय काम किया है। इन दोनों राज्यों में मतदान का प्रतिशत बढ़ने की एक वजह यह भी रही है, इसीलिए इन दोनों राज्यों में केसरिया रंग का असर कुछ ज्यादा ही गहरा दिखाई दे रहा है। नतीजतन घाटी की सियासत भी बदली-बदली नजर आ रही है।

आंतक प्रभावित कश्मीर में एक समय ‘जिस कश्मीर को खून से सींचा है, वह कश्मीर हमारा है’ नारा गूंजा करता था, लेकिन अब हालात बदले हैं और घाटी में ‘न दूरी है न खाई है, मोदी हमारा भाई है, नारे का शंखनाद हो रहा है। बदलाव की यह नारा हिंदू संगठनों के कर्ताधर्ता या विस्थापित कश्मीरी पंडित नहीं बल्कि देवबंद के जमात-ए-उलेमा हिंद के वे लोग लगा रहे हैं, जो कश्मीर में सौहार्द व समरसता का वाजावरण चाहते हैं। इसलिए अब घाटी में धारा -370 की चिंता करने की बजाय लोग ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक फिजां में केसर घोलकर जो सियासी कहवा तैयार कर रहे हैं, उसमें सूफी-संतों की समन्यवादी वाणियों की महक का असर दिखाई दे रहा है। इसी वजह से यह उम्मीद में की जा रही है कि इस बार घाटी में कहवा रंग और स्वाद में केसरिया रहेगा।

दरअसल इस चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने कुछ ऐसी रणनीति चली है कि या तो अलगाववादियों के हौसले पूरी तरह पष्त हो गए हैं या वे असमंजस की ऐसी स्थिति में हैं। प्रभावशाली अलगाववादी नेता रहे सज्जाद लोन ने भाजपा के साथ खड़े होकर अलगाववादियों के मंसूबों पर पानी ही फेर दिया। इस कारण जहां अलगाववादी हुर्रियत के नेता संषय की गिरफ्त में आ गए, वहीं कुछ अलगाववादी संगठनों की मानसिकता रही है कि वे भारतीय संविधान और लोकतंत्र का अनादर करते हुए चुनाव प्रक्रिया में या तो भागीदारी नहीं करते थे, या फिर मतदाताओं को मतदान से दूर रहने की धमकी देते थे। इनका मानना था कि कश्मीर के लोगों को आजादी चाहिए, लिहाजा वे न तो भारत के साथ रहना है और न ही पाकिस्तान के साथ ?

लेकिन यह चुनाव अन्य चुनाव की तुलना में अपवाद साबित हुआ। घाटी में नई राजनीतिक ताकत के रुप में भाजपा के उभरने के कारण अलगाववादी मतदान बहिष्कार की हुंकार नहीं भर पाए। थोड़ी बहुत आवाज उठी भी तो सुरक्षा बलों ने कानून के पालन में देश व संविधान विरोधी आवाजों को उठने नहीं दिया। इधर भाजपा ने न केवल विस्थापित पंडितों को मतदान के लिए प्रोत्साहित किया, बल्कि पाक अधिकृत कश्मीर से आए शरणार्थियों के हित में भी पुनर्वास-नीति बनाने का ऐलान करके उनके मंसूबों को उम्मीदों के नए पंख से देकर घाटी का पूरा वातावरण बदल कर रख दिया।

जम्मू-कश्मीर में होने वाले अन्य चरणों में भी मतदान का प्रतिशत यही रहता है तो यह तय हो जाएगा कि कश्मीर की जनता भारत से अलग होना नहीं चाहती, जैसा कि अब तक हुर्रियत के नेता दावा करते रहे हैं। दरअसल जम्मू-कश्मीर में दो परिवारों की राजनीतिक विरासत भी कश्मीर में आतंकवाद के हालात बनाए रखने में दोषी रही है, क्योंकि ये परिवार सत्ता के मोह से मुक्त होना नहीं चाहते। इसलिए अप्रत्यक्ष रुप से अलगाववादियों को संरक्षण देने का काम भी करते रहे हैं। इसी वजह से घाटी में विकास की गति अवरुद्ध रही है। लेकिन अब कश्मीरी अवाम इन परिवारों की मंशा को ताड़ गई है, इसलिए वह इन परिवारों को सबक सिखाने के मूड में दिखाई दे रही है। गोया बढ़ा मतदान इस बात का संकेत है कि कश्मीरी जनता इन परिवारों की दुराग्रही राजनीति से मुक्त होने को आतुर है।

नए राज्य झारखंड के गठन के पीछे प्रत्यक्ष राजनीतिक मंशा थी कि यह राज्य सुशासन और विकास के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित करे। इस राज्य के समृद्धशाली बन जाने की उम्मीद इसलिए भी की थी क्योंकि यहां अकूत प्राकृतिक संपदा है। लेकिन नए राज्य के रुप में अस्तित्व में आने के इन चौदह वर्षों के भीतर जो राजनीतिक पतन और दुर्दशा इस राज्य की हुई है, वैसा उदाहरण देश में दूसरा नहीं है। इन 14 सालों में यहां 9 मुख्यमंत्री रहे और 3 मर्तबा राष्ट्रपति शासन रहा। भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते कई मुख्यमंत्री जेल के सीखचों के पीछे रह आए हैं। शिबू सोरेन को तो तीन बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला, लेकिन गठबंधन की सरकारों के चलते वे कभी छह माह से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री नहीं रह पाए। यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता जहां दो परिवारों के राजनीतिक आधिपत्य से मुक्त होना चाहती है, वहीं झारखण्ड की जनता गठबंधन सरकार की लाचारी से छुटकारा चाहती है। जाहिर है, बढ़ा मत-प्रतिशत इस बात का गवाह है कि इन दोनों राज्यों में बदलाव की बयार बह रही है।