कविता

परम्पराओं पर आघात मत सहो

कड़ी परीक्षा है संस्कृति की सत्य तो अब कहना होगा

मेरी परम्पराएँ पावन दृढ इस पे रहना होगा

काले अंग्रेजों सुन लो तुम वेदनेत्र यह ज्योतिष है

ज्ञान प्राप्त करने के हित इस धारा में बहना होगा

 

अब मुझसे ये सत्य सुनो पैथागोरस इक झूंठा था

बौधायन कि इक प्रमेय उनका वो शोध अनूठा था

पाठ्यक्रमो में पर केवल पैथागोरस का नाम चले

ऋषि बौधायन को उसने दिखलाया खड़ा अंगूठा था

 

न्यूटन का सिद्धांत न कोई झूठ है केपलर की वाणी

आइन्स्टीन की चोरी पकड़ी थी फिर भी रार नहीं ठानी

इसका फल हैं भोग रहे हम नित्य ही पाते हैं गाली

चोर वज्ञानिक बन बैठे सब जान रहे हैं वो ज्ञानी

 

जग तुमको ज्ञानी समझे हमको है कोई रोष नहीं

पर तुम मेरी पुण्य प्रथा में भी ढूंढो कोई दोष नहीं

हम समर्थ हैं इतने कि प्रमाण खोज दिखला देंगे

अखिल विश्व जानेगा चोर हो कोई तुम्हारी खोज नहीं

 

यदि लिखना हो सत्य लिखो अन्यथा लेखनीहीन दिखो

चोरों के मत को मत मानो मत उनके भी हेतु बिको

चोर लुटेरे औ घाती सब हमलावर बन बैठे हैं

संस्कृति रक्षा हेतु लेखनी सबल बनाओ और टिको

जहाँ पे इतिहास था पूर्वजों का जहाँ पल्लव संस्कृति के हरे थे

जहाँ पे इतिहास था पूर्वजों का जहाँ पल्लव संस्कृति के हरे थे
जहाँ जन्म हुआ श्रीराम का था और कृष्ण के गीतोपदेश खरे थे 
जहाँ विप्र बने कल्याण के हेतु मानवता का ध्वज थामे खड़े थे 
औ क्षत्रियगण  प्रजारक्षण में कर शस्त्र सुसज्जित हो अड़े थे 
जहाँ  ज्ञान विज्ञानं उत्थान सदा ऋषि चिंतन के बस साधन थे
वह स्वर्ण विहंग सामान धरा जहाँ के सब वासी ही पावन थे 
उस धरा पे ऐसी कुद्रष्टि पड़ी तम के घने बादल छाने लगे 
आतताइयों के छल से घात से सभी प्राणी वहां अकुलाने लगे
स्वाभिमान गया बल शील मिटा दासता में ही क्रंदन होने लगे 
संपत्ति कि कौन कहे वहां तो देवालय भी धूसरित होने लगे
रक्तपात औ लूट से त्रस्त हुई आर्यधरा अधर्म से तप्त हुई 
पुत्र लाखों ही वार दिए अपने परतंत्रता से तब मुक्त हुई 
फिर भी वह मुक्ति न पूर्ण रही स्वतंत्रता भी वह अपूर्ण रही 
धरा का था विभाजन दंश बना पूर्ण राष्ट्र कि कल्पना चूर्ण रही 
घाव ऐसे लगे तब भी हमने माना भ्राता समान अधर्मियों को
कहा मेरे ही साथ निवास करो भंग राष्ट्र विभाजन को कर दो
हमने समझा उपकार किया वैमनस्य को उनके मार दिया
सुविवेक भी जाग्रत हो सकेगा हमने जो नेह व्यवहार किया
किन्तु द्रोहीजनों ने आघात किया मात्रभूमि के शत्रु का साथ दिया
आतताई प्रविष्ट  हुए जो कभी भावना पर कुठाराघात किया 
हम चिंतन करें है कारण क्या इसके पीछे कुछ ज्ञात नहीं है
जड़ तो नेह भाव को ना समझे पर चेतन में ये बात नहीं है 
तभी गूंजे हा मनमोहनी स्वर जिनको मात्रभू से प्यार नहीं है
ये धरा ये पूर्वज राष्ट्र भी ये उनके हैं कोई प्रतिकार नहीं है
अपमान करें चाहे घात करें प्रतिवाद किन्तु स्वीकार नहीं है
संसाधन राष्ट्र के सब उनके औरों को कोई अधिकार नहीं है
तब चक्षु खुले और ज्ञान हुआ राष्ट्रघात नहीं है अधर्म यहाँ
मात्रभू का शील हरण कर लो बना यही है सुंदर कर्म यहाँ 
माँ का अंचल खींचे और हँसे नहीं शेष है मानवचर्म यहाँ 
प्रभु तू ही अब ऐसा पौरुष दे नवक्रांति  जगाये जो धर्म यहाँ