बोतल में गंगा भरी, बुझी न अनबुझ प्यास |
नदियों को झीलें बना,अदभुत किया विकास ||
खण्ड-खण्ड पर्वत किये, खीँच-खीँच कर खाल |
कब्रगाह घाटी बनी, होकर झील विशाल ||
मन्दिर पूरा बच गया, बची नहीं टकसाल |
बना शिवालय क्षेत्र सब, शव-आलय बेहाल ||
यह थी केवल बानगी, आगे क्या हो खेल |
अफसर-नेता स्वार्थ का, जारी रहा जो खेल ||
उड़ मंडराते फिर रहे, गद्दी के सब गिद्ध |
मलबे में बिखरे पड़े, मुर्दा-निर्धन, सिद्ध ||
वन-नदियाँ गिरवीं रखीं, बेचे सभी पहाड़ |
स्वार्थ हेतु अब बंद हो, पर्वत से खिलवाड़ ||
दानपात्र को तोडकर, बिन कुछ शर्म-मलाल |
ढोंगी साधू ले उड़े, मुद्रा, भूषण – माल ||
खोली शिव ने एक लट, बही धार विकराल |
पूर्ण जटा जो खोलते, होता तब क्या हाल ||
“खोली शिव ने एक लट, बही धार विकराल |
पूर्ण जटा जो खोलते, होता तब क्या हाल ||”–सही सही अभिव्यक्ति। कवि को धन्यवाद।
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सुझाव।
नदियों के किनारे, निर्माण या मार्ग सुधार के लिए तीन अलग अलग पहाडी वाले देशों से परामर्शक अभियंता बुलाएं जाएं। (भ्रष्टाचार-मुक्त परामर्श हो।)
ऐसे देश जहाँ पहाडी प्रदेशों में, नदियों के किनारे मार्ग और अन्य निर्माण का इतिहास हो।
ऐसे परामर्शक सीमापार ( शत्रु-देशों) से नहीं होने चाहिए। पर अभियांत्रिकी के विशेषज्ञ होने चाहिए।
अरुणाचल में भी, चीन की सीमापर १९६२ के बाद क्यों चेते नहीं? सोते रहे?
चीन ने मार्ग बना लिए। सारा हिमालय पार कर के चीन सीमा पर आ धमका।
और हम १९६२ में चेतावनी के बाद भी क्यों नहीं चेते?
आपका हार्दिक धन्यवाद सुझावों के लिए धन्यवाद| आपके आलेखों की प्रतीक्षा है |