बेपर्दा सन्त-महात्मा कितना सच!

भारत जैसे देश में जहाँ कृष्ण जैसे महान व्यक्तित्व ने सभी क्षेत्रों में सच्चाई को स्वीकार करके एक से एक नायाब उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वहाँ हम क्यों चाहते हैं कि सन्त या महापुरुष मुखौटे धारण करके अप्राकृतिक जीवन जियें? सेक्स या सम्भोग एक अति सामान्य और स्वाभाविक क्रिया होने के साथ-साथ प्रत्येक जीव के लिये अपरिहार्य भी है, जिसे रोकना या दमित करना अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियों और विकृतियों को जन्म देता है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इसे कभी भी रोकना नहीं है, बल्कि हर हाल में इसकी जरूरत को स्वीकार करने का साहस जुटाना होगा। तब ही हम सच्चे महापुरुषों एवं सन्तों को फलते-फूलते देख सकते हैं। अन्यथा हमें अपने आपको आये दिन ऐसे यौनाचारी तथा पाखण्डी साधु-सन्तों और महापुरुषों या राजनेताओं के हाथों अपनी भावनाओं को आहत होते रहने देने के लिये सदैव तैयार रखना चाहिये।

गत वर्ष 28 दिसम्बर को काँग्रेस के वयोवृद्ध (85 वर्षीय) नेता एवं आन्धप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी को कथित रूप से तीन युवतियों के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखे जाने के बाद, अपने पद से त्यागपत्र देना पडा। इससे पूर्व एक युवक ने तिवारी पर अदालत में याचिका दायर करके आरोप लगया था कि वह नारायण दत्त तिवारी का पुत्र है और उसने अदालत से तिवारी का एवं अपना डीएनए टेस्ट करवाने की गुहार भी लगाई थी। यह अलग बात है कि बडे लोगों के मामले में अदालत भी दोहरे मानदण्ड अपनाती देखी जा रही है। जिसका जीता जागता प्रमाण है कि आज तक तिवारी का डीएनए टेस्ट करवाने की अनुमति नहीं मिल पाना। अनेक और भी मामले हैं, जिनमें बडे लोगों के प्रति अदालतों को नरम या भिन्न रुख अपनाते देखा जा सकता है।

कुछ वर्ष पूर्व गुजरात में जैन सन्त सेक्स स्केण्डल में लिप्त पाये गये थे। गुजरात से ही ताल्लुक रखने वाले सन्त आशाराम एवं उनके पुत्र नारायण सांई पर भी अनेक बार आपत्तिजनक आरोप लग चुके हैं। दिल्ली में इच्छाधारी सन्त को सेक्स रैकेट में पकडे जाने की खबर अभी ठण्डी भी नहीं हुई थी कि कर्नाटक के स्थानीय समाचार चैनलों ने परमहंस नित्यानंद के दो महिलाओं के साथ अश्लील कृत्य में शामिल होने का वीडियो फुटेज जारी कर दिया। जिससे परमहंस नित्यानंद के विरुद्ध स्थानीय लोगों का गुस्सा फूट पडा और लोग सडकों पर उतर आये एवं नित्यानन्द की तस्वीर को जूतों से पीटते हुए अनेक हिन्दी चैनलों पर भी दिखाये गये। परमहंस नित्यानंद का वह आश्रम जहाँ पर वे लोगों को प्रवचन दिया करते थे, 29 एकड के क्षेत्र में फै ला हुआ है। जिससे उनके बडे और धनाढ्य सन्त होने का प्रमाण स्वतः ही मिल जाता है। आश्रम के एक प्रवक्ता ने कहा कि परमहंस नित्यानंद के खिलाफ साजिश रची गई है। कुछ वर्षों इसी प्रकार के आरोपों वाला एक आलेख पूर्ण पुट्टपर्ती के साई बाबा पर भी देश की प्रतिष्ठित पत्रिका इण्डिया टुडे ने प्रकाशित किया था। परन्तु बात आई-गयी हो गयी। मामला दब गया और जनता भूल गयी। उस समय मुरली मनोहर जोशी देश के मानव संसाधन मन्त्री थे और वे साई बाबा के भक्त रहे हैं।

उपरोक्त कुछ मामले तो इस आलेख के प्रारम्भ में भूमिका के रूप में दिये गये हैं। अन्यथा इस प्रकार के अनेकों अदाहरण हर गाँव, शहर और कस्बे में मिल जायेंगें। इतिहास उठाकर देखें तो हर कालखण्ड में ऐसे अनेकों मामले होते रहे हैं। हर वर्ग, जाति और सम्प्रदाय में कमोबेश इस प्रकार की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। भारत में ही नहीं हर देश में इस प्रकार के मामले देखे जा सकते हैं। चूंकि पूर्व में इस प्रकार की घटनाएँ खबर नहीं बन पाती थी। इसलिये लोगों को पता नहीं चल पता था, लेकिन इन दिनों मीडिया में गलाकाट प्रतियोगिता चल रही है। इसलिये चैनल और समाचार-पत्र अपनी दर्शक एवं पाठक संख्या में वृद्धि करने के लिये आजकल तो ऐसे हालातों को पूर्व नियोजित तरीके से घटनाओं में परिवर्तित करके खबरें बना कर बेच रहे हैं।

ऐसे हालात में जनता की ओर से हंगामा करने और देश तथा जनता की सम्पत्ति को नुकसाने पहुँचाने वाली भीड को उकसाने के लिये मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। मीडिया के लोगों में भी ऐसे मामले ढेरों मामले हैं, लेकिन बिना मीडिया के सहयोग के उन्हें उजागर करना किसी के लिये सम्भव नहीं है। पिछले दिनों मुझे मेरे एक मित्र ने बताया कि अपने आपको राष्ट्रीय चैनल कहने वाले दिल्ली (नोएडा) के एक चैनल में युवा और सुन्दर दिखने वाली लडकियों को आऊट ऑफ टर्न (बिना बारी के) पदोन्नति देना आम बात है और एक-दो बर्ष बाद ही उन्हें बाहर का रास्ता भी दिखा दिया जाता है।

इस सन्दर्भ में, मैं कहना चाहता हूँ कि यदि हम इतिहास के पन्ने पलट कर देखेंगे तो पायेंगे कि ऋषी-मुनियों के काल से लेकर आधुनिक काल के सन्तों तक कोई भी काल खण्ड ऐसा नहीं रहा, जिसे कि हम यौनाचार से मुक्त काल कह सकें। आदि काल में केवल पुरुष यौनाचार करने या इसे बढावा देने के लिये जिम्मेदार माना जाता रहा था, जबकि आज के समय में स्त्री ने उस पर पुरुषों द्वारा थोपी गयी लक्ष्मण रेखा को लांघना शुरू कर दिया है।

मानव मनोविज्ञान का सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जब भी किसी पर कोई बात जबरन थोपी जाती है तो उसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से भयंकर होती है। हम आम लोग मानव होकर के भी मानव की स्वाभाविक वृत्तियों को भुलाकर ईश्वर की आराधना से जुडे लोगों, जिन्हें हम सन्त-महात्मा कहते हैं से अपेक्षा करने लग जाते हैं कि ईश्वर की भक्ति का रस चखने वाला व्यक्ति अन्य बातों के अलावा काम से तो पूरी तरह से मुक्त होना चाहिये, जबकि सच में ऐसा न तो कभी हुआ है और न हीं वर्तमान में और न हीं ऐसा सम्भव है। कुछ कपोल कल्पित कहानियों को छोड दिया जाये तो स्वयं हमारे भगवान भी काम से मुक्त नहीं रहे हैं तो फिर भगवान के भक्तों से काम से मुक्त रहने की अपेक्षा करना उनके साथ ज्यादती के सिवा कुछ भी नहीं है।

गाईड फिल्म के हीरो की तरह कोई बात जब किसी पर थोप दी जाती है तो उस व्यक्ति की मजबूरी हो जाती है कि वह जनता द्वारा गढी गयी छवि के अनुरूप आचरण करने का प्रयास करे। जबकि उसके अन्दर बैठा मानव तो आम मानव जैसे सभी कार्य करने को छटपटाता रहता है। हम ऐसे कथित या वास्तविक सन्तों से आम मानवीय आचरण करने की अपेक्षा नहीं करना चाहते। इसी का परिणाम है कि उन्हें मुखौटा लगाकर जीने को विवश होना पडता है। जैसे ही मुखौटे से पर्दा हटता है, हम ऐसे व्यक्ति के फोटो पर जूतों की माला पहनाने लगते हैं।

इसके पीछे भी हमारा एक मनोविज्ञान है। हमें इस बात का उतना दुःख नहीं होता कि सन्त महाराज ऐसा यौनाचार क्यों कर रहे हैं, बल्कि दुःख इस बात का होता है कि सन्त की जो छवि हमने गढी वह टूट क्यों गयी। हमने धोखा क्यों खाया? अब हम किसके समक्ष अपने पापों का पायश्चित करेंगे? हम लोगों के समक्ष किस प्रकार से कह सकेंगे कि हम यौनाचारी सन्त के भक्त रहे हैं? यही नहीं, बल्कि कुछ भक्तों को तो ऐसे मामले उजागर होने पर इस बात के कारण भी गुस्सा आता है कि जिस यौनानन्द से वे स्वयं वंचित हैं और जिन यौनानन्दों को त्यागने के लिये सन्त जी प्रवचन देते रहे, वे स्वयं उनका पूर्णानन्द लेते रहे?

इस सम्बन्ध में एक बात पाठकों की अदालत में रखना जरूरी समझता हँू, बल्कि एक सवाल उठाना चाहता हूँ कि भक्तगण क्या इस बात से परिचित नहीं हैं कि जब वे सन्तों के प्रवचन सुनने जाते हैं तो दान पेटी में जो भी धन अनुदान करते हैं, वह सन्त जी जेब में जाता है। इस धन को दान करने के पीछे भक्तों का विचार नेक हो सकता है, लेकिन इस धन के उपयोग के बारे में भी तो भक्तों और अनुयाईयों को विचार करना चाहिये। मुझे याद है कि दस वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के एक शहर में एक सन्त जब भी सात दिन के लिये प्रवचन देने आते थे तो आयोजक उन्हें दस लाख रुपये का अग्रिम भुगतान किया करते थे। जिसके बदले में दान पेटी से आने वाला धन तथा एकत्रित किये जाने वाले चन्दे पर कार्यक्रम आयोजकों का पूर्ण अधिकार होता था। इस प्रकार के आयोजनों से आयोजकों को सात दिन में कई लाख की कमाई होती थी। इस प्रकार की बातों के बारे में जानकारी होने के बाद भी भक्तगण दान पेटी में प्रतिदिन कुछ न कुछ अवश्य ही डालकर आते हैं।

यदि निष्पक्षता से देखा जाये तो धन और सन्त का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिये। सच्चे सन्त को तो दो वक्त के भोजन और जरूरी कपडों के अलावा किसी वस्तु की जरूरत होनी ही नहीं चाहिये। लेकिन आज के सन्त तो वातानुकूलित कक्षों में निवास करते हैं और वातानुकूलित वाहनों में ही यात्रा करते हैं। हम स्वयं उन्हें सारी सुख-सुविधाएँ जुटाते हैं, लेकिन इसके विपरीत हम यह भी चाहते हैं कि कंचन (धन-दौलत) के करीब रहकर भी वे कामिनी (काम) से दूर रहें! क्या यह आसान और सम्भव है? ऐसा हो ही नहीं सकता। इसलिये जो-जो भी सन्त यौनाचार के कथित आरोपों में पकडे जा रहे हैं, उनको इस मार्ग को अपनाने के लिये प्रत्यक्षतः भक्त भी उकसाते हैं।

इस सम्बन्ध में यह बात और भी विचारणीय है कि प्रत्येक स्त्री और पुरुष का अनिवार्य रूप से यौन जीवन होता है। जिसे भोगने का उसे जन्मजात और संविधान सम्मत अधिकार होता है। जब हम सन्त और महापुरुषों से अपेक्षा करते हैं कि वे सेक्स से दूर रहें तो हम संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित दैहिक स्वतन्त्रता के मूल अधिकार से सन्तों को वंचित करने का अपराध कर रहे होते हैं। जिसकी प्रतिक्रिया में इन लोगों को मूजबूरन गोपनीय रूप से अपनी यौनेच्छा को तृप्त करना पडता है, जिसमें पकडे जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। फिर भी आज के समय में सन्त होना सबसे सुरक्षित व्यवसाय सिद्ध हो रहा है!

भारत जैसे देश में जहाँ कृष्ण जैसे महान व्यक्तित्व ने सभी क्षेत्रों में सच्चाई को स्वीकार करके एक से एक नायाब उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वहाँ हम क्यों चाहते हैं कि सन्त या महापुरुष मुखौटे धारण करके अप्राकृतिक जीवन जियें? सेक्स या सम्भोग एक अति सामान्य और स्वाभाविक क्रिया होने के साथ-साथ प्रत्येक जीव के लिये अपरिहार्य भी है, जिसे रोकना या दमित करना अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियों और विकृतियों को जन्म देता है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इसे कभी भी रोकना नहीं है, बल्कि हर हाल में इसकी जरूरत को स्वीकार करने का साहस जुटाना होगा। तब ही हम सच्चे महापुरुषों एवं सन्तों को फलते-फूलते देख सकते हैं। अन्यथा हमें अपने आपको आये दिन ऐसे यौनाचारी तथा पाखण्डी साधु-सन्तों और महापुरुषों या राजनेताओं के हाथों अपनी भावनाओं को आहत होते रहने देने के लिये सदैव तैयार रखना चाहिये।

अन्त में एक बात और भी कहना चाहूँगा कि जो-जो भी सन्त या महापुरुष सेक्स स्केण्डल में पकडे जा रहे हैं, जरूरी नहीं कि वे वास्तव में दोषी हों? हो सकता है कि कुछ लोगों या संगठनों ने अपने स्वार्थ साधन के लिये या अपना प्रभाव बढाने के लिये या सन्त का प्रभाव समाप्त करने के लिये ड्रामा रचाकर सेक्स स्केण्डल की रचना कर डाली हो? क्योंकि सन्तों या गुरुओं के मामले में प्रचार पाने का अवसर आसनी से मिल जाता है। इसलिये आम लोगों को हर बात को केवल मीडिया की दृष्टि से पढने, देखने और सुनने की आदत पर विराम लगाकर अपने विवेक का भी इस्तेमाल करना चाहिये।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

3 COMMENTS

  1. आधुनिक बाबाओं के मामले में आपके मत से पूरी तरह सहमत हूँ मीणा जी ! धर्म और आध्यात्म की दुकाने खोलकर बैठे ये बाबा हिन्दू धर्म का अहित ही कर रहे हैं.

  2. विनम्रतासेहि कहूंगा, कि, आपका दृष्टिकोण अधूरे संतोंके विषयमें ठीक हो, पर ऐसे भी संत हैं, जिन्होने कामेच्छाओंको ओजस्‌ में संप्लवित किया है। इस विषयमें आपकी जानकारी पूरी प्रतीत नहीं होती, क्षमस्व।
    हरेक संत एक प्रगतिकी राह पर अग्रसर है, वह भी स्खलित होनेकी संभावना है।
    लेकिन, सफल उदाहरणोके लिए, विवेकानंदजी, रामदास, शंकराचार्य, गुरूजी गोलवलकर,ऐसे—-बहुत सारे है। हां, कुछ संत स्खलित हो सकते हैं।इसीलिए सामान्य जनके लिए,— ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, सन्यस्ताश्रम—- का निर्धारण है। लेकिन कुछ संत छलांग मारकर ब्रह्मचर्याश्रमसे सीधे सन्यस्ताश्रममे जाते हैं। जिस मानसिकतासे यह बात समझमें आए, ऐसी मानसिकता हुए बिना, यह बात समझमें आना कठिन है।आप अपनी मानसिकता, और व्यक्तिगत अनुभवोंके, और सामान्य मानस शास्त्रके नियमोंके अंतर्गत सारी प्रक्रियाओंको विश्लेषित नहीं कर सकते।कभी कभी संत कच्चे होनेके कारणभी सफल नहीं हो पाते।
    लेकिन ऐसे समर्थ संत, प्रसिद्धिसे दूर, गिरि कंदराओमें, निर्जन वनमें पाए जाते हैं। वे धनी लोगोंकी सेवा लेने,परदेश जाकर प्रचार नहीं करते, स्थावर भू संपत्तिसे दूर भागते हैं। इसे वे गुलामी (मुक्तिसे दूर) समझते हैं।राजनीतिज्ञोंको नहीं लुभाते।संस्थाओंको स्थापते भी नहीं। जिन्हे प्रसिद्धिकी चाह नहीं, उनका नाम कोई जाने, ऐसी भी चाह नहीं। वे निस्पृह होनेसे, विज्ञापन बिना, उन्हे ढूंढ निकालना भी कठिन होता है। केवल किसी “संयोग”वश ही उनसे संबंध आता है। कुछ (एक हातकी उंगलियोंपर गिने, इतनेहि) ऐसे संतोंके संपर्कमें टिप्पणीकार आया है। कुछ और संत, तो श्वेत वस्त्र धारी भी देखे हैं। आदरसहित —

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