आत्माराम यादव पीव
नर्मदापुरम नगर के ग्वालटोली में निवासरत हीरालाल बानिये के घर दौलतराम जी का जन्म सन् 1918 में हुआ। दौलतराम जी की माॅ श्रीमति विनियाबाई एक धार्मिकप्रवृत्ति की महिला थी जो पूरे समय पूजापाठ मे निमग्न रहती। जन्म के बाद बालक दौलतराम अपनी माॅ के साथ पूजा-पाठ में लगा रहता और नियमित रूप से काली मंदिर पर होने वाले सभी धार्मिक आयोजनों, भजन-कीर्तन, जवारे-श्रावणी पर्व सहित भाद्रपक्ष के त्यौहार आदि सभी पर्वो पर बढ़चढ़कर हिस्सा लेता और नियम से साल में पड़ने वाली दोनों नवरात्रि पर एक लोंग खाकर व्रत रखता। दौलतराम ने माध्यमिक स्तर की पढ़ाई की किन्तु हायर सेकेण्ड़ªी परीक्षा में परिस्थितियों के कारण बैठ नहीं सका। गीता-रामायण, सुखसागर,प्रेमसागर जैसे ग्रन्थों की कथायंें उन्हें कंठस्थ थी। पढ़ाई के साथ उसका समय खेती-बाड़ी में गुजरता कि उसी समय रेल्वे में भर्ती षुरू हुई और सन् 1936 में रेल्वे में नौकरी मिल गयी।
रेलवे में उन्हें एस. ट्रॉलीमैन पद पर रहते हुये अक्सर अपनी ड्यूटी के साथ रेल्वेलाईनों की देखरेख पर निकलते तो भजन-कीर्तन गाया करते आनन्द में तल्लीन रहते थे। समय मिलने पर काली मंदिर में पूजा-पाठ आदि का अवसर भी नहीं गंवाते थे। रेल्वे में नौकरी करते हुये ग्वालटोली में काली मंदिर के स्थान पर 1967 में कालीजी की प्राणप्रतिश्ठा होने पर उनका देवी की भक्ति में झुकाब बढ़ता गया और वह समय भी आ गया जिसका उन्हें इंतजार था, वह समा था नौकरी से सेवानिवृत्ति का और सन् 1978 में वे सेवानिवृत्त हो गये। सेवानिवृत्त के पूर्व ही उन्होंने काली मंदिर ग्वालटोली में महाकाली की भक्ति व सेवा षुरू की। वे नियम से दोनों समय मंदिर के साथ-साथ पाण्डाल में साफ-सफाई व झाडू लगाया करते थे। कब उनका मन घर से उचाट हो गया उन्हें नहीं पता किन्तु रिटायरमेंट के तीन महिने बाद ही वे खुद को सन्यासी बनाकर भगवा रंग के कपड़े धारण करके अपने घर का परित्याग कर चुके थे और पूरे समय कालीमंदिर के पुजारी कक्ष में उनका समय निकलता और वे सुबह से ही पूजा-पाठ में लगे रहते। उनके गाये हुये भजन-आसपास के लोगों को खूब पसंद आते। उनकी माॅ काली के प्रति सच्ची भक्ति एवं सेवाभाव देखते बनता था और बहुत कम समय में ही वे हर तरह की बीमारी को अपनी झाड़नी से झाडकर ठीक कर देते थे जिससे आरति के पूर्व एवं पश्चात ग्वालटोली के अलावा दूसरे मोहल्लों के बीमारों, बच्चों-बूढ़ों सहित अन्य लोगों की कतार लगी रहती थी।
चॅंूकि काली मंदिर पर वे पुजारी अवश्य थे लेकिन मंदिर की पूर्ण व्यवस्था समाज की पंचायत देखा करती थी,जिससे अनेक बार समाज के लोग उनसे आये दिन अपने नियमों को थोपकर विवाद कर मंदिर से हटाने की धमकियाॅ भी दिया करते थे किन्तु मंदिर की पूजा-पाठ की सामग्री आदि में कोई खर्च नहीं करते थे तथा समाज के कुछ पंचों का मानना था कि मंदिर में मोटी चढ़ोत्तरी आती है जबकि सच में देखा जाये तो वे अपनी पेंशन से मंदिर के पूजा-पाठ एवं प्रसाद की व्यवस्था कर प्रतिदिन सुबह 4 बजे उठ जाते और 5 बजे सुबह नियम से आरति से निवृत्त हो जाते एवं शाम को साढ़े सात बजे आरति षुरू कर एक घन्टे आरती के बाद भजनकीर्तन षुरू होता जिसमें अधिकांष बुर्जुगों के साथ नयी उम्र के कई युवा भी षामिल होते। मंदिर की व्यवस्था के अलावा पंचायत के निर्णयों आदि सूचित करने व जबाव लेने-देने की जबरिया जबावदारी भी उन्हें सौंपी जाती थी। उनकी सहज प्रवृत्ति एवं हॅसमुख चेहरा सभी को आकर्षित करता था और इसी कारण मेरा भी झुकाव उनकी आरति ओर कीर्तन से हो गया था तथा मैं उनके समय आरति और कीर्तन में पहुॅचता तथा वर्श 1985 से 1995 का वह समय था जब अनेक बार उनके होषंगाबाद से बाहर जाने की स्थिति में उनके स्थान पर ये सारी जिम्मेदारियाॅ मुझे मिलती और मैं नियमानुसार होने वाली आरति-कीर्तन को सुबह 5 बजे और शाम को साढ़े सात बजे सम्पन्न कराता और हलुए का भोग तैयार कर भोग लगाता। ऐसा अनेक बार हुआ कि वे एक-एक सप्ताह के लिये बाहर रहे और मंदिर की पूजा आरति की जिम्मेदारी मैंने सॅभाली, जिसमें माॅ काली की पूजा-पाठ आराधना से मुझे अनेक दिव्यानूभूतियाॅ हुई वही समाज के कुछ लोगों की गंभीर आलोचनायें और तिरस्कृत षब्दों ने जीवन के विभिन्न आयामों से परिचय कराया और मेरे जीवन के अनेक पहलुओं पर छाये अंधकार की घटाओं को मैंने बनते-मिटती देखने का सुख-दुख प्राप्त किया।
एक समय ऐसा भी देखा जब समाज की पंचायत के कुछ स्वार्थी लोगों के कहने पर मंदिर की चाबी उनसे ले ली गयी और मेरे पिताजी श्री जगन्नाथ जी को मंदिर की आरति का प्रभार दिया, उन्होंने आठ महिने से अधिक समय मंदिर की जबावदेही सॅॅभाली इस अवसर पर उनके डयूटी पर जाने के कारण मुझे ही सब देखना पड़ता। समाज आरति के साथ मंदिर की पूरी व्यवस्था देखने और पूरे समय मंदिर पर जरूरत पड़ने पर उपस्थित रहने को कहता तब पिताजी ने समयाभाव में यह दायित्व समाज को सौंप दिया। तब तक महन्त दौलत दास जी अयोध्या-वृन्दावन आदि तीर्थी पर निकल कर अन्य मंदिरों के महंतों-साधुओं के साथ भगवत चर्चा और साधनारत रहे। समाज की पंचायत में मताभिवेद के रहते अनेक प्रकार की बाधाएं देखने को मिलती जिसमें इस विषाल मंदिर में विराजमान महाकाली की पूजा-पाठ का दायित्व को लेकर वे एकमत नहीं थे और आपसी वैचारिक मतभेदों के रहते कुछेक लोग महंत दौलत दास को देवी की साधना करते देखना नहीं चाहते थे, जबकि अधिकांश मत उनके पक्ष में था बावजूद उन्हें पंचायत के निर्णय पर मुखिया मथुरा प्रसाद महाते द्वारा आमंत्रित किया तब उन्होंने पंचायत को जवाब भिजवाया कि आप सभी पंचगण वैचारिक मतभेद से मुक्त हो जाये तो बता दें, मैं सन्यासी हॅू, इसलिये मुझे-मान-सम्मान, अपमान, निंदा-प्रशंसा आदि से कोई सरोकार नहीं। गृहस्थ को ये बातें कचोटती होगी, मुझे आपका अपमान करना-गाली देना भी मैं माॅ का आर्शीवाद समझता हॅू। समाज के पंचों ने उन्हें खबर देकर बुलाया था पर महंत का जवाब सुन सभी ने इसे पंचों और पंचायत का अपमान समझा।
पंचायत ने तब मंदिर के पुजारी के रूप में घनष्याम मास्साब ररहा को जिम्मेदारी दी। उन्होंने हनुमानमंदिर की जमीन के राग छेड़ ग्वालसमाज के हनुमानमंदिर की सम्पत्ति हड़पने वाले लखनमहाराज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया, तब पंचायत इस लड़ाई में कुछेक लोगों के कहने से पीछे हठ गयी और आठ-नौ महिने में घनष्याम मास्साव को पुजारी पद से विदा कर नाथूराम गुजेले को पुजारी बनाया,तब लापरवाही में महाकाली की मूर्ति खण्डित हो गयी, उन्हांेने यह बात छिपाकर जिम्मेदारी से मुक्ति चाही, तब खेमचन्द ररहा टेटवाले को कुछ महिने तक काली जी का पुजारी बनने का अवसर मिला, जिनसे नहीं सॅभलने पर अगली पंचायत में नारायण कछवाये को पुजारी बना दिया। इसी अवसर पर दबे जबान मूर्ति के खण्डित होने की बात सार्वजनिक होने पर पंचों ने अपनी गल्ति का एहसास कर फिर महन्त दौलतदास को ससम्मान बुलाया और विराजमान मूर्ति को विसर्जित कर पुनंः नयी मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की गयी और पुजारी का दायित्व महन्त दौलतदास जी द्वारा ग्रहण कर अनवरत जारी रहा।
वर्ष 1998 मार्च महिने के प्रथम सप्ताह का एक वाक्या है जब आरति के बाद सुबह 8 बजे के लगभग एक ताॅगा मंदिर पर आकर रूका जिसमें कोई बड़े सेठ के आने की सूचना महन्त दौलतराम जी को दी गयी। उन्होंने आते ही महन्त दौलतराम जी को कहा कि हम इस मंदिर में एक बड़ा आयोजन करने जा रहे है और भण्डारा करेंगे जिसमें पूरे मोहल्ले को दोपहर में भोजन कराया जायेगा। उन्होंने 500 मालाओं, दो क्विंटल गेंदा के फूल, 100 दर्जन केले आदि मंदिर में भेजे जाने की बात कहीं। कुछ समय बाद एक फूलवाला आया और उसने मंदिर का मुआवना करके मंदिर को फूलों से सजाना शुरू कर दिया। उसी समय मोहल्ले का एक छुटपुट व्यापारी अपने हाथठेले में केलों को लेकर निकला तभी उक्त सेठ ने कहा कि जितने केले है उतने मंदिर में रखो और 100 दर्जन केलों की व्यवस्था करों तथा मदद के लिये उसे कहा कि तुम एक-एक केला अलग करके बाॅटना शुरू कर दो। सेठ के आकर्षक व्यक्त्त्वि को देखकर महन्त दौलतराम जी हर्षित हुये कि चलो एक अच्छा काम होने से समाज के लोग प्रसन्न होेगे और मंदिर में भक्तों की भीड़ आयेगी।
इधर मंदिर में फूलवाला मंदिर को फूलों से सजाने का ठेका मिलने पर मंदिर को सजाने लगा और केले वाला केले के ढेर से केले तोड़कर रखने लगा। सेठ ने महन्त दौलतराम जी से कहा कि देखों घाट पर हम यह आयोजन करने वाले थे लेकिन अब आपके यहाॅ कर रहे है, चॅूंकि हमारे कर्मचारी घाट पर खाना बना रहे है इसलिये वहाॅ से खाना लाना है, इसलिये खाना लाने के लिये पीतल के पात्रों की व्यवस्था करनी होगी। महन्त जी से सेठ ने कहा मुनीम नही आया है कुछ पैसा हो तो दे दो उनके आने पर वह दक्षिणा सहित दे देंगे, महन्त जी ने अपनी पेंशन के पैसों में से बचे 1800 रूपये सेठ के हाथ में थमा दिये और खुद पीतल के गंजे-तसले लेने निकल पड़े। तब तक सेठ ने केले वाले को अलग बुलाकर पैसा मुनीम के पास होना बताकर उससे 300 रूपये यह कहकर लिये कि पूरे हिसाब में ज्यादा भुगतान हो जायेगा और यही बहाना कर फूलवाले से भी 200 रूपये बुलवा लिये। उधर महन्त दौलतराम जी पीतल के 9 गंजे,तसले, और बड़ी परात/थाली लेकर आ गये जिसे सेठ ने नर्मदाघाट पहुॅचाने को कहकर मोहल्ले के एक हाथठेला वाले को भेज दिया। पुराने बस स्टेण्ड पर सेठ ने हाथठेले वाले को कहा देरी हो रही है, हमारी गाड़ी आ गयी उसमें रखवा दो और एक टक में वे पीतल के बर्तन रखवा दिये गये, हाथ ठेले वाले को कहा तुम घाट पर गायत्री मंदिर पहुॅचों वहाॅ से भोजन से भरे बर्तन लाना हैं। हाथ ठेला वाला एक घन्टे घाट के मंदिरों पर घूमता रहा लेकिन न सेठ मिला न उनका कोई मुनीम। वह वापस काली मंदिर लौटा तब तक फूलवाला मंदिर को खूबसूरती से सजा चुका था और केले वाला मजे से केले बाॅट रहा था और लोग खा रहे थें। हाथ ठेले वाले ने पूरा वाक्या मंहन्त दौलत दास जी को कहा, तथा बताया कि आप और हम ठगे गये है। सच में उस दिन उक्त ठग ने गरीब लोगो का पैसा ऐंढकर और महन्त जी को 1800 रूपये के अलावा उनके द्वारा मोहल्ले के जिन घरों से पीतल बर्तन उधार लाये थे, उन सबके अलावा केले वाले, फूलवाले, हाथठेले वाले एवं ताॅगे वाले सबका चुकारा करना पड़ा, किन्तु ठगे जाने के बाद उनके चेहरे पर संतोष था कि काली मैया ने किसी बहाने तो मंदिर को फूलों से महकाया है।
आज महन्त दौलतदास जी इस दुनिया में नहीं है, लेकिन सभी के मुख पर उनके उदारमना चरित्र एवं माता महाकाली मंदिर पर माॅ की पूजा-अर्चना कर दीनदुख्यिों की सेवा करने को माॅ काली की सेवा माना गया और इसी कारण वे ज्यादा दुखी-पीड़ित के घर भी पहुॅचकर उन्हें झाॅड-फूककर स्वस्थ्य कर देते थे और किसी के घर से किसी भी प्रकार का भोजन,प्रसादी अथवा सीधा आदि स्वीकार नहीं करते थे। जब मेैं उन्हें याद कर रहा हॅू तब मुझे इस बात का दुख अवश्य है कि उनके जीवनकाल में जिस प्रकार उन्होंने बिना प्रलोभन के, बिना किसी स्वार्थ के अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक समर्पित भाव से सेवा की, उसी व्यक्ति को समाज से सम्मान और सहयोग का अभाव झेलना पड़ा, किन्तु खुशी इस बात की है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद जीवनपर्यन्त तक धर्म आध्यात्म को अपनी सॉसों में जीते हुए समर्पण व सेवाभाव की मूर्ति बन महन्त का पद शिशोभित करते रहे ।
आत्माराम यादव पीव