आदिवासी प्रगति : ग्यारह अवरोधक

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

आजादी के तत्काल बाद संविधान में सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से सर्वाधिक कमजोर जिन दो वर्गों या समूहों को चिह्नत किया गया था, उनमें एक आदिवासी वर्ग है, जिसे संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ कहा गया था, संविधान में उसे दलित के समकक्ष खड़ा कर दिया था| इसके चलते वर्तमान में आदिवासी वर्ग देश का सर्वाधिक शोषित, वंचित और फिसड्डी वर्ग/समूह बना दिया गया है|

इस सबके लिये निश्‍चय ही कुछ ऐसे कारक रहे हैं, जिन पर ध्यान नहीं दिये जाने के कारण देश के मूल निवासी आज अपने ही देश में ही परायेपन, तिरस्कार और दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं| आदिवासी की मानवीय गरिमा को हर रोज तार-तार किया जा रहा है| आदिवासी की चुप्पी को नजर अन्दाज करने वालों को, आदिवासियों के अन्तरमन में सुलग रहा आक्रोश दिखाई नहीं दे रहा है|

बेशक आदिवासी को आज नक्सलवाद से जोड़कर देखा जा रहा है, जो दु:खद है, लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ है कि आज छोटे-बड़े सभी राजनैतिक दल और केन्द्र तथा राज्य सरकारों को यह बात समझ में आने लगी है कि आजादी से आज तक उन्होंने भारत के मूलनिवासियों के साथ केवल अन्याय ही किया है| जिसकी भरपाई करने के लिये अब तो कुछ न कुछ करना ही होगा!

हालांकि आज अनेक राजनैतिक दल, कुछ राज्यों की सरकारें तथा केन्द्र सरकार भी आदिवासियों के उत्थान के प्रति संजीदा दिखने का प्रयास करती दिख रही हैं, लेकिन हकीकत यह है कि इन सबकी ओर से आदिवासियों के विकास तथा उत्थान के बारे में सोचने का काम वही भाड़े के लोग कर रहे हैं, जिनकी वजह से आज आदिवासी की ये दुर्दशा हुई है| सरकार या राजनैतिक दल या स्वयं आदिवासियों के नेताओं को वास्तव में कुछ करना है तो उन्हें आदिवासियों के अवरोधकों को पहचाना होगा, जो उनके विकास एवं प्रगति में सर्वाधिक बाधक रहे हैं| जैसे-

1. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी एवं माओवादी जिस प्रकार से अपराध और अत्याचार कर रहे हैं, उनके साथ में बिना किसी पुख्ता जानकारी के आदिवासियों का नाम जुड़ना आदिवासियों के प्रति आम भारतीय के मन में नफरत पैदा करता है| जिसके चलते आदिवासी दोहरी तकलीफ झेल रहा है| एक ओर तो नक्सली एवं माओवादी उनका शोषण कर रहे हैं| दूसरी ओर सरकार एवं आम भारतीय आदिवासी को माओवाद एवं नक्सलवाद का समर्थक मानने लगा है|

2. देश के तथाकथित राष्ट्रीय प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा वैकल्पिक मीडिया में देश के हर हिस्से, हर वर्ग और हर प्रकार की समस्या की खूब चर्चाएँ की जाती हैं| यहॉं तक कि दलितों, स्त्रियों पर तो खूब चर्चाएँ होती है, लेकिन भाड़े के लोक सेवकों की औपचारिक चर्चाओं के अलावा कभी सच्चे मन से आदिवासियों पर कोई ऐसी चर्चा नहीं होती| जिसमें जड़ों से जुड़े आदिवासी भागीदारी करें और देश के मूलनिवासियों के उत्थान की सकारात्मक बात की जावे!

3. आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि दलितों की भांति आदिवासियों को आज तक एक ऐसा सच्चा और समर्पित आदिवासी नेता नहीं मिल पाया जो उनके लिये सच्चा आदर्श बन सके| आजादी के बाद आदिवासी वर्ग के बहुत से नेता बहुत हुए हैं, लेकिन वे आदिवासी नेता होने से पूर्व वे कॉंग्रेसी, जनसंघी, भाजपाई या अन्य दल के नेता पहले होते हैं| ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान, महत्व और आदिवासी के हृदय में सम्मान मिलना असम्भव है| इस प्रकार राष्ट्रीय नेतृत्व के अभाव में आदिवासी राजनैतिक दलों की कूटचालों में बंट कर बिखर गया है|

4. देश में जितने भी दलित-आदिवासियों के संयुक्त संगठन या मंच हैं, उन सब पर केवल दलितों का कब्जा रहा है| दलित नेतृत्व ने आदिवासी नेतृत्व को सोची समझी साजिश के तहत उभरने ही नहीं, दिया इस कारण एसी/एटी वर्ग की योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वाले दलितों ने आदिवासियों के हितों पर सदैव कुठारघात किया है| आदिवासी के लिये घड़ियाली आँसू जरूर बहाये हैं|

5. आदिवासी पहाड़ों और नदियों के मध्य जंगलों में निवास करता आया है| उनका जीवन विभिन्न प्रकार की खनिज संपदा से भरपूर की पहाड़ियों के ऊपर भी रहा है| जिनपर धन के भूखे भेड़िये कार्पोरेट घरानों की सदैव से नजर रही है| जिसके चलते आदिवासियों को अपने आदिकालीन निवासों से पुनर्वास की समुचित नीति या व्यवस्था किये बिना बेरहमी से बेदखल किया जाता रहा है|

6. हमारे देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के नाम पर आदिवासियों के आजीविका के साधन प्राकृतिक जल, जमीन और जंगलों को उजाड़कर, उनके स्थान पर बड़े-बड़े बांध बनाये गये हैं और खनिजों का दोहन किया जा रहा है| जिसके चलते आदिवासियों का अपने आराध्यदेव, उनके अपने पूर्वजों के समाधिस्थलों से हजारों वर्ष का अटूट श्रृद्धा से जुड़ा सम्बन्ध विच्छेद किया जा चुका है| शहर में सड़क के बीचोंबीच स्थित छोटे से मन्दिर को सरकार तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, लेकिन लाखों-करोड़ों आदिवासियों के आस्था के केन्द्र जलमग्न कर दिये!

7. सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी सेवाओं में जनजातियों के लिये निर्धारित एवं आरक्षक्षित पदों का बड़ा हिस्सा धर्मपरिवर्तन के बाद भी आदिवासी वर्ग में गैर-कानूनी रूप से शामिल (क्योंकि ईसाईयत जातिविहीन है) पूर्वोत्तर राज्यों के अंग्रेजी में पढने वाले ईसाई आदिवासियों को मिल रहा है|

8. आज भी वास्तविक आदिवासियों का का उच्च स्तर की सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उनकी अपनी असली राजनीतिक ताकत है| इसके चलते आज भी आदिवासियों से सम्बन्धित हर सरकारी विभाग के अफसर आदिवासियों पर जुल्म ढहाते रहते हैं| जो कुछ मूल आदिवासी उच्च पदों पर पहुँच पाते हैं, उनमें से अधिकांश को अपने निजी विकास और एश-ओ-आराम से ही फुर्सत नहीं है, अपवादस्वरूप कुछ अफसर अपने वर्ग के लिये कुछ करना चाहें तो ऐसे अफसरों की गोपनीय चरित्रावलियॉं लाल स्याही से रंग दी जाती हैं|

9. आदिवासी आज भी जंगलों, पहाड़ों, और दूर-दराज के क्षेत्रों तक ही सीमित हैं| वहीं उनके हाट-बाजार लगते हैं, जिनमें उनका सरेआम हर प्रकार का शोषण और उत्पीड़न होता रहा है| इसके चलते आदिवासी राजनैतिक दलों के साथ सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाया और दलगत राजनीति करने वाले आदिवासी राजनेताओं आदिवासी वर्ग के साथ अधिकतर धोखा ही किया है| इस कारण आदिवासी आज तक वोट बैंक के रूप में अपनी पृथक पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो सका है|

10. आज भी आदिवासी परम्परागत ज्ञान और हुनर के आधार पर ही अपनी आजीविका के साधन जुटाता है| लेकिन धनाभाव तथा शैक्षणिक व तकनीक में पिछड़ेपन के कारण आदिवासी विकास की चमचमाती आधुनिक धारा का हिस्सा चाहकर भी नहीं बन पाया है| इस कारण उनके उत्पाद मंहगे होते हैं, जिनकी सही कीमत और महत्ता नहीं मिल पाती है|

11. अधिकतर आदिवासी मूल रूप से संकुचित स्वभाव के होते हैं| जिसके अनेक ऐतिहासिक कारण रहे हैं, लेकिन इसके कारण वे लोगों से पूरी तरह से घुलमिल नहीं पाते हैं, जबकि आदिवासी क्षेत्रों में जो भी सरकारी स्कूल संचालित किये जा रहे हैं, उनके अधिकतर शिक्षक गैर-आदिवासी होते हैं, जो उस क्षेत्र के लोगों की भाषा से अपरचित होते हैं या वे आदिवासियों के प्रति संजीदा नहीं होने के कारण पढाते समय आदिवासी बोली में पढाने पर ध्यान नहीं देते हैं| जिसके चलते आदिवासियों के बच्चे पढाई में प्रारम्भिक स्तर पर ही पिछड़ जाते हैं|

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

17 COMMENTS

  1. मीणा जी ,देर से ही सही,पर सोचा कि आपके इस लेख को बार बार पढने से आगे तो बढूँ.मैं इस लेख को बार बार इसलिए पढ़ ,रहा हूँ,क्योंकि इस लेख में मुझे प्रश्न से ज्यादा उत्तर नजर आ रहे हैं,यहाँ जिन ग्यारह अवरोधों का वर्णन आपने किया है, उनका कारण और उनके दूर करने के उपाय भी मुझे तो वहीं निहित दिख रहे है.जब तक आदिवासियों के मूलभूत समस्यायों को आदिवासी नेतृत्व नहीं समझपायेगा तब तक उनका पूर्ण समाधान संभव ही नहीं.कहने को तो सरकारें आदिवासियों के उत्थान के लिए आरम्भ से ही तत्पर दिखती रही हैं,पर भ्रष्टाचार जिससे आम आदिवासी नेता भी अलग नहीं हैइसको सफल नहीं होने दे रहा है.भारत के आदिवासी इलाकों को मैं भारत का सबसे ज्यादा साधन संपन्न इलाका मानता हूँ,फिर भी भारत का सबसे गरीब और पिछड़ा इलाका भी वही है,जबकी उस इलाके को सबसे आगे होना चाहिए था.इसे भारत के विभिन्न सरकारोंकी अदुर्दर्शिताकहूं या वहां के निवासियों का दुर्भाग्य..ऐसे मेरा निजी विचार है कि इन सबका मूल कारण है. भ्रष्टाचार. जिसका सबसे बड़ा भागीदार आज का आदिवासी नेतृत्व है.जब तक इस पर अंकुश नहीं लगता तब तक ये अवरोध ख़त्म नहीं होंगे और हमारा सम्पूर्ण आदिवासी समाज सरकार माओवादियों के दमन के बीच पीसते रहने को मजबूर होगा.ऐसे विकास के नाम पर बड़े बड़े बाँध बनाना या खनिजों का अत्यधिक दोहन भी आदिवासियों को अपने मूल निवास से उखाड़ रहा है.इस समस्या के समाधान के रूप में भी कुछ पलुओं पर विचार की आवश्यकता है.भारत का आदिवासी इलाका जंगलों और पहाड़ों से घिरा होने के कारण घनी आवडी वाला इलाका कभी नहीं रहा,अत:व्यस्थित रूप से से कार्रवाई की जाए तो न्यूनतम विस्थापन और पूर्ण पुनर्वास इस संसय को भी समाप्त कर सकता है पर बात फिर अटक जाती है शोषित और शोषक पर .जब तक शोषण करने वाला शोषितों को अपनी ही मानव बिरादरी का नहीं समझेगा तब तक यह भी संभव नहीं.

  2. विमलेश त्रिवेदी
    २१३,आदर्श नगर लिंक रोड जोगेश्वरी पश्चिम
    मुंबई ४००१०२
    मोबाइल ९६१९७३९३६८

  3. विमलेश जी आपके प्रस्ताव के लिए आभार! समय आने पर आपका सहयोग अवश्य लिया जायेगा! कृपया अपना संपर्क सूत्र बताने का कष्ट करें!
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  4. मीणा जी,
    (१)
    आपके नाम में जब दो दो मीणा गलती से लिखे गए, तो मैं ने उसमें से एक हटा दिया।
    (२)
    मैं निम्न प्रकारका कार्य रचनात्मक, सकारात्मक, विधायक इत्यादि समझता हूँ।और भी तरिके हो सकते हैं। ऐसा कोई कार्य पूछ रहा था।
    एकल विद्यालय नामक संस्था
    ३५,११५ (पैंतीस हज़ार एक सौ पंद्रह) शालाएं चलाती है।{यह आर एस एस से प्रेरित सेवाव्रती चलाते हैं} और भी बहुत बहुत कार्यकर्ता आवश्यक हैं।
    जहां ९८४,४८० छात्र-छात्राएं पढते हैं।
    इनमें कोई भेद भाव नहीं रखा जाता।
    शिक्षक शिक्षिकाएं भी बन पाए तब तक, वनवासी-आदिवासी-या उपेक्षित वर्ग के ही लिए जाते हैं।
    आप http://www.ekalvidya.com
    पर जाकर देख सकते हैं।
    हर तीसरे सप्ताह दवाइयां, एवं चिकित्सक भी भेजा जाता है। और भी अन्य सेवाएं उपलब्ध होती है।
    ऐसे कामों को मैं सकारात्मक मानता हूँ।

  5. श्री मधुसूदन जी आपने अपनी टिप्पणी में मेरे नाम को_”डॉ. पुरुषोत्तम ‘निरंकुश’ मीणा जी”_लिखकर किस बात का परिचय दिया या कराया है! ये तो आप जानें, लेकिन मुझे क्षमा करें मैं किसी उकसावे में उद्दंदत या अशिष्टता करने या लिखने के पक्ष में नहीं हूँ!
    सादर अभिवादन सहित!
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  6. श्री कौसलेन्द्र जी मैं “बहस” करने के बजाय (चाहे बहस कितनी ही स्वस्थ हो) चर्चा करने में ही विश्वास करता हूँ! इसलिए आपसे असहमत होते हुए, आपके विचारों का भी सम्मान करता हूँ! आपसे भी आशा रखता हूँ कि दूसरों के विसम्मत विचारों का सम्मान करें, बेशक आप उनसे सहमत नहीं हों!

    हाँ मेरा विचार (जिसे मैं अधिक सही जानकारी मिलने पर कभी भी बदलने को सहमत हूँ) है कि आर्य-अनार्य विषय पर अधिकृत और असंदिग्ध साक्ष्य किसी के पास भी नहीं हैं!

    “जेनेटिक फिंगर प्रिंटिंग” पद्धति जिसे विश्वास योग्य माना जाना चाहिए, लेकिन आर्यों और अनार्यों के हजारों वर्षों के सहजीवन, संसर्ग, सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध सहमति या जरूरत से यौनाचार, बलात्कार, नियोग, गन्धर्व या राक्षस विवाह आदि के चलते, सिवाय जन्म जातीय सोच और अपने पूर्वजों के अहंकार या सदाचार या जो भी रहा था के आलावा हमारे पास कुछ भी मौलिक रहा है! सम्पूर्ण विश्वास से कुछ नहीं कहा जा सकता!

    अत: मेरा निवेदन है कि ये विषय यहीं छोड़ा जाये और आगे बढ़ा जाये! क्योंकि इस विषय में विवाद बढ़ाने और सौहार्द बिगाड़ने से देश तथा लेखकीय धर्म कमजोर ही होगा!

    मूल सवाल ये है कि आदिवासी की हालत ख़राब है और मेरी नजर में उसके कुछ कारण हैं, जो यहाँ बहस नहीं, चर्चा के लिए प्रस्तुत हैं!

    चर्चा को सकारात्मक रूप से आगे बढ़ाने की अपेक्षा है! कोई भी इस चर्चा में भाग लेने या नहीं लेने के लिए स्वतंत्र है!

    अंतिम निवेदन चर्चा को लेख की विषयवस्तु तक ही सीमित रखें और निजी सवाल या कटाक्ष से बच सकें तो सभी का आभारी रहूँगा!

  7. खली पीली विरोध समर्थन से बात बनाने वाली नहीं है मीणाजी को भी इस बात को समझना चाहिए ठोस उपाय की जरूरत है .

    मीणा जी इन ठोस उपायों को मूर्त रूप देने में सक्षम है मीणा जी के ५००० समर्थक यदि चाहे तो १ महीने में कम से कम ५०० पिछड़े इलाको में व्यवस्था की बयार बदल कर सर्व सम्मत विकाश की धरा प्रवाहित कर सकते है .

    प्रवाह को गति देने हेतु हम जैसे सुदूर बैठे लोग मीणा जी को तन,मन,धन, से मदद कर इस शुभ कार्य के भागीदार बन सकते है.

    अन्यथा मीणा जी की बातो में कमिय निकले और मीणा जी उसका खंडन करे इसी में अपनी अपनी उर्जा व्यय करे .
    इससे क्या फायदा ?

  8. डॉ. पुरुषोत्तम ‘निरंकुश’ मीणा जी
    —आप अपने पांच हज़ार अनुयायियों को क्या क्या करने को कहेंगे?
    इन अवरोधों के रहते हुए, आपका संगठन क्या कर सकता है? यह मैं जानना चाहता हूँ।
    समस्या मान कर चलता हूँ।
    क्या जैसे आपने ११ अवरोध गिनाए। वैसे १, २, ३, ….. आपके ५००० कार्यकर्ताओं की ओरसे, क्या क्या किया जा सकता है?
    समस्या सुलझाने की दृष्टिसे पूछ रहा हूं।
    समस्या हमारी अपनी है। हमें ही सुलझानी होगी।

  9. मीणा जी ! यदि शीर्ष न्यायालय ने आदिवासियों को भारत का मूल निवासी होने का प्रमाण पत्र दे दिया है तो वैज्ञानिकों ने भी जेनेटिक फिंगर प्रिंटिंग के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि भारत के गैर आदिवासी और दक्षिण भारतीय भी भारत के ही मूल निवासी हैं वे कहीं बाहर से या एशिया माइनर से नहीं आये हैं. कई विद्वानों ने इस बात का प्रमाण सहित खंडन किया किया है कि आर्य एशिया माइनर से आये हुए विदेशी हैं …..वस्तुतः द्रविण, आर्य और आदिवासी सभी इसी देश के मूल नागरिक हैं. आदिवासियों के वैवाहिक सम्बन्ध समीप के क्षेत्रों में और आपस में ही सीमित थे जो उनेक विकास में बाधा का एक कारण रहा है . द्रविणों के वैवाहिक सम्बन्ध भारतीय उपमहाद्वीप तक विस्तृत थे और आर्यों के पूरे विश्व में हुआ करते थे. कदाचित वैवाहिक संबंधों का यह विस्तार भी आर्यों के सामाजिक, राजनैतिक, और आर्थिक विकास का एक कारण रहा होगा.
    यूरोप की रोमा जाति के घुमंतू लोग स्वयं को राम का वंशज मानते हैं. ज़र्मनी में भी कुछ लोग स्वयं को आर्य मानते हैं और स्वस्तिक चिन्ह को अपनाते हैं.
    हमें जो इतिहास पढ़ाया गया है वह अधिक विश्वसनीय नहीं है…….विवादास्पद है. इतिहास आगे वही बढाया जाता है जो विजित या शक्तिशालियों के हित में होता है. वास्तविक इतिहास जनश्रुतियों तक ही सीमित होकर रह जाता है. तथापि धर्मपाल जी ने जो भारतीय इतिहास लिखा है उससे बहुत कुछ यह प्रमाणित हो जाता है कि आर्य एशिया माइनर से आये विदेशी कदापि नहीं हैं. बहरहाल, आर्यों के पक्ष में जेनेटिक फिंगर प्रिंटिंग इन सबसे बढ़कर और विश्वसनीय प्रमाण है.

  10. श्री कौशलेन्द्र जी,
    नमस्कार|

    सर्व-प्रथम तो टिप्पणी करने के लिये आपका आभार और धन्यवाद| लेकिन केवल एक बिन्दु पर विचार व्यक्त करना और शेष पर मौन? समझ से परे है| आपने अपनी टिप्पणी में मूल निवासी और विदेशी को सवाल उठाया और अन्त में समाधान भी सुझाया है कि-

    ‘‘बंधू आप केवल दो ही जातियां क्यों नहीं स्वीकार करते ….शोषक और शोषित. क्या इनसे परे भी कोई वर्ग है?’’

    बन्धु कौशलेन्द्र जी यदि मामला आपके और मेरे बीच का होता तो मुझे या किसी को भी कुछ भी स्वीकारने या अस्वीकारने में कोई तकलीफ नहीं होती| और केवल स्वीकारनेभर से काम चल जाता तो भी किसी भी बात को स्वीकारने में किसी को भी क्या दिक्कत हो सकती है?

    इसके अलावा मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ कि (जैसा आपने भी लिखा है)‘‘आदिवासियों के नेताओं ने आदिवासियों के हित का कोई काम नहीं किया, बल्कि वे ही (ही नहीं, आजादी के बाद वे भी) उनकी दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हैं…क्या अन्य नेताओं की तरह वे भी देशद्रोही और समाजद्रोही नहीं हैं?’’ हॉं मानता हूँ इसमें कुछ भी गलत नहीं है| केवल ‘ही’ के स्थान पर ‘आजादी के बाद वे भी’ पढ लिया जाये|

    जहॉं तक मूल भारतीय शब्द का प्रयोग आपको और अन्य बन्धुओं को भी आपत्तिजनक लगने का सवाल है तो बन्धु ये मेरा खुद का ‘‘ईजाद’’ किया हुआ शब्द नहीं है| जैसा मैंने और आपने शिक्षालयों में पढा है और जो आज तक सही है, वही तो लिखा है| मैंने न तो कोई नया शोध किया है और न हीं मेरी इतनी क्षमताएँ हैं| मैंने इसे इसलिये भी ‘‘सही’’ लिखा है क्योंकि इस तथ्य को देश की शीर्षस्थ कोर्ट ने भी आदिवासियों के सन्दर्भ में मान्यता प्रदान कर दी है|

    इसके बाद भी यदि कोई विवाद है तो कृपया मुझे इसके लिये दोषी या जिम्मेदार नहीं ठहरायें| इसके लिये सुप्रीम कोर्ट में जायें और निर्णय को बदलवायें| जब तक ये निर्णय कायम है, कम से कम तक मैं आदिवासियों को मूल निवासी लिखने के लिये तो आजाद हूँ| आपसे भी उम्मीद करता हूँ कि आप भी सुप्रीम कोर्ट के लिर्णय का सम्मान करें या इसकी अपील करें|
    आपकी जानकारी के लिये-

    ‘‘आदिवासियों के सम्बन्ध में ५ जनवरी, २०११ को उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया| उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी १३ मई, १९९४ को महाराष्ट्र की भील आदिवासी महिला नंदा बाई के उत्पीड़न के प्रकरण पर सुनाये गये निर्णय का हिस्सा थी| जिसमें आदिवासियों को भारत का मूल निवासी बताया गया है|’’

    एक बार फिर से धन्यवाद|

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  11. आदरणीय श्री मधुसूदन जी,
    नमस्कार|

    सर्व-प्रथम तो इस आलेख पर टिप्पणी करने के लिये आपका आभार| कम से कम आपने टिप्पणी तो की कुछ अन्य लोगों के पास तो इस प्रकार के विषयों पर टिप्पणी करने के लिये समय ही नहीं होता| इसके लिये आपका धन्यवाद|

    आपने लिखा है कि सकारात्मक रूप से क्या कुछ किया जा सकता है क्या?

    मेरी यह समझ में नहीं आता कि बीमारी का पता लग जाने, बीमारी के कारणों का पता लग जाने और बीमार की यथार्थ हालत का पता लग जाने के बाद भी आपके द्वारा इस प्रकार की टिप्पणी करना….! पढकर दु:खद आश्‍चर्य हुआ! यदि मैं गलत नहीं हूँ तो कम से कम प्रवक्ता पर तो आपको विद्वान व्यक्ति के रूप में जाना जाता है!

    मेरा आपसे विनम्र निवेदन है कि यदि आपके पास समय हो तो कृपया इस आलेख को एक बार फिर से पढने का कृष्ट! सारे सकारात्मक समाधान स्वत: ही आपके सामने प्रकट होने लगेंगे| बशर्ते कि यह पढना सिर्फ पढना नहीं, पढना समझना भी हो|

    शुभकामनाओं सहित!

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  12. बिंदु क्रमांक ७ से पूरी तरह सहमत. धर्मांतरण के बाद जातिगत आरक्षण समाप्त हो जाना चाहिए. धर्मांतरण के पीछे धार्मिक नहीं अपितु सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह सबस बड़ा कारण है. जिस व्यवस्था से विद्रोह किया गया है उसी व्यवस्था के लिए निर्धारित विशेष सुविधा का लाभ पाने का अधिकार विद्रोही खो चुका है.
    बारम्बार “मूल भारतीय” शब्द का प्रयोग आपत्तिजनक है. इससे आपने शेष भारतीयों को पृथक कर दिया है. आदिवासियों के लिए प्रयुक्त यह शब्द गैर आदिवासियों का विदेशी होना ध्वनित करता है, जो एक और नयी समस्या को जन्म देने वाला है. जिसकी भावनाएं इस देश के प्रति आत्मीयता के साथ जुडी हुयी हैं वे सभी भारतीय हैं. जो भी लोग देश के शोषण में लगे हुए हैं उनके लिए देशद्रोही शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए ….फिर वे किसी भी कम्यूनिटी से क्यों न आते हों.
    मीणा जी ! आपसे निवेदन है कि आप गैर आदिवासियों के लिए ऐसे किसी शब्द का प्रयोग न करें जो उन्हें विदेशी होने की ओर इंगित या ध्वनित करता हो.
    आप स्वयं कई बार स्वीकार कर चुके हैं कि आदिवासियों के नेताओं ने आदिवासियों के हित का कोई काम नहीं किया बल्कि वे ही उनकी दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हैं…क्या अन्य नेताओं की तरह वे भी देशद्रोही और समाजद्रोही नहीं हैं ? बंधू आप केवल दो ही जातियां क्यों नहीं स्वीकार करते ….शोषक और शोषित. क्या इनसे परे भी कोई वर्ग है ?

  13. मीणाजी इन अवरोधकों के सामने सकारात्मक रूपसे क्या कुछ किया जा सकता है क्या?
    इस विषय में आपने कुछ चिंतन किया है क्या?
    इसपर पहल करने की तीव्र आवश्यकता दिखाई देती है|

  14. सरकारी व्यापर भ्रष्टाचार की ओर से टिप्पणी लिखने के लिए और आदिवासियों की समस्या के समाधान के बारे में सुझाव के लिए आभार!
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  15. आदरणीय मीणाजी, आपके ग्यारह कारण आदिवासीयो की प्रगति में बाधक है यह मै मानता हु किन्तु यदि मेरे दो कारण का निवारण सरकारी भ्रष्टाचारी कर दे तो देश के आदिवासी १ वर्ष में खुशहाल और आत्म निर्भर हो जाये ..
    (१) आदिवासियों की मेहनत और हक़ का पैसा इमानदारी से उन्हें मिल जाये तो आदिवासी की स्थिति मै भी भूखा ना रहू साधू न भूखा जाय परिपूर्ण हो जाएगी | एक साल का राशन आदिवासियों के घर में अडवांस रखा रहेगा
    (२) भूखे पेट भजन नहीं होय गोपाला ….जब पेट भरा रहेगा आदिवासी बच्चो और उनके पालको का ध्यान उनकी शिक्षा पर केन्द्रित होगा |
    आज इंदौर जैसे शहर में आदिवासी बच्चे कालेज पड़ने आये है उन्हें अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए बेलदारी करनी पड़रही अब जो बच्चे दिनभर बेलदारी /हम्माली करेंगे तो अपनी पढाईकैसे पूरी करेंगे ..इसलिए आदिवासी बच्चो की पढाई अधूरी रह जाती है | सरकारी भ्रष्टाचारी उनके विकास के लिए केंद्र और राज्य सरकार से मिला पैसा खा जा रहे है …..इंदौर में आदिवासी क्षेत्रो से मुश्किल से २००/२५० बच्चे आये होंगे क्या इंदौर कलेक्टर इनके रहने खाने ,पुस्तके आदि सुविधाओं की व्यवस्था नहीं कर सकते ? जी हां नहीं कर सकते जब सरकारी अस्पतालों में गरीबो को दवाईया बाजार से खरीदनी पड़ती है और कलेक्टर दूध पीकर सोया रहता है तो इन आदिवासी बच्चो को कौन देखेगा….यह वाही जान सकता है जो आदिवासियों के बीच रहा हो ..हर कोई नहीं…..

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