विविधा

वनपुत्रों की यही त्रासदी उनकी नियति

-अमरेन्द्र किशोर- forest
ओडिशा के कालाहांडी और नुआपाड़ा जिले की पहाड़िया जनजाति आजादी मिलने के ६७ साल बाद भी सरकारी तौर से जनजाति के दर्जा पाने से वंचित रहे हैं। यानि विकास की मुख्यधारा से पूरी तरह से दूर रहे पहाड़िया जनजाति के लोग सरकार की ओर से आदिवासियों को दी जानेवाली सुविधाओं से महरूम हैं। उल्लेखनीय है कि  संविधान की 8वीं अनुसूची में पहाड़िया समुदाय को ‘जनजाति’ का दर्जा प्राप्त है। कालाहांडी और नुआपाड़ा जिलों के पड़ोसी जिलों जो छत्तीसगढ़ राज्य में हैं, वहां पहाड़िया समुदाय आदिवासी जनजाति के रूप में चिह्नित हैं। जबकि झारखण्ड में पहाड़िया जनजाति के लोग संताल परगना के विभिन्न पहाड़ों व गांवों में रह रहे हैं। इनका इतिहास काफी समृद्ध रहा है। मुगलों एवं अंग्रेजों से इस जाति ने लोहा लिया था।इस जनजाति का जिक्र विदेशी यात्री मेगास्थनीज के यात्रा वृतांत में मिलता है। मेगास्थनीज मौर्य वंश की राजधानी पाटलीपुत्र का भ्रमण करने आए थे। उन्ही दिनों उन्होंने संताल परगना का भी दौरा किया और पहाड़िया जाति को मल्ली कहा था। इतिहास के अनुसार मुगल बादशाह अकबर के सेनापति मान सिंह एवं अफगान सरदार शेरशाह सूरी ने भी पहाड़िया को अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया था। अंग्रेजी शासनकाल में भी पहाड़िया जनजाति ने विद्रोह किया था। 
कालाहांडी कल्याण विभाग के सूत्रों के मुताबिक जिले में करीब एक हजार पहाड़िया आदिवासियों की जनसंख्या है, जबकि नुआपाड़ा मेें बोदेने और कोमना प्रखंड में इनकी आबादी 5,000 से कहीं ज्यादा है। पहाड़िया आधुनिकता के इस दौर में आज भी परंपरावादी हैं। देश जहां हरित क्रांति की धूम धमाल से थककर अब रासायनिक कृषि के दुष्परिणामों को भोग रहा है, वहीं पहाड़िया झूम कृषि कर आदिम जिंदगी जी रहे है। इसके अलावा वे बांस की टोकरी भी बना कर अपना पेट भरते हैं। पहाड़िया कुशल तीरंदाज के रूप में जाने जाते हैं। यही वजह है कि ये जंगलों पर निर्भर होते हैं और जंगलात विभाग की नजरों में वन विनाश के सबसे बड़े कारक माने जाते हैं।
प्रजातीय दृष्टि से प्रोटो-आॅस्ट्रोलायड समूह के आदिवासी पहाड़िया भले ही नृविज्ञानियों के लिए जिज्ञासा के विषय रहे हैं, मगर सरकारी महकमों में इनकी बदहाली कोई मायने नही रखतीं। कालाहांडी जिले के डुमरिया पंचायत के बीजापाड़ा गांव के पहाड़िया बाँस की टोकरी बनाते हैं। उनके पास ज़मीन नहीं हैं। एक पहाड़िया रोज 50 रूपए से ज्यादा नहीं कमा पाता। लेकिन जिले में बाँस मिलना भी अब आसान नहीं रहा। सूत्रों के मुताबिक गांव के कुछ लोगों ने गैरमजरूआ जमीन आबाद किया है मगर अभी सरकारी रिकॉर्ड में ज़मीन के उन टुकड़ों का काई रिकॉर्ड दर्ज नहीं है। ‘इनके विकास से जुड़ी कोई योजना या कार्यक्रम नहीं होने की वजह से लोकतंत्र इनके लिए कोई मायने नहीं रखता,’विश्वनाथ होता कहते हैं।
 
बिजापाड़ा के गरमा पहाड़िया कालाहांडी जिला कलेक्टर को अपने समाज की बदहाली को लेकर कई पत्र भेज चुके हैं। मगर ‘कोई जबाव नहीं आया’ गरमा बताते हैं। जिला प्रशासन के अनुसार, पहाड़िया समाज की जरूरतों से जुड़ी बातों पर जिला प्रशासन बेहद गंभीर है। इस संबंध में आवश्यक कार्रवाई की जा रही है।’ समाजविज्ञानी डाॅ॰ विजयपाणि पांडेय के अनुसार, ‘पहाड़िया जनजाति के दो उपवर्ग है, माल और सौरिया। इन दोनों के बीच वैवाहिक संबंध नहीं होते। क्योंकि सौरिया गौ-मांस खाते हैं और माल पहाड़िया गाय की पूजा करते हैं।’ डाॅ॰ पांडेय बताते है कि ‘माल पहाड़िया कुरूख भाषा बोलते हैं और सौरिया द्रविड़ भाषी समूह हैं। यही विरोधाभास सरकार के लिए मुश्किलें पैदा करता है कि कौन पहाड़िया है। इस बारे में शोध होना जरूरी है तभी राज्य में राज्य पहाड़ियाजनों को आदिवासी का दर्जा दिया जाना संभव होगा। आज इनकी आबादी दिनों-दिन घटती जा रही है। पहाड़िया की तीन प्रजातियां हैं। सांवरिया पहाड़िया, माल पहाड़िया व कुमार भाग पहाड़िया। सांवरिया पहाड़िया अपने नाम के आगे सरदार व मालतो लगाते हैं। माल पहाड़िया अपने नाम के आगे देहरी, नैया, मांझी, पुजहर आदि लगाते हैं। ये प्रकृति पूजक हैं। आदिकाल से जंगल, नदी, पहाड़ व झरनों से चोली दामन का इनका संबंध रहा है। इनकी भाषा मालतो है। जो द्रविड़ों की भाषा से मिलती जुलती हैं। दुमका का गांडो स्टेट पहाड़िया राज के इतिहास को बताता है।
गौरतलब है कि पहाड़िया जनजाति सूबे में लुप्तप्राय जनजाति हैं और सरकार द्वारा इनके उत्थान के लिए विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। लेकिन नुआपाड़ा जिले के पहाड़िया बहुल गांव दरगांव, खुरदी, कोटमाल,लामीपानी, कालीमाटी और झलकुसुम इंदिरावती प्रोजेक्ट के अंतर्गत बननेवाले बाँध के डूब क्षेत्र मंे आनेवाले हैं। सूत्रों के मुताबिक जल समाधि में बिलानेवाली ज़मीन पर मलिकाना हक संबंधित जरूरी कागजात पहाड़िया लोगों के पास नहीं है। भुवनेश्वर के समाजसेवी विभू कहते हैं, ‘अपनी पुश्तैनी ज़मीन से हाथ धोनवाले पहाड़िया मुआवजे के भी मेाहताज रहेंगे। आजाद भारत के इन वनपुत्रों की यही त्रासदी उनकी नियति है।’