बाबूलाल नागा
भारतीय समाज विविधताओं से भरा हुआ है लेकिन इस विविधता के बीच कुछ समुदाय ऐसे भी हैं जिन्हें लंबे समय से उपेक्षा, भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा है। ट्रांसजेंडर समुदाय उन्हीं में से एक है। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट और संविधान ने इस समुदाय को समान गरिमा और अधिकार दिए हैं, फिर भी व्यवहारिक जीवन में इन अधिकारों के क्रियान्यवन में कई बाधाएं नजर आती हैं। हाल ही में राजस्थान में रोडवेज बस टिकट श्रेणी को लेकर उठा एक विवाद इसी विफलता की ओर संकेत करता है।
11 दिसंबर को जयपुर से जोधपुर जा रही राजस्थान रोडवेज बस में यात्रा कर रहीं ट्रांसजेंडर वकील रवीना सिंह को टिकट बनवाते समय यह महसूस हुआ कि इलेक्ट्रॉनिक टिकट मशीन में केवल दो विकल्प “पुरुष” और “महिला” उपलब्ध हैं। उनकी पहचान इनमें से किसी के अंतर्गत नहीं आती, इसलिए उन्होंने आपत्ति जताई। उनका सवाल सीधा था—”जब मेरी अपनी लैंगिक पहचान है, तो टिकट में मुझे क्यों महिला या पुरुष के रूप में चिन्हित किया जाए?” ट्रांसजेंडर के लिए कोई अलग विकल्प मशीन में नहीं था। कंडक्टर का जवाब सिस्टम आधारित था—मशीन में जैसा विकल्प है, वैसा ही टिकट दिया जा सकता है। लेकिन यह प्रशासनिक तर्क उस सामाजिक वास्तविकता को नहीं समझता जिसमें ट्रांसजेंडर समुदाय वर्षों से अपनी पहचान, सम्मान और समान अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है।
यह विवाद केवल एक क्षणिक घटना नहीं था बल्कि यह हमारे समाज और सरकारी व्यवस्थाओं में मौजूद उन गहरी खामियों को उजागर करता है जो लैंगिक विविधता को अब भी स्वीकार करने में पीछे हैं। बस टिकट जैसी बुनियादी सुविधा में भी यदि “पुरुष” और “महिला” के अलावा कोई विकल्प नहीं मिलता, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ट्रांसजेंडर की पहचान का सम्मान कहां है? सरकारी फॉर्म, पहचान पत्र, अस्पताल रजिस्टर, नौकरी आवेदन—कई स्थान आज भी ऐसे हैं जहां तीसरे लिंग के लिए जगह मौजूद नहीं है। इस मामले ने यह भी दिखाया कि पहचान का सवाल किसी भी व्यक्ति के लिए कितना मूलभूत और संवेदनशील होता है। यह विवाद राजस्थान में सार्वजनिक परिवहन सेवाओं में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों और पहचान से जुड़ी स्पष्टता की कमी को भी उजागर करता है। हालांकि भारतीय रेल जैसी अन्य सरकारी सेवाओं में ट्रांसजेंडर के लिए अलग तीसरा जेंडर विकल्प पहले से मौजूद है, लेकिन राजस्थान रोडवेज में अभाव है।
भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय लंबे समय से सामाजिक उपेक्षा और संवैधानिक अधिकारों के बीच फंसा हुआ है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक नालसा निर्णय ने ट्रांसजेंडर को स्वतंत्र तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी और कहा कि—“लैंगिक पहचान व्यक्ति की आत्म-पहचान का मूल अधिकार है। इसे सम्मान देना राज्य का अनिवार्य कर्तव्य है।” इस फैसले ने स्पष्ट कर दिया कि किसी व्यक्ति का लिंग उसके जन्म प्रमाण या सामाजिक अपेक्षाओं से तय नहीं होता, बल्कि उसकी आंतरिक पहचान से निर्धारित होता है। इसके बाद भारत सरकार ने 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया। यह अधिनियम: ट्रांसजेंडर की स्व-पहचान को मान्यता देता है, भेदभाव पर कानूनी प्रतिबंध लगाता है, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में समान अवसर सुनिश्चित करने का आदेश देता है, सरकारी सेवाओं में समावेशी नीतियों की मांग करता है लेकिन वास्तविकता यह है कि— सरकारी फ़ॉर्म, बस–ट्रेन टिकट, शौचालय, स्कूल रजिस्टर, हॉस्पिटल रिकॉर्ड, नौकरी के आवेदन अधिकांश जगह अभी भी “पुरुष” और “महिला” से आगे नहीं बढ़ पाते। यह कानूनी संरचना और ज़मीनी व्यवस्था में अंतर को उजागर करता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव से सुरक्षा), 19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) सभी नागरिकों की गरिमा की रक्षा करते हैं। ट्रांसजेंडर भी इसी नागरिक ढांचे का अविभाज्य हिस्सा हैं। फिर भी, उन्हें रोजमर्रा के जीवन में बार-बार अपमान, उपहास, सेवा से इनकार, और भेदभाव का सामना करना पड़ता है—चाहे वह सार्वजनिक स्थान हो, स्कूल–कॉलेज, बसें, अस्पताल, नौकरी या किराये का घर। राजस्थान रोडवेज टिकट विवाद दर्शाता है कि यदि टिकट खरीदने जैसे साधारण अधिकार में भी लिंग पहचान की जगह केवल ‘पुरुष/महिला’ विकल्प ही हों तो ट्रांसजेंडर व्यक्ति स्वयं को कहां रखें? यह केवल प्रशासनिक कमी नहीं, बल्कि गरिमा पर चोट है। ट्रांसजेंडर समुदाय की पहचान केवल एक बस टिकट देने का विषय नहीं, बल्कि उनके अस्तित्व का सम्मान है। एक संकेत है—कि देश को अभी इस दिशा में काफी लंबा सफर तय करना है। अधिकारों का वास्तविक अर्थ तभी पूर्ण होगा, जब हर ट्रांसजेंडर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के वही गरिमा मिले जो संविधान सभी को प्रदान करता है।
सवाल यह है कि इतने स्पष्ट कानून और न्यायिक निर्देशों के बावजूद प्रशासनिक व्यवस्थाएं बदल क्यों नहीं पातीं? इसका उत्तर शायद हमारे समाज की मानसिकता और सरकारी तंत्र में संवेदनशीलता की कमी में छिपा है ट्रांसजेंडर व्यक्ति आज भी उपहास, तिरस्कार और अनदेखी का सबसे आसान निशाना बनते हैं। इससे उनके अधिकारों की उपलब्धता तो बाधित होती ही है, गरिमा पर भी आघात होता है।
जरूरत इस बात की है कि सरकारी विभाग, परिवहन निगम, स्वास्थ्य संस्थान और शिक्षण संस्थाएं अपनी प्रणालियों में स्पष्ट और अनिवार्य रूप से तीसरे लिंग की श्रेणी को शामिल करें। सामाजिक न्याय की दिशा में कुछ जरूरी कदम उठाने की जरूरत है। जैसे-सभी सरकारी–गैरसरकारी फॉर्म और सेवाओं में “अन्य/ट्रांसजेंडर” श्रेणी अनिवार्य है, यह सिर्फ डेटा की बात नहीं, अस्तित्व की मान्यता है। प्रशासनिक और परिवहन सेवाओं में संवेदनशीलता प्रशिक्षण- बस कंडक्टर, पुलिस, अस्पताल कर्मचारी-सभी को लिंग विविधता पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। गरिमा का वातावरण- ट्रांसजेंडर को ‘मजाक’, ‘तमाशा’ या ‘डर’ का विषय समझना बंद करना होगा। उनके साथ सम्मान से बात करना, समान व्यवहार करना ही सामाजिक परिपक्वता की पहचान है। स्कूल पाठ्यक्रमों में लैंगिक विविधता पर अध्याय जोड़ने से समाज में समझ की नींव मजबूत होगी। स्थानीय निकायों और राज्यों की जवाबदेही तय हो। यदि बस टिकट, शौचालय या सरकारी योजनाओं में ट्रांसजेंडर श्रेणी नहीं है तो यह सीधा अधिकारों का उल्लंघन है और इसे तुरंत सुधारा जाना चाहिए।
बहरहाल, समानता केवल शब्द नहीं, व्यवहार भी होना चाहिए. ट्रांसजेंडर व्यक्ति भिक्षा, ताली और हाशिए के जीवन तक सीमित नहीं हैं— वे शिक्षक, वकील, कलाकार, अधिकारी, कर्मचारी—सभी कुछ हो सकते हैं और बन रहे हैं लेकिन जब समाज और राज्य पहचान और गरिमा को ही स्वीकार नहीं करते, तो अधिकार अधूरे रह जाते हैं। अतः समाज को भी यह समझना होगा कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति किसी ‘अन्य’ श्रेणी नहीं, बल्कि इसी समाज के समान अधिकार-युक्त नागरिक हैं।
बाबूलाल नागा