बसंत आते ही पानी की चिंता हमें सताने लगती है। पानी की कमी की वजह से पलायन जैसी खबरें सुर्खियों में सजती हैं। जल संकट के नाम पर विचार गोष्ठियों का आयोजन होता है। इस संकट से निजात पाने के लिए सरकारी महकमों में हल्ला तूफान मचता है और बारिश आते ही हम जल संकट की चिंता से खुद को मुक्त कर लेते हैं।
पानी बचाने की चिंता जाड़े या बरसात के दिनों में नहीं होती। हमारे देश में ऐसा रिवाज नहीं है कि हम बेमौसम किसी मुद्दे की बात करें। संकट आने पर हम उसके समाधान की सोचते हैं। यही वजह है कि बारिश के दिनों में बाढ़ और उसके बाद उपजी बीमारियों की चिंता करना हमारी आदतों मे शुमार हो गया है। जाड़े के दिनों में शीत लहरी से बचने की चिंताएँ फूटती हैं और उसके बाद बारी आती है पानी की कमी से बचने की।
जल संकट आकस्मिक नहीं होता। हमारी नीतिगत भूलें एक लम्बी प्रकिया का परिणाम होतीं हैं। तभी तो 26 जनवरी 2001 में भुज में आये भूकंप की वजह अत्याधिक भूजल माना जाता है। एक जमाने में चेरापूंजी में (दुनियाभर में) सबसे ज्यादा बारिश होती थी। आज वही इलाका जल संकट से जूझ रहा है। ऐसा जंगल काटे जाने से हुआ। समूचा विश्व वनों की कटाई और भूगर्भजल के दोहन की वजह से आज जल संकट से जूझ रहा है। यह समस्या लगातार गहराती जा रही है।
पहले राजा रजवाड़े तालाब, कुएँ, बावड़ियों तथा चौपड़ों का निर्माण करवाते थे। हमारे देश की जल संग्रह व्यवस्था को ईरान में भी अपनाया गया था। वर्षा जल रोके जाने के लिए भंडारा का प्रावधान था। यहाँ तक कि पहाड़ियों से रिसनेवाली जलधाराएँ भी संग्रहित किये जाने की परंपरा अपने देश में थी। पहाड़ो को बचाने, जंगलों के दायरे को बढ़ाने के साथ साथ वर्षा जल पर निर्भरता की अपनी संस्कृति थी। भूजल दोहन की वर्तमान परिपाटी तो पश्चिमी सोच का नतीजा है।
आज बढ़ती आबादी का भयंकर दबाव कुदरती संसाधनों पर हैं। वर्षा जल संग्रह हमें भाता नहीं है। धरती से जल निकालने की आयातित सोच का ही परिणाम है, आहरों, बावड़ियों और तालाबों की उपेक्षा। तालाबों को भरकर नगर बसाने का सिलसिला हाल के दशकों में तेजी से बढ़ता जा रहा है। नदी, तालाब और पोखरों की गहराई कमतर होती जा रही है, जिसकी चिंता न तो समाज को है और न ही सरकार को। बहुत पहले जल संसाधनों का निर्माण और उनका रखरखाव राजा रजवाड़ों द्वारा होता था। बाद में यह काम जमींदारों ने संभाला, टैक्स वसूली के मंसूबों के साथ। इस हाल में जल और जन के रिश्ते छीजते चले गये। इससे हमारी सोच में बदलाव आया है। अब हमारी प्राथमिकता अपनी उस परंपरा की पुनर्वापसी की नहीं है, जिनकी वजह से कभी किसी जमाने में पहाड़ी इलाकों में कभी अकाल नहीं आया।
पानी बचाने की सतत चिंता और प्रयास जीवन बचाने के मुद्दों से जुड़ा सच है। यह प्रयास सामुदायिक स्तर पर होना चाहिए। कुदरती संसाधनों के दोहन की अबाध गति नियंत्रित कर हमें उस परंपरा को अपनाना जरूरी है जिसकी वजह से जंगलतरी (झारखंड का छोटानागपुर) में तब अकाल नहीं पड़ा, जब बंगाल की भुखमरी दुनिया की संवेदना को झिंझोर रही थी।
-अमरेन्द्र किशोर
पानि हि नहि हवा जलवायु भुमि कि उरवरा शक्ति कि भि उतनि हि चिन्ता करनि जरुरि ह
विडम्बना यही है की हम पहले विनाशलीला पूरी करते हैं उसके बाद उन्हीं कारणों को ढूँढ निकलते हैं. प्रकृति के साथ छेद चाद एक सीमा तक ही हो सकती है. आपका आलेख बड़ा सुन्दर बन पड़ा है. बधाई एवं आभार.