समाज

परिवार नाम की संस्था का मजाक बनाती यह अनोखी शादी

 अनुशिखा त्रिपाठी

संस्कारधानी के नाम से मशहूर जबलपुर के रांझी क्षेत्र के नवदंपत्ति जो इस वर्ष २३ फरवरी को ही दाम्पत्य सूत्र में बंधे हैं अचानक ही बहस का केंद्र बन गए हैं| इन्होंने जो कदम उठाने का विचार किया वह शायद देश का इकलौता ऐसा मामला है जहाँ शादी के चंद माह बाद ही दोनों ने आपसी सहमति से नसबंदी करवाने का फैसला कर लिया| दोनों के इस फैसले का पहले तो परिजनों ने कड़ा विरोध किया किन्तु बाद में थक-हार कर सहमति दे दी| हालांकि स्वास्‍थ्‍य विभाग ने उनके आवेदन को नियम विरुद्ध बताते हुए उसे खारिज कर दिया किन्तु उनके इस कदम की खासी आलोचना हुई है| वैसे नवदंपत्ति का आजीवन निःसंतान रहने का निर्णय उनका नितांत व्यक्तिगत निर्णय है तो भी इसने समाज में एक नई बुराई को जन्म देने की नींव रख दी है| कौन जाने कल इसी तरह के मामले देश के अन्य शहरों से भी सुनाई देने लगें तो परिवार नाम की संस्था के अस्तित्व का क्या होगा? नवदंपत्ति का कहना है कि चूँकि उनके जीवन में पहले से ही कहीं अधिक जिम्मेदारियों का बोझ है लिहाजा वे निःसंतान रखकर ही वैवाहिक सुखों का भोग करना चाहते हैं| उनकी सोच वर्तमान आर्थिक, सामाजिक व पारिवारिक परिपेक्ष्‍य के लिहाज़ से देखें तो कहीं न कहीं एक हद तक उनसे सहमत हुआ जा सकता है| यहाँ सहमति का यह अर्थ नहीं कि उनका जीवन भर निःसंतान रखने का निर्णय सही है बल्कि सहमति का अर्थ हम दो हमारा एक का सूत्र भी हो सकता है| मगर जिंदगी भर निःसंतान रहने का उनका निर्णय किसी भी आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता| आखिर क्या विवाह नाम की संस्था का वर्तमान जीवन में इतना सा ही अर्थ रह गया है कि नवयुगल मात्र मौज-मस्ती करें? कदापि नहीं|

प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल में कितना भी बदलाव आ गया हो किन्तु विवाह को आज भी पवित्र बंधन माना जाता है| विवाह में न केवल दो जिस्म एक होते हैं वरन दो परिवारों के संस्कारों के मध्य भी एकाकार होता है| फिर विवाह ही वह माध्यम है जिससे संसार चक्र निर्बाध रूप से चलता है| विवाह का मतलब मात्र दैहिक आकर्षण या मौज-मस्ती नहीं होता, विवाह वंश परंपरा को पल्लवित करता है| एक सामान्य स्त्री या पुरुष वैवाहिक बंधन में बंधकर ही परिवार का महत्व समझ सकते हैं| अग्नि के समक्ष सात फेरे लेना और मांग में सिंदूर सजाना वैवाहिक निशानियाँ ज़रूर हैं किन्तु जब तक वैवाहिक जीवन के प्रदत्त दायित्वों को तन्मयता से पूर्ण न किया जाए, वैवाहिक बंधन का कोई औचित्य नहीं है? परिवार के रूप में व्यक्ति जीना सीखता है| फिर जीवन के तीन काल खण्डों में से बचपन और जवानी तो खेल-खेल में निकल जाती है लेकिन बुढ़ापा बहुत कष्ट देता है| उस वक्त जब हाथ-पैर चलना बंद कर देते हैं, स्मरणशक्ति लुप्त होने लगती है, आँखों की रौशनी कुंद हो जाती है तब अपना बीज ही सहारा देता है| हो सकता है इस मामले में औरों की सोच मुझसे भिन्न हो किन्तु संतान ही ऐसा सहारा होती है जो माँ-बाप के आखिरी वक्त में उनकी लाठी बनती है| ऐसे में नवदंपत्ति का जीवन भर निःसंतान रहने का निर्णय समझ से परे है?

हालांकि उनके निर्णय के पीछे उनकी सोच व आधुनिक जीवन शैली का बहुत बड़ा हाथ है तो भी उनकी सोच परिवार से खत्म हो रहे संस्कारों की ओर इशारा करती है| एकल परिवारों ने वैवाहिक संबंधों को स्वयं तक सीमित कर दिया है| अब पति, पत्नी और एक बच्चा का चलन तेज़ी से चला है| परिवार नियोजन की दृष्टि से यह पूर्णतः सही भी है लेकिन निःसंतान रहने की चाह और उसपर भी वैवाहिक सुखों को मात्र दैहिक भोग समझ कर भोगना कहाँ की समझदारी है? जबलपुर का यह अनोखा मामला आगे चलकर न जाने कितने ऐसे मामलों का आदर्श बनेगा? आखिर हमारी युवा पीढ़ी की सोच कहाँ जा रही है? क्या नवदंपत्ति ने इस तरह का फैसला लेने से पहले यह सोचने की जहमत उठाई कि यदि उनके माता-पिता भी यही सोच रखते तो क्या आज उनका अस्तित्व होता? युवा पीढ़ी की सोच का इतना विघटन देखकर कोफ़्त होती है कि क्या मौज-मस्ती ही जीवन का सार है? क्या इसी लिए उनका जन्म हुआ है? उनकी स्वयं के प्रति, अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियों का क्या? आखिर कौन समझाएगा इस पथ-भ्रष्ट युवा पीढ़ी को?