कविता

बसे अंनूठी मॉ

दुख आया तो दवा नहीं ली

हारी नहीं, तू खुद से लडी थी।

पिताजी देखे, सख्‍त बहुत थे

तनखा लाकर, वे दादी को देते ॥

पाई पाई को, तू तरसा करती

मजबूरी थी, तू मजदूरी करती।

बेकार हुये, जब कपड़े पिता के

झट सिलवाती, रहे न हम उघडे॥

वे भी क्‍या दिन, अपने थे मॉ

होटल में बर्तन, हम धोते थे मॉ ।

हिमालय सा दुख, अकेले झेला

नियति ने खेल, तुझसे खेला॥

एक नहीं, कई बार हुआ था

गुनियों का, सत्‍कार हुआ था।

बीमारी से, तेरा हाल बुरा था

डाक्‍टर थे, पर तुझे न दिखाया ।

दादी ने, गुनियो को बुलवाया

नस उठी है, उसे बिठलाना है ॥

गुनियों ने, यह फरमान सुनाया

दहकती आग में, सरिये सुलगाये

तेरी पीठ, छाती में दाग लगाये

सह न सकी दर्द, तू चीत्‍कार उठी

पीव कोई न पसीजा, बने सभी हठी।

गुपचुप ऑसू पी, तू चेहरे से मुस्‍काई माँ

दुख तेरा हिमालय सा, तू बताती राई माँ ।