धर्म-अध्यात्म

जिंदा इस्लाम को किया तूने

तनवीर जाफ़री

इस्लामी नववर्ष का पहला महीना अर्थात् मोहर्रम शुरु हो चुका है। माह-ए- मोहर्रम की 10वीं तारीख यानी रोज़-ए-आशूरा गत दिनों पूरे विश्व में शहीद-ए-करबला हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए मनाया गया। हालांकि पूरी दुनिया नववर्ष का हर्षोल्लास के साथ स्वागत करती है। परंतु इसे इस्लाम धर्म का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस्लाम धर्म के प्रर्वतक तथा आखिरी पैगम्बर हज़रत मोहम्मद की हिजरत से जिस इस्लामी कैलंडर की शुरुआत हुई थी तथा उनके जीवन काल में इस्लामी जगत इस्लामी नववर्ष के पहले महीने के रूप में मोहर्रम महीने को हर्षोल्लास व जश्र के साथ मनाया करता था व नववर्ष का स्वागत करता था। हज़रत मोहम्मद के देहांत के मात्र 5 दशक बाद ही यही मोहर्रम का महीना हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के अन्य कई सदस्यों की शहादत का महीना बन गया। और अब मुस्लिम जगत, मोहर्रम का स्वागत हर्षोल्लास से या जश्र के रूप में नहीं बल्कि हज़रत इमाम हुसैन की याद में आंसू बहाकर उनकी याद में अपना लहू बहाकर तथा उनकी स्मृति में शोक सभाएं, जुलूस व जलसे आयोजित कर करता है।

वैसे तो इन दिनों पूरी दुनिया में इस्लाम धर्म किसी न किसी विषय खासतौर पर आतंकवाद जैसे मुद्दे को लेकर चर्चा में रहता है। परंतु इसके साथ-साथ यह बहस भी छिड़ी रहती है कि वास्तव में इस्लाम धर्म आतंकवाद को लेकर उन मुस्लिम युवाओं को क्या प्रेरणा देता है जो स्वयं को ‘इस्लाम धर्म का मुजाहिद’ बताते हुए स्वयं भी अपनी जान देने को तुले रहते हैं तथा अपने साथ तमाम बेगुनाहों को मारने के लिए भी मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार रहते हैं। यहां यह याद रखना चाहिए कि यही तथाकथित इस्लामी मुजाहिद मानसिकता के लोग यदि 9/11 के हमले में शामिल होते हैं तो यही 26/11 में भी शरीक होते हैं। यही बेनज़ीर भुट्टो को भी कत्ल करते हैं, यही 13 दिसंबर को भारत की संसद पर हमले के भी गुनहगार हैं। अक्षरधाम,रघुनाथ मंदिर के भी यही दोषी हैं। यहां तक कि पाकिस्तान, ईरान तथा इराक में हज़रत इमाम हुसैन की याद में आयोजित होने वाले मोहर्रम के जुलूसों व मजलिसों में होने वाले आत्मघाती धमाकों तथा इनमें सैकड़ों बेगुनाहों की मौतों के भी यही दोषी हैं। पाकिस्तान में कभी कई पीरों-फक़ीरों की दरगाहों तथा इमाम बारगाहों पर यही तथाकथित इस्लामी मुजाहिद सैकड़ों लोगों की जानें ले लेते हैं तो मस्जिद में नमाज़ अदा करने वाले शांतिप्रिय मुसलमानों पर गोलियां बरसा कर उन्हें शहीद करने वाले भी यही ‘जन्नत के ठेकेदार’ हैं। पाकिस्तान की लाल मस्जिद के भी यही चेहरे हैं।

इन ‘इस्लामी मुजाहिदों’ द्वारा अंजाम दी जाने वाली उपरोक्त व इन जैसी अन्य हिंसक घटनाओं से एक सवाल ज़ेहन में यह ज़रूर पैदा होता है कि आखिर इन स्वयंभू ‘मुजाहिदों’ का वास्तविक दुश्मन है कौन और स्वयं इनका अपना धर्म अथवा विश्वास है क्या? यदि यह स्वयं को मुसलमान कहते हैं तो इन्हें इस्लाम धर्म से जुड़े जलसे,जुलूसों,मस्जिदों,दरगाहों,नमाजि़यों तथा इमाम बारगाहों पर तो कम से कम हमला हरगिज़ नहीं करना चाहिए। परंतु यह ऐसा ही करते हैं। और यदि मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाले इन तथाकथित इस्लामी मुजाहिदों द्वारा अंजाम दी जाने वाली हिंसक कार्रवाईयों का विस्तृत ब्यौरा देखा जाए तो इनके द्वारा किए गए आत्मघाती हमलों,धमाकों तथा गोलीबारी में अधिकाँश मौतें मुस्लिम समुदाय के लोगों की ही हुई हैं और अब भी हो रही हैं। कहा जा सकता है कि ऐसा लगता है कि आज मुसलमान ही मुसलमान को मारने पर आमादा हो गया है। ऐसे हालात में यह प्रश्र ज़रूर उठता है कि दरअसल इन दो पक्षों में वास्तविक मुसलमान है कौन? मारने वाले या मरने वाले? स्वयं को इस्लामी जेहाद के सदस्य बताने वाले या इनकी गोलियों या धमाकों से मारे जाने वाले लोग।

आईए, इन दोनों ही पक्षों के फलसफों पर संक्षेप में रोशनी डालने का प्रयास करते हैं। इस्लामी जेहाद अर्थात् इस विचारधारा से जुड़े समस्त राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय आतंकी व तथाकथित धार्मिक संगठन पूरे विश्व में इस्लाम धर्म का परचम लहराने की योजना पर कार्य कर रहे हैं। जबकि विश्व का उदारवादी वर्ग जिनमें मुसलमानों का भी एक बहुत बड़ा वर्ग तथा तमाम मुस्लिम बिरादरियां शामिल हैं ‘जियो और जीने दो’ की नीति की पक्षधर हैं। स्वयं मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग कुरान शरीफ की ‘लकुम दीनकुम वाल-ए-दीन’ जैसी उस आयत का अनुसरण करता है जिसमें कहा गया है कि तुम्हें तुम्हारा दीन मुबारक और हमें हमारा दीन मुबारक। इस आयत से यह स्पष्ट होता है दीन-धर्म तथा विश्वास व आस्था को लेकर किसी के साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं है। ऐसे में धर्म के नाम पर शस्त्र उठाना तथा अल्लाह के नाम का दुरुपयोग करते हुए दूसरे बेगुनाहों की हत्याएं करना कहां का इस्लाम है।

शहीद-ए-करबला हज़रत इमाम हुसैन व उनके पिता हज़रत अली फरमाते थे कि मुसलमानों की बेटियां व बेटे कोई भी अनपढ़ व जाहिल न रहने पाए। जबकि जेहादी व तालिबानी इस्लाम लड़कियों की शिक्षा का विरोधी है। इतना ही नहीं इनके द्वारा लड़कियों के स्कूलों को बमों से भी उड़ा दिया जाता है। अल्लाह का कुरान तथा हज़रत मोहम्मद का इस्लाम कहता है कि यदि तुमने किसी बेगुनाह को कत्ल कर दिया तो गोया तुमने पूरी इंसानियत को कत्ल कर दिया। परंतु इन जेहादियों, तालिबानों व आतंकवादियों का धर्म तो गोया सिर्फ यही कहता है कि पूरी जिंदगी बेगुनाहों की हत्याएं ही करो और कुछ नहीं। हज़रत अली व हज़रत इमाम हुसैन द्वारा बताया गया इस्लाम धर्म यह सिखाता है कि सत्य तथा इस्लामी शिक्षाओं की रक्षा के लिए यदि ज़रूरत पड़े तो अपने व अपने पूरे कुनबे को खुदा की राह में कुर्बान कर दो। परंतु यह स्वयंभू इस्लामी जेहादी बंदूकों व बमों के बल पर इस्लाम फैलाने व इस्लाम की रक्षा करने जैसीे बातें करते हैं तथा दूसरे बेगुनाहों की जान लेने पर हर समय आमादा रहते हैं।

कुछ ऐसी ही विरोधाभासी परिस्थितियां आज से लगभग 1400 वर्ष पूर्व भी थीं। इस्लाम धर्म दो भागों में विभाजित होना शुरु हो चुका था। एक सत्ता का इस्लाम, बादशाहत का इस्लाम, शक्ति व अहंकार का इस्लाम और दूसरी ओर अध्यात्म, सहिष्णुता, प्रेम, सद्भाव व भाईचारे का इस्लाम। स्वयं को इस्लाम धर्म का पालनकर्ता व मोहम्मद को अपना पैगम्बर बताने वाला यज़ीद उस समय सीरिया की गद्दी पर बैठ चुका था तथा अपने आप को मुस्लिम व इस्लामी देश का शासक कहलाना चाह रहा था। उधर दूसरी ओर हज़रत मोहम्मद के नाती मदीने में मोहम्मद के वारिस के रूप में तीसरे इमाम की हैसियत से अपने इस्लामी धार्मिक कार्यों में शांतिपूर्वक लगे हुए थे। यज़ीद एक क्रूर, दुष्चरित्र, अधर्मी तथा आतंकवादी प्रवृत्ति का राजा था। यज़ीद हज़रत इमाम हुसैन से इस्लामी धार्मिक मान्यता प्राप्त राजा कहलवाए जाने का प्रमाण पत्र मांग रहा था। हज़रत हुसैन उसके जवाब में बार-बार यह कह रहे थे कि इस्लामी हुकूमत का राजा तुझ जैसा पापी, अहंकारी, दुष्ट, दुष्चरित्र व अधार्मिक व्यक्ति नहीं हो सकता। अत: तुझे इस्लामी राष्ट्र का बादशाह होने की मान्यता नहीं दी जा सकती। इस विषय पर यज़ीद व हज़रत हुसैन के मध्य राजनयिक स्तर की कई वार्ताएं हुईं। उन्हें तमाम लालच भी दी गई। परन्तु हज़रत इमाम हुसैन उसके किसी भी प्रस्ताव को मानने को तैयार नहीं हुए। और आखिरकार यज़ीद हज़रत इमाम हुसैन की जान लेने पर आमादा हो गया। परिणामस्वरूप करबला में मोहर्रम के महीने की 10 तारीख को इस्लामी इतिहास की सबसे हृदय विदारक घटना घटी जिसमें हज़रत इमाम हुसैन अपने परिवार के 72 सदस्यों के साथ यज़ीद की सेना के हाथों बेरहमी से शहीद कर दिए गए।

आज मुसलमानों के लगभग सभी वर्गों के लोग यहां तक कि हिंदू तथा अन्य कई समुदायों के लोग हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को किसी न किसी प्रकार याद करते हैं तथा उनकी याद में गम के आंसू बहाते हैं। अब 1400 वर्ष पूर्व के घटनाक्रम से लेकर आज तक इस्लामी इतिहास में होने वाली सभी घटनाओं को करबला की घटना को पैमाना बनाकर तौला जा सकता है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि चौदह सौ वर्ष पूर्व वास्तविक इस्लाम किसका था। हुसैन का या यज़ीद का। करबला के मैदान में जीत किसकी हुई। ज़ालिम यज़ीद की या मज़लूम व शहीद हज़रत इमाम हुसैन की। और 1400 वर्ष बाद आज भी पूरी दुनिया में घटने वाली उन हिंसक घटनाओं को जिनमें इस्लाम या मुसलमान का नाम शामिल हो रहा है, इसी करबला के पैमाने पर तौल लिया जाना चाहिए और समझ लेना चाहिए कि सच्चा व वास्तविक इस्लाम किसका है। हत्यारों का या शहीदों का। यज़ीदियत कल भी बेगुनाहों के हत्यारों का पर्याय थी और आज भी है जबकि हुसैनियत कल भी बेगुनाह शहीदों का प्रतीक थी और रहती दुनिया तक रहेगी। निश्चित रूप से हम कह सकते हैं कि हुसैनियत ही वह सच्चा इस्लाम है जो कुरान शरीफ,पैगम्बर हज़रत मोहम्मद तथा हज़रत अली ने दुनिया को बताया है। प्रसिद्ध शायर कुंवर महेंद्र सिंह बेदी ‘सहर’ शहीद-ए-करबला हज़रत इमाम हुसैन को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए फरमाते हैं-

जिंदा इस्लाम को किया तूने। हक को -बातिल दिखा दिया तूने।।

जी के मरना तो सब को आता है। मर के जीना सिखा दिया तूने।।