जीवन का माध्यम: अंग्रेजी या मातृभाषा

‘प्रेम’ शब्द का अंग्रेजी अनुवाद क्या है? आप कहेंगे ‘लव’. यह अनुवाद कभी सही रहा हो, किन्तु आज सही नहीं है, क्योंकि आज लव एक ‘फोर लैटर वर्ड’ (एक अपशब्द !) हो गया है. लव मानवीयता की सुन्दर आकर्षक पोशाक में मात्र पैशनेट या पाशविक कृत्य ही रह गया है. जब कि भारतीय भाषाओं में प्रेम ढाई आखर का शब्द है, और दोनो में मानव और दानव का अन्तर है. मानव वह है जो ढाई आखर वाला प्रेम करता है, तथा दानव वह क्रूर व्यक्ति है जो ‘फोर लैटर’ वाला प्रेम करता है. मानव जब घोर भोगवादी हो जाता है तब दानव बनने लगता है. शब्दों के अर्थ में यह अन्तर कैसे आया?

‘भाषा’ केवल विचारों या भावनाओं आदि की वाहिनी नहीं है, वह संस्कृति की शांति वाहिनी भी है. भाषा शाब्दिक, दृष्टिक, शारीरिक (बॉडी लैंग्वेज) आदि किसी इन्द्रिय की भाषा हो सकती है. दृष्टिक भाषा बीसवींसदी की भाषा है, और सर्वाधिक आकर्षक भाषा है. इसीलिये आज साहित्य का पठन कम हो रहा है और टी वी का दर्शन अधिक! टी वी की शाब्दिक भाषा में चाहे कुछ भारतीय शब्द हों, किन्तु उसकी दृष्टिक भाषा पाश्चात्य भोगवादी ही है, तब इसमें क्या आश्चर्य की टी वी आते ही भारत में भोगवाद छा गया! प्रौद्योगिक युग की पाश्चात्य संस्कृति भोगवादी है, और उसकी भाषा भोगवाद की मजेदार वाहिनी है.

हमारे ॠषियों ने वर्षो अनुसंधान कर पहचान लिया था कि सच्चा सुख स्वर्ग में नहीं है. इसलिये वेदों में वर्णित स्वर्ग की इच्छा को गीता तथा उपनिषदों में अवांछनीय ठहराया गया है. किन्तु आज का भोगवादी भारतीय भी ‘आई लव यू’ बोलता है मैं प्रेम करता हूँ नहीं बोलता. लव तो हम सिनेमा से, मिठाई से भी करते हैं. किन्तु सिनेमा या मिठाई से प्रेम नहीं करते. अर्थात लव इन्द्रियों का विषय अधिक है हदय का कम! लव भोगवाद का विषय अधिक है प्रेम का कम! प्रेम किसी भी संस्कृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक है, समाज का व्यवहार या कहें उसकी संस्कृति उसके प्रेम की अवधारणा पर अधिक निर्भर करती है. अंग्रेजी भाषा का भोगवादी शब्द ‘लव’ हमारे समाज के व्यवहार या संस्कृति को आज निर्धारित कर रहा है. अंग्रेजी शब्द लव का हमारी टीवी की शाब्दिक तथा दृष्टिक दोनों भाषाएं बहुत उपयोग करती हैं. भाषा और संस्कृति के संबन्ध न केवल गहरे हैं वरन जटिल भी हैं. संस्कृति शब्द के अर्थ भी विविधिता लिये हैं: 1 समाज को संस्कार देने वाली शक्ति; 2 समाज के संस्कार या व्यवहार; 3, संस्कृति का प्रसार करने वाले माध्यम, यथा, संगीत, नृत्य, नाटक आदि और 4, जीवन के सिद्धान्त तथा मूल्य. संस्कृति तथा सभ्यता में अंतर है, संक्षेप में कहें तो संस्कृति मन और बुद्धि द्वारा व्यवहार निर्धारित करती है; तथा सभ्यता भोतिक संसाधनों द्वारा.

बीसवीं शती से पश्चिम में भोगवाद ने तेजी पकडी क्योंकि सत्रहवीं शती से लगातार ईसाई धर्म विज्ञान की अवधारणाओं पर आक्रमण करता रहा और विज्ञान उनको एक के बाद एक ध्वस्त करता रहा यह द्वन्द्व सौरमंडल से केन्द्र से प्रारंभ होकर डारविन के सिद्वान्त, और उससे भी आगे गर्भपात तक की अवधारणाओं पर चल रहा है. युध्द न करते हुए भी विज्ञान अंधविश्वासों को तो काटता ही है. अतएव पश्चिम में ईश्वर पर से श्रध्दा घटती ही गई है, बाइबिल वर्णित स्वर्ग और अनंत जीवन एक लुभावनी कल्पना है, अब यह पश्चिम की समझ में अच्छे से आने लगा है. विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने वह स्वर्ग इसी प्रथ्वी पर रचने का जिम्मा उठा लिया है, और भोगवाद बढ रहा है.

भोगवाद तथा भोग में अन्तर है. भोग तो शरीर आदि की रक्षा के लिये अनिवार्य है; किन्तु जीवन का मुख्य ध्येय भोग द्वारा सुख प्राप्त करना भोगवाद है.ईसाई धर्म के पास अनंत जीवन तथा स्वर्ग से बेहतर सुख की कल्पना का विकल्प नहीं है. इसी प्रथ्वी पर प्रौद्यौगिकी द्वारा प्रदत्त भोग द्वारा सुख पाने की इच्छा का परिणाम है भोगवाद की सफलता! आश्चर्य यह है कि हमारे ॠषियों ने स्वर्ग को अवांछनीय घोषित कर उससे बेहतर तथा उदात्त उद्देश्य अर्थात सच्चे सुख का रास्ता दर्शाया हेै तब भी हम पश्चिम के भोगवाद की अन्धी नकल कर रहे हैं. क्योंकि हम अपनी भाषा और संस्कृति भूल गये हैं. यह सत्य है कि हममें गुलामी की भावना अभी तक भरी है अतएव हम अंग्रेजी की पू/छ पकडक़र वैतरणी पार करना चाहते हैं.

इसे अन्य शद्वों के उदाहरणों द्वारा भी समझा जा सकता है. गुरू और ‘टीचर’ लगभग समानार्थी शब्द माने जाते हैं. किन्तु इन दोनो में गहरा सांस्कृतिक अन्तर है. जो सम्मान भारत में ‘टीचर’ को आज भी मिलता है, वह उसे पाश्चात्य संसार में नहीं मिलता! पाश्चात्य संसार में ‘टीचर’ तो ‘शिक्षा’ उद्योग का मात्र एक ‘कार्मिक’ है. हां उस ‘प्रोफैसर’ का वहां सम्मान होता है जो अनुसन्धान या शोध करता है. उसी तरह माता, पिता और मॉम तथा डैड में, पत्नी तथा वाइफ, पति तथा हजबैण्ड, मृत्यु तथा डैथ आदि में गहरा सांस्कृतिक अन्तर है. आजकल सभी पढे लिखे आदमी अपनी पत्नी को वाइफ ही कहते है, और महिलाएं पति को हजबैण्ड.यहां यह व्यवहार मात्र अपने को श्रेष्ठ दिखलाना ही नहीं है वरन हिन्दी शब्दों में जो भावनाएं अन्तनिहित हेैं कहीं उनसे बचने की भी भावना है. पत्नी कहने से एक तो विवाह में की गई प्रतिज्ञाएं भी याद आती हैं, और दूसरे कहीं सीता के प्रति राम के प्रेम की भावना भी याद आती है.पत्नी शद्व में हमारे धर्म के संस्कार हैं जो पति को पत्नी के प्रति प्रेम तथा उत्तरदायित्व की याद दिलाते हैं. मृत्यु भी गहरी संवेदनाओं से भरा शब्‍द है, उनसे बचने के लिये हम ‘डैथ’ कह देते हैं. इस तरह देखा जाए तो मातृ भाषा के शब्द संवेदनाओ से भरे रहते हैं, जिनका विदेशी शब्दो में आना कठिन होता है. कम संवेदनाओ से भरे शब्दों का उपयोग करने से हमारी संवेदनशीलता का हास होता है, मानवीयता का क्षरण होता है; तभी मानव राक्षस बनने लगता है.

जीवन में क्या करना चाहिये, किस तरह जीना चाहिये, जीवन का ध्येय क्या है ? आदि के उत्तर बालकों के पास अन्य पशुओं के बरअक्स जन्मजात नहीं होते, उसे इन के उत्तर घर में, समाज में, ग्रंथों तथा व्यावहारिक संस्कृति के द्वारा मिलते है. किसी शिशु को एक संस्कृति उदार बना सकती है तो अन्य को कट्टर; एक को मानव तो अन्य को दानव बना सकती है. यदि भाषा भ्रष्ट होगी तो संस्कृति भी भ्रष्ट होगी. हम अन्य भाषाओं से शब्द ले सकते हैं किन्तु इतने नहीं कि हमारी भाषा ही भ्रष्ट हो जाए.

सुखी जीवन का सांस्कृतिक आदर्श ईशावास्यउपनिषद का त्यागमय भोग रहा है – ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः’. इसीलिये हमारे यहां जीवन के चार पुरूषार्थ हैं, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष. कामनाओं कीर् पूत्ति के लिये, अर्थात भोग करने के लिये, अर्थ का अर्जन, धार्मिक मूल्यों के अनुसार करना है, किन्तु जीवन का चरम लक्ष्य भोग नहीं योग है, परमात्मा से योग अर्थात मोक्ष है. जिस तरह पश्चिमी साहित्य भोगवाद से आच्छादित है उसी तरह हमारा सारा साहित्य इन औपनिषदिक मानवीय मूल्यों से आच्छादित है.

पाश्चात्य संस्कृति के पूंजीवाद तथा साम्यवाद दोनो ही भोगवादी हैं. जब से हमारी भाषा तथा साहित्य पर पाश्चात्य संस्कृति का कुप्रभाव पडा, और टी वी में उसका उपयोग हुआ है, भोगवाद हमारे साहित्य में और भाषा में, और व्यवहार में आने लगा है.टीवी के मालिकों को घोर भोगवादियों की तरह मुख्यतया अपने आर्थिक लाभ से मतलब, उसके शुभ या अशुभ होने से नहीं! यह भी भोगवाद का ही परिणाम है कि स्त्री- स्वातंत्र्य की उदात अवधारणा का उपयोग वहां भी अधिकांशतया स्त्री के शोषण में परिलक्षित होता है, विद्युत बहुराष्ट्रीय कम्पनी एनरॉन की महिलाकर्मियों के बयान इसके ज्वलंत उदाहरण हैं.

पिछले तीस- चालीस वर्षो में ही, जब से अंग्रेजी से हमारा ‘लव’ (मोह) बढा है, हमारा आदर्श त्यागमय भोग के स्थान पर पाशविक भोगवाद हो गया है. सरकारी तथा गैरसरकारी दोनों दफ्तरों में भ्रष्टाचार को व्यावहारिक मान्यता प्राप्त है, भ्रष्ट आदमी असम्मानित नहीं, सम्मानित हो गया है! मोक्ष नहीं अब ‘अर्थ’ हमारा सबसे बडा मूल्य हो गया है. यह बिडंबना ही है कि बढती समृध्दि के साथ समाज में भयंकर अपराध, विखंडन, द्वेष, विवाद, कामनाएं, का्रेध, लोभ, अहंकार, मोह, जलन, और अंततः दुख बढ रहे हैं. सामाजिक प्रेम तथा पारिवारिक प्रेम का स्थान व्यावसायिकता ने ले लिया है.यह मुख्यतया इसलिये कि हम अपनी भाषा तथा संस्कृति को छोड रहे है और पाश्चात्य भाषा तथा संस्कृति की नकल कर रहे है, संस्कृति की नकल अधकचरी ही होती है.

अनेक अंग्रेजीपरस्त विद्वानों की मान्यता है कि अंग्रेजी के राजभाषा बने रहने से पाश्चात्य संस्कृति नहीं आयेगी, और अंग्रेजी में यथेष्ट भारतीय साहित्य अनुवाद कर अंग्रेजी द्वारा भी भारतीय संस्कृति पोषित की जा सकती है. उन्हें भाषा और संस्कृति के सम्बन्ध को जानते हुए अपनी मान्यता पर पुनर्विचार करना चाहिये.

क्या अपराधों की अमानवीयता तथा संख्या बढी है? आज से पांच दशक पहले के अपराधों में तथा आज के दशक के अपराधों में भी भयानक अन्तर देखा जा सकता है. बलात्कार जिस तेजी से बढ रहे हैं, कोई भी लडक़ी सुरक्षित नहीं रहेगी, तब हम स्त्री स्वातंत्र्य की क्या बात करते हैं! अब तो पढे लिखे लोग अर्थात अंग्रेजी पढे लिखे लोग भी लोभ में निस्संकोच हत्या कर देते है! हिंसा तथा यौन के अपराध इतने क्यों बढ ग़ये? आखिर सामाजिक जीवन मूल्यों में अर्थात हमारी दैनंदिन संस्कृति में इतना पतन कैसे और क्यों हुआ? इनमें तथा अंग्रेजी और टीवी के प्रसार में संबन्ध तो अवश्य है.

भाषा और मनुष्य के जीवन में उतना ही गहरा सम्बन्ध है जितना माता और संतान में. और विमाता और विदेशी राजभाषा के व्यवहारों में भी काफी समानता है. समस्त जीवों में शाब्दिक भाषा मात्र मनुष्य के पास ही है. पाशविक प्रवृत्तियों का उदात्तीकरण भाषा और संस्कृति के ही द्वारा सम्भव है. अर्थात मनुष्य मानव या राक्षस भाषा तथा संस्कृति के द्वारा ही बन सकता है. आज संस्कृति टी वी प्रदान कर रहा है. जब भाषा का इतना मूल और क्रांतिकारी प्रभाव पडता है तब यह देश भाषा को उचित महत्व क्यों नहीं देता ? यह भी हमारे सांस्कृतिक पतन का एक ज्वलंत उदाहरण है. मीडिया ने मानवीय संस्कृति को धता बतलाते हुए ऐसी सदा आधुनिक पारिस्थितिकी का निर्माण किया है जिसमें भूमण्डलीय ‘खुला बाजार’ ने ‘सदा – बहार संस्कृति’ के रूप में अवतार लिया है. खुले बाजार (फ्री मार्किट) में केवल शक्तिशाली ‘फ्र्री’ होते है, ग्राहक या उपभोक्ता नहीं, उसे तो पर्दे पर रंगीन सुंदरियों का उपयोग करते हुए ‘हस्तकौशल’ (मैनिपुलेशन) द्वारा स्वतंत्रता का सब्जबाग दिखलाते हुए, उत्पादक के लिये सर्वाधिक लाभदायक उत्पाद को खरीदने के लिये सम्मोहित किया जाता है. दृष्टव्य है कि यह सब भाषा के विभिन्न रूपों, श्रव्य, दृश्य तथा पाठ, के द्वारा ही किया जाता है. यह अतिशयोक्ति न होगी कि भोगवादी विज्ञापनों ने आज भाषा को मानो कोठे पर बिठा दिया है, विज्ञान तथा भाषा का लुभावना रूप ही वेश्या की तरह उसका अर्थ हो गया है, उसकी आत्मा या कथ्य नहीं! भाषा का ऐसा बाजारू उपयोग मात्र व्यवसाय में नहीं वरन राजनीति में तथा जीवन के अन्य व्यवहारों में भी आ गया है. मैनिपुलेशन आज की संस्कृति के व्यवहार का प्रमुख मान्य अस्त्र हो गया है. और मैनिपुलेशन मानव को राक्षस बनाता है क्योकि मानव को मानव का वैसा ही सम्मान करना चाहिये जैसा वह स्वयं अपने साथ करवाना चाहता है.’मानव का मैनिपुलेशन नहीं करना’, मानवीयता की मूल शर्त है.

जब शासन और शासितों की भाषा में जमीन – आसमान का अन्तर हो तब जनतंत्र सचमुच में कार्य नहीं कर सकता. यह तो अंग्रेजी परस्त लोगो का शासन है; इसीलिये अंग्रेजी भाषा का महत्व सर्वोपरि है. अनेक वर्षो से जिस तरह से प्रशासन तथा विधायिका के कुछ वर्गो ने देश का शोषण किया है, वह सिध्द करता है कि इस देश में, चाहे चुनाव हो रहे हों, सच्चा जनतंत्र प्रभावी रूप में नहीं है. भारतीय भाषाई जनता अंग्रेजी भाषाई शासकों से किस तरह संवाद कर सकती है. अग्रेजी के आंतक ने जनता को गूंगा बना दिया है, भारत में न केवल एक गूंगी संस्कृति पैदा की है, वरन बन्ध्या और बंजर संस्कृति पैदा की है.

लगभग दो सौ वर्षो से अंग्रेजी इस देश में शासकों की भाषा रही है और पढार्ऌ जा रही है. तब क्यों स्वतंत्रता पश्चात विज्ञान में इस देश को एक भी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है. जबकि विश्व के तीस प्रतिशत विज्ञान के स्नातक भारत में है. और यहूदी भाषी इजराइल को जिसकी आवादी भारत की आबादी की दशमलव छ प्रतिशत (1 प्रतिशत से भी कम) ही है, ग्यारह नोबेल पुरस्कार मिले है? इजराइल अपनी भाषा में शिक्षा देता है और अपनी भाषा में जीवन जीता है. चीन, जापन, हालैड, आदि समुन्नत देश अपनी भाषा में जीते हैं. और वे इसीलिये स्वतंत्र, वाचाल तथा सृजनात्मक हैं, हमारे सरीखे गुलाम, गूंगे तथा अनुर्वर नहीं हैं.

रोटी के लिये अंग्रेजी पढने वाला व्यक्ति ‘काम चलाऊ’ अंग्रेजी ही सीखता है; फलस्वरूप उसके जीवन मूल्य भी बस खाने कमाने तक ही सीमित रह जाते हैं. और विडम्बना यह है कि वह ‘श्रेष्ठता ग्रन्थि’ का पोषण करने लगता है. उसकी श्रेष्ठता ग्रन्थि वास्तविक ज्ञान की नहीं वरन एक ‘अंग्रेजी दां’ होने की नकली श्रेष्ठता होती है. अंग्रेजी ने हमारी गुलामी की भावना को निकलने का अवसर ही नहीं दिया. और फिर पाश्चात्य देश हमसे प्रौद्यौगिकी में इतने आगे हैं कि उनके प्रति भी हममें हीन भावना ही रहती है. और अंग्रेजी की शिक्षा तो हमें पाश्चात्य सभ्यता तथा संस्कृति का बडप्पन बतलाती रहती है और हमारी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को हीन सिध्द करती रहती है. हम उनसे प्रौद्योगिकी में पीछे हैं किन्तु हम मानवीय संस्कृति में उनसे पीछे नहीं हैं.

पाश्चात्य संस्कृति भोगवादी है, अहंवादी है, और हम इस दिशा में उनसे भी आगे बढ ग़ये हैं. पश्चिम का व्यक्ति, इतना स्वार्थी नहीं होता कि अपने स्वार्थ को नुकसान पहुंचाए क्योंकि स्वार्थ एक सीमा के बाद आत्मघातक हो जाता है. हम उससे भी अधिक स्वार्थी हो गये है. पश्चिम का व्यक्ति इतना अहंवादी नहीं हो गया है कि दूसरे की अहं पर हमला करते रहे, हम इससे भी अधिक अहंवादी हो गये हैं. अर्थात पश्चिम के पास अपनी इस अहंवादी तथा भोगवादी संस्कृति को संतुलन में रखने की भी संस्कृति है. जिसका उन्होने पिछले सैकडों वर्षो में विकास किया है. किन्तु वह पर्याप्त नहीं हो सकता, क्योंकि जब आधारशिला ही गलत हो तब उस पर सुदृढ भवन कैसे खडा हो सकता है ! तभी उनकी संस्कृति समाज में भोग के साधनों के साथ तनाव भी पैदा कर रही है और प्रकृति का बुरी तरह प्र्रदूषण कर रही है, वन्य प्राणीयो का विनाश कर रही है उनको भोगवाद ने पृथ्वी के ओजोन छाते में छेद कर दिया है. उनकी नकल में हमने गंगा- यमुना को गंदी नाली बना दिया है. हमें उनकी नकल करने की आवश्यकता नहीं हैं. हमारी संस्कृति में वे सब तत्व हैं जिनकी सहायता से हम आधुनिकतम जीवन का पूरा किन्तु सम्यक उपभोग कर सकते है.यदि हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति में वापिस जाना चाहते हैं. तब हमें अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त होकर, अपनी भाषाओं में वापिस जाना पडेग़ा. विश्व के श्रेष्ठ विद्वानों यथा शोपेनहार, एल्डस हक्सले, विलियम जोन्स, टी एस इलियट, टायनवी, आन्द्रे मालार्मे, जोसैफ कैम्पबैल आदि अनेक श्रेष्ठतम विद्वानों ने, घोषित किया है कि भारतीय दर्शन तथा संस्कृति श्रेष्ठतम है.

हम हीन या श्रेष्ठ ग्रन्थियों से पीडित इंडियन पश्चिम की अंधी नकल करने में लगे हैं. कोला में हानिकारक जहर हैं, यह सिध्द होने के बाद भी कोला खूब बिक रहा है, हैमबर्गर तथा पिज्जा जैसे जंक फूड बिक रहे है. हमने अपनी अकल विज्ञापनों को बेच दी है! इस संस्कृति पतन के दो मुख्य कारण हैं – एक, टीवी द्वारा भोगवाद का हाइवोल्ट भाषा में विज्ञापन.टीवी के मालिकों को घोर भोगवादियों की तरह मुख्यतया अपने आर्थिक लाभ से मतलब, उसके शुभ या अशुभ होने से नहीं! दूसरे सत्ता तथा रोटी से जुडी अंग्रेजी भाषा ने आम पढे लिखे लोगों को भारतीय भाषाओं के समुचित अध्ययन से हटा दिया, और अंग्रेजी भी उतनी ही सीखी गई जितनी रोटी के लिये आवश्यक होती है. अर्थात् हमारा सारा ज्ञान मात्र रोटी कमाने के कौशल तक ही सीमित रह गया. एक तो भारतीय भाषाओं का और भारतीय ग्रन्थों का अपूर्ण ज्ञान होने से भारतीय संस्कृति की पकड क़म हो जाती है, दूसरे नकल के द्वारा पाश्चात्य संस्कृति भी गलत आई. इनके फलस्वरूप मानवीय मूल्य कमजोर हुए ओैर भोगवादी पशुत्व बढा.

यह सत्य है कि यह युग विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का है, जो पिछड ग़या वह विकसित देशो का गुलाम ही रहेगा. विडम्बना यह है कि विज्ञान प्रौद्योगिकी के लिये भारतीय भाषाओं को अयोग्य घोषित कर, अंग्रेजी थोपी गई और थोपी जा रही है. दो सौ वर्षो के पूरे प्रयत्नों के पश्चात अंग्रेजी जानने वालों की संख्या 5% से भी कम है. और विज्ञान जानने वालों की संख्या तो 2 प्रतिशत से भी कम! इसका एक भयंकर दुष्परिणाम यह है कि विज्ञान की खोजों तथा आविष्कार के लिये शेष 95 प्रतिशत आबादी का कोई योगदान नहीं! दूसरा दुष्परिणाम यह है कि वे दो प्रतिशत लोग भी अंग्रेजी के कामचलाऊ ज्ञान के कारण विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में विशेष उत्कृष्ट कार्य नहीं कर सकते. तीसरे, आविष्कार, खोज या रचनात्मक कार्यो का स्रोत संवेदनशील मन तथा बुध्दि होता है, मात्र तार्किक बुध्दि नहीं.मानव की रचनाशीलता उसकी संवेदनात्मक भाषा के द्वारा प्रस्फुटित होती है. रोटी के लिये सीखी गई विदेशी भाषा किसी भी व्यक्ति को संवेदनात्मक भाषा नहीं होती. असल बात यह है कि व्यक्ति की मातृभाषा उसकी संवेदनात्मक भाषा तथा उसकी बौद्धिक भाषा दोनों होती है, अतएव उसकी मौलिक चिंतन एवं सृजन की भाषा होती है.अन्य भाषाएं, बौध्दिक भाषाएं हो सकती है संवेदनात्मक बहुत कम. भारत में हम अंग्रेजी के मोह में अपनी मातृभाषा की उपेक्षा की और परिणामतः मोलिकता तथा सृजनशक्ति ने हमारी अवहेलना की. मुख्यतया इसलिए, हम विश्व की विज्ञान – प्रौद्योगिकी दौड में तथा मौलिक चिंतन एवं सृजन कार्यो के पीछे रह गये हैं. आज समृध्दि तथा सम्मान के लिये प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान में अग्रणी रहना अनिवार्य है. जब जापान जैसा छोटा देश, विशाल चीन देश, छोटे कोरिया, इजराइल समुन्नत देश अपनी – भाषाओं में सारे कार्य सम्मानपूर्वक कर रहे हैं, और विज्ञान में हमसे बहुत आगे हैं, तब भारत भी कर सकता है, बशर्ते वह अपनी भाषाओं में जीवन जिये.

भारतीयों को तथ्यों की जानकारी अच्छी होती है, किन्तु उनकी वैज्ञानिक समझ कमजोर ही रहती है. क्योंकि अंग्रेजी में विज्ञान पढने में उसका ध्यान विदेशी पदों को रटने में ज्यादा रहता है न कि वैज्ञानिक अवधारणाओं को समझने में. बंगाल में बीसवीं सदी के प्रारंभ में वहां के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रौफेसर अपने विद्यार्थियों को विज्ञान बांग्ला तथा अंग्रेजी दोनो भाषाओं को समझते थे, सम्भवतः इसलिये भी उनके शिष्यों ने विज्ञान में नाम कमाया. साफ्टवेयर की भाषा प्रमुखतः गणित है, इसीलिये भारतीय भी इसमें नाम कमा रहे है, यद्यपि द्वितीय स्तर के कार्य में, मूल शोध में कम.

एक दो प्रौद्योगिकियों में हमने विशेष उन्नति जरूर की है, वह नितान्त अपर्याप्त है और साथ ही प्रौद्योगिक समाज में जो संस्कृति व्यवहार में होना चाहिए भारत में वह नहीं है, यथा, इंजीनियरों एवं मिस्त्रयों को अपने निर्माण तथा रखरखाव में गर्व होना चाहिए, क्या वह उनमें है? यदि हो तो सडकें गङ्ढों से भरी न होतीं, बिजली चाहे जब गुल न हो जाती (लोड शैडिंग की आवश्यकता दूरदर्शिता की कमी दर्शाती है); टेलीफोन अपनी मर्जी से चाहे जब सो न जाते, पीने के पानी के लिए घर-घर जल -शोधक न लगाने पडते, हमारे परमाण्विकी जनित्र महीनों खराब न पडे रहते, दूध की इतनी कमी न होती कि घातक सिंथेटिक दूध की नदियां बहतीं, इत्यादि इत्यादि. यह मात्र भ्रष्ट चरित्र की बात नहीं है, वास्तव में इंजीनियरों तथा मिस्त्रियों को अपने पद का तो गर्व (घमंड) होता है किन्तु अपने कार्य की गुणवता पर गर्व नहीं है जैसा उनसे सर्वप्रथम अपेक्षित है, उनमें सहकारिता तथा सहयोग की कमी है. इन गुणों की कमी से सारा प्रौद्योगिक वातावरण दुःख, व्यर्थ का खर्च तथा प्रदूषण से आप्लावित है जब तक यह वातावरण ‘सुसंस्कृत’ नहीं होता, जिसे करने के लिए किसी भी विदेश की उच्च प्रौद्योगिकी के आयात की आवश्यकता नहीं है, तब तक हम वास्तव में प्रौद्योगिकी के इन क्षेत्रों में अग्रिम पंक्ति में नहीं हो सकते.

कर्म कौशल, कर्म निष्ठा, सहयोग, आत्मसम्मान वाली औद्योगिक संस्कृति यूरोप तथा अमें रिका में है. जब हमने सारे विज्ञान – प्रौद्योगिकी की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम के द्वारा प्राप्त की तब हमने इस प्रौद्यौगिक संस्कृति को क्यों नहीं सीखा? विदेशी भाषा से जो संस्कृति हम सीखते हैं वह अनेक कारणों से गड्डमड्ड रहती है वह विदेशी भाषा हमें लार्ड मैकाले की नीति के तहत शासक द्वारा शासित को अपने आदेश सुनाने तथा अपनी संस्कृति का प्रचार करने के लिये सिखाई गई थी, अब वह जनतंत्र में शासक तथा शासित के बीच दीवार का कार्य कर रही है. एक तो उस भाषा को सीखने का हमारा ध्येय नौकरी-पेशा होता है. दूसरे, विदेशी भाषा हम खंडों में बाटंकर सीखते हैं तथा मुख्यतया दो या तीन खंडो में ही सीमित रखते हैं. स्वाभाविक रूप अर्थात जीवन जीने में भाषा सीखने पर मस्तिष्कि के विभिन्न खंडो के बीच वह अभेद्य दीवार नहीं रहती जो विदेशी भाषा में सीखने पर रहती है. अतएव विदेशी भाषा से हम संस्कृति की सीख खंड- खंड में लेते हैं. तीसरे, विदेशी भाषा के वे खंड जो संस्कृति शिक्षा प्रदान करते हैं, अधकचरी संस्कृति ही देते हैं. नौकरी-पेशा इच्छुक विद्यार्थी उनकी तरफ ध्यान नहीं देते.

बालक को उसकी मातृभाषा में शिक्षा न देना, उसमें उसे जीवन न जीने देना न केवल उसके मानवाधिकारों का हनन है वरन अक्षम्य क्रूरता है. सांस्कृतिक एवं आर्थिक गरीब देश में रोटी की भाषा ही राजभाषा हो सकती है; अंग्रेजी रोटी की भाषा है. कुछ ही वर्षों में अंग्रेजी राष्ट्रभाषा हो जाएगी, और हमारी सारी राष्ट्रभाषाएं क्षीण हो जाएंगी. ‘श्रेष्ठता- पीडित’ समुदाय की संस्कृति तथा भाषा ‘हीनता-पीडित’ समुदाय की संस्कृति तथा भाषा पर हावी हो जाती है. अंग्रेजी भाषा प्रायः श्रेष्ठता- ग्रंन्थित लोगों की भाषा है तथा भारतीय भाषाएं प्रायः हीनता-ग्रन्थित लोगों की भाषाएं है. जब दो बिल्लियां लडती हैं तथा न्याय के लिये बन्दर के पास जाती है तब सारा लाभ बन्दर को खुशी-खुशी मिल जाता है. आज अधिकांश भारतीय भाषाएं अंग्रेजी से ही न्याय चाहती है. विज्ञान और प्रौद्योगिकी रूप में समुन्नत देश की संस्कृति और भाषा अन्य कमजोर देशों की संस्कृति तथा भाषा पर हावी हो जाती है. अतएव क्या आश्चर्य कि पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी है. क्या भारतीय भाषाओं का भविष्य निराशापूर्ण है?

उपरोक्त चर्चा से कुछ ध्येय स्पष्टतः उभरते हैं:

(1) भारत को यदि सम्मान से जीना है तो उसे विज्ञान – प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति में आना पडेग़ा. और आवश्यक है कि उसकी गड्डमड्ड संस्कृति के स्थान पर एक समें कित भारतीय संस्कृति जीवंत रूप में आए. एतदर्थ

प्रदेशों की अपनी भाषाओं में ही मुख्य शिक्षा हो तथा प्रदेश का राजकाज भी. भाषा समिति के अथ्यक्ष प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा क़ोठारी ने 1960 में ही निष्कर्ष दिया था कि विज्ञान प्रसार हेतु विज्ञान की शिक्षा मातृभाषाओं में ही देना होगा.उनकी अनुशंसा पर शब्दावली आयोग की स्थापना 1961 में हूई, जिसने अब तक 12 लाख तकनीकी शब्द हिन्दी में निर्माण कर लिये हैं. हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा स्नातकोत्तर तक दी जा सकती है.

(2) अंग्रेजी को रोटी के लिए कतई आवश्यक न बनाया जाए. अंग्रेजी की शिक्षा उतनी ही दी जाए जितनी एक विदेशी भाषा की उपयोगिता को देखते हुए आवश्यक है.

(3) अंग्रेजी का स्थान हिन्दी को नहीं लेना है क्योंकि अंग्रेजी तो आधिपत्य जमाने वाली भाषा है. उतनी ही हिन्दी की शिक्षा दी जाए जितने में प्रदेशों का परस्पर संपर्क सध सके.त्रिभाषी सूत्र अपनाया जा सकता है.

(4) एक सशक्त अनुवाद-सेना तैयार की जाए.

(5) सांस्कृतिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए ताकि हम माध्यम के हिंसा तथा यौन के रंगीन हथकण्डों से बच सकें और भ्रष्टाचार का उन्मूलन हो सके.

जब संविधान में हिन्दी को राजभाषा तथा सम्पर्क भाषा बनाने का आदेश है, तथा क्षेत्रीय भाषाओं को अपने क्षेत्रों में राजकाज करने का आदेश है, और हिन्दी तथा क्षैत्रीय भाषाओं में अपना कार्य करने की पूरी क्षमता है, तब सौहार्द तथा त्याग से यह कार्य हो सकता है. यह आपसी प्रेम की भावना पर तथा मुख्यतः अपनी उदात्त संस्कृति प्रेम पर, अपने-देश प्रेम पर निर्भर करता है. प्रेम इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है. हमारे राष्ट्र में मूलभूत रूप से सांस्कृतिक एकता है. हमारी मूल संस्कृति ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ वाली संस्कृति है जिसका अस्तित्व सारे भारत में है. हमारे साहित्य में एकता है, एकरूपता नहीं, एकात्मता है,. हम संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थो के ऊपर उठ सकते है. हमारी प्रमुख भाषाओं में अधुनातम विज्ञान-प्रौद्योगिकी को अभिव्यक्त करने की शक्ति है. भारत में न केवल विश्व-शक्ति बनने की क्षमता है वरन विश्व को भोगवाद के राक्षस से बचाने की क्षमता है, बशर्ते कि हम अपना जीवन अपनी भाषा में जियें. जय हिंदी, जय भारतीय भाषाएं, जय भारतीय संस्कृति!

-विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से. नि.)

10 COMMENTS

  1. आप ही की तरह इस युवा मातृभाषी ने भी सामाजिक विकास को चेतनाओं के संग बदलाव की ओर अग्रसर प्रयास किया है । आप के आशीर्वाद व दिशा निर्देशन का आकांक्षी हूँ ।
    http://www.manoguru.com पर नजर डालने का प्रयास कीजिए।

  2. अभिशेक जी
    आपका धन्यवाद।
    मेरा नया ई मेल पता लिख लें।
    पुराना ‘हैक’ हो गया।

  3. आदरणीय प्रोफेस्सर तिवारी जी ,
    आपके इस मौलिक लेख से मैं पूरी तरह सहमत हूँ . .आपने अपने ७५ वर्ष के वर्तमान अनुभव के आधार पर इतना सारगर्भित निबंध लिखा है इसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह निश्चित रूप से कम होगी .भारतीय और विदेशी शिक्षा के बाद अगर आप जैसा विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुंचा है तो अवश्य ही कहा जा सकता है की हिंदी को महारानी और इंग्लिश को नौकरानी बनाये जाने की भारत वर्ष को आवश्यकता है . सच कहूं तो मैं यह सोचता आ रहा हूँ लेकिन जो समझ और बल की हाँ मैं सही सोचता था ,वो आपके निबंध को पढने के बाद मिली है वह धन्यवाद योग्य है..इसके लिए मैं आपका सदा ऋणी रहूँगा ..शायद यह समझ मेरे माता ,पिता और गुरु जी के सानिध्य के कारन रही ..मैं निश्चित रूप से अधिक से अधिक लोगो को इस निबंध का पाठ करने को कहूँगा ,…मैं अभिषेक उपाध्याय , माधव प्रोद्योगिकी और विज्ञान संस्थान ,ग्वालियर (मध्य प्रदेश ) में जैव प्रोद्योगिकी से अभियांत्रिकी का छात्र हूँ ..

    • प्रिय अभिषेक,
      क्या तुमने मेरे इसी विषय से सम्बन्धित अन्य लेख इसी प्रवक्ता.काम में‌पढ़े हैं?
      उन पर भी टिप्पणी करें.
      शुभ कामनाएं
      विश्व मोहन तिवारी

      • सादर चरण स्पर्श
        जी मैंने आपके सारे लेख पढ़े हैं. हमेशा आपके एक और नए लेख की आशा में प्रवक्ता कॉम टटोलता रहता हूँ. सारे के सारे पर एक ही सारगर्भित टिप्पड़ी ठीक बैठेगी जोमैने एक पर किया है .आप अपना संपर्क नंबर दे सकें तो कृपया दे मेरा ९१७९८०१८०१ है

  4. प्रोफ़ेसर मधुसूदन जी की टिप्पणी पढ़कर मेरा सारा श्रम सफ़ल हो गया।
    प्रोत्साहन मिला कि भारतीयों में क्रिकैटी देशप्रेम के अतिरिक्त आई लव इंडिया वाला नहीं वरन सच्चा सांस्कॄतिक राष्ट्रप्रेम भी है।
    ऐसे पाठक कम होते हैं जो लेख या कथ्य से तादात्मय स्थापित करते हों या करना चाहते हों.
    पाठक भी अब हँसना चाहते हैं, पठन- मनन नहीं !!
    सानिया – शोएब काण्ड जैसी क्षुद्रता में ही मस्त रहना चाहते हैं।
    राष्ट्र की अस्मिता और भविष्य संकट में है, राष्ट्र् के परमवीरों को छोड्, फ़िल्मी हीरों की पूजा में रत है।
    मधुसूदन जी को मेरे जैसे अकेले लोगों का उत्साहवर्धन करने के लिये पुन: धन्यवाद

  5. टिप्पणी (१)
    बहुत वर्षोमें ऐसा मौलिक निबंध नहीं पढा था। हर एक विचारसे, पूरी सहमतिही नहीं, पूरा तादात्म्य अनुभव कर रहा हूं। यह लेख हर शिक्षितको, हर विद्वानको, हरेक भारतके भक्तको, हरेक लेखकको, हर कोईको अथसे इति तक, ठीक पढना चाहिए।
    शर्त केवल यही है, कि वह थोडी ध्यान योगकी मनस्थिति प्राप्त करे, ताकि वस्तुनिष्ठ, निरपेक्ष, तटस्थ मौलिक चिंतन कर पाए। अपनी प्रादेशिकता, अपनी भाषा, अपना अलग अस्तित्व भूलकर केवल “भारतीय” बन जाए।
    एक और बिंदू सविनय जोडना चाहता हूं।
    भारतकी ७७% जनता यदि, गरीबी रेखाके नीचे जीवित है, तो उसका कारण–क्या है?
    उसका कारण है, अंग्रेजी माध्यम! जिसके कारण हमारी ९५% से ९७% जनता “अंग्रेजी”मे अशिक्षित होनेसे, लघुता ग्रंथीसे पीडित, और लाभसे वंचित है। यह समझनेके लिए क्या, आपको नालंदा या तक्षशिला विश्व विद्यालयोमें जाना होगा?
    एक परराष्ट्र भाषा, राष्ट्र भाषा कैसे बन सकती है? पर राष्ट्र भाषा=राष्ट्र भाषा ?
    जो बीस वर्ष पहले नहीं स्वीकार करता था, वह सत्य आज स्वीकार करता हूं। टिप्पणीकार Structural Engineering का Ph d और परामर्षक इंजिनियर है। अमरिका की युनिवर्सीटीमें २५+ वर्ष प्रोफेसर रहा है।
    विश्व मोहन तिवारी जी का शतशः धन्यवाद

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