चुनावी चाबुक की शिकार दिल्ली की 123 महत्त्वपूर्ण संपत्तियां

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-विनोद बंसल- delhimapstory

वोटों की बिसात आखिर क्या-क्या गुल खिलाती है, किसी से कुछ छुपा नहीं है। किन्तु, एक शताब्दी पूर्व सरकार द्वारा अधिगृहित सम्पत्तियों का भूस्वामी सरकार द्वारा स्वयं ही क्षणभर में बदल दिया जाएगा, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। यूपीए नीति केन्द्र सरकार का मानना है कि सौ वर्षों से ज्यादा पुराना विवाद रविवार दिनांक 3 मार्च 2014 को जल्दी में बुलाई गई केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक के माध्यम से सुलझा लिया गया है। दिल्ली के अति-महत्त्वपूर्ण स्थानों पर स्थित 123 भू सम्पत्तियों को अब दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) व सरकार के लैण्ड एण्ड डेवलपमेंट ऑफ़िस (एलएनडीओ) के कब्जे से छुड़ा कर दिल्ली वक्फ़ बोर्ड को सौंपा जाएगा। इससे पहले कि इस निर्णय पर चुनाव आयोग की कोई चाबुक चले, मंत्रि मण्डल ने दिल्ली के पॉश क्षेत्रों की अरबों-खरबों रुपयों की इन सम्पत्तियों पर से अपना सौ वर्षों से अधिक पुराना मालिकाना हक चुनावों पर कुर्बान कर दिया। मज़े की बात यह भी है कि इस संबन्ध में जो सरकारी अधिसूचना या गजट नोटिफ़िकेशन जारी हुआ वह ठीक उसी दिन हुआ जिस दिन चुनाव आयोग ने देश की सोलहवीं लोक सभा के चुनावों की घोषणा की। इनमें से कई सम्पत्तियाँ तो अति सुरक्षा वाले उप राष्ट्रपति भवन के साथ-साथ राजधानी के बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में भी हैं। इन सभी सम्पत्तियों के सम्बन्ध में गत 40 वर्षों से अधिक समय से विविध न्यायालयों में वाद भी चल रहे हैं।

स्थाई संपत्तियों के सरकार द्वारा समर्पण से जुडा यह मामला देखने में जितना आसान लगता है उतना है नहीं। सरकार ने इसे आसानी से मंत्रि मण्डल की स्वीकृति तो दे दी किन्तु, इसके देश पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभावों को शायद अनदेखा कर दिया गया। आइए, पहले इन भू संपत्तियों से जुडे इतिहास को देखते हैं।

बात वर्ष 1970 की है जब अचानक दिल्ली वक्फ़ बोर्ड ने एक तरफ़ा निर्णय लेते हुए इन सभी सम्पत्तियों को एक नोटिफ़िकेशन जारी कर वक्फ़ संपत्तियाँ घोषित कर दिया। भारत सरकार ने इस मामले में तुरन्त हस्तक्षेप करते हुए इस निर्णय के विरुद्ध बोर्ड को प्रत्येक सम्पत्ति के लिए नोटिस जारी कर इन्हें वक्फ़ सम्पत्ति मानने से इन्कार कर दिया। इतना ही नहीं, सरकार ने बोर्ड के विरुद्ध न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया और सभी 123 संपत्तियों के लिए 123 वाद न्यायालय में दायर किए। मसला यह था कि ये सभी संपत्तियाँ तत्कालीन भारत सरकार ने आजादी से पूर्व वर्ष 1911 से 1915 के दौरान उस समय अधिगृहित की थीं जब अंग्रेजों ने दिल्ली को पहली बार अपनी राजधानी बनाने का निर्णय किया था। बाद में इनमें से 62 को डीडीए को दे दिया। अधिकांश संपत्तियाँ दिल्ली के कनॉट प्लेस, मथुरा रोड, लोधी कॉलोनी, मान सिंह रोड, पण्डारा रोड, अशोक रोड, जनपथ, संसद मार्ग, करोल बाग, सदर बाज़ार, दरिया गंज व जंग पुरा में स्थित हैं जिनका मूल्य व महत्त्व आसानी से जाना जा सकता है।

वर्ष 1974 में भारत सरकार ने एक हाई पावर कमेटी का गठन कर इन सम्पत्तियों से जुडे मामले का अध्ययन कर उसे रिपोर्ट देने का निर्णय लिया। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिन महाशय को सरकार ने इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया वे एसएमएच वर्नी पहले से ही वक्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष थे। कमेटी की निष्पक्षता पर पहले ही दिन से प्रश्न चिह्न लग गया। रिपोर्ट में इन्होंने स्वयं लिखा कि इस कमेटी को दो सम्पत्तियों में तो उन्हें स्वयं भी घुसने तक नहीं दिया गया जिनमें से एक उप-राष्ट्रपति भवन और दूसरी वायरलेस स्टेशन के अन्दर थी। किन्तु, इस सब के बावजूद भी जैसा कि पूर्व निर्धारित था, कमेटी ने इन सभी सम्पत्तियों को वक्फ़ सम्पत्तियाँ घोषित कर दिया। इसके बाद औपचारिकता पूरी करते हुए भारत सरकार ने अपने वर्क्स व हाउसिंग मंत्रालय द्वारा दिनांक 27.03.1984 को जारी ऑफ़िस आदेश संख्या J.20011/4/74.1-II के माध्यम से इन सभी संपत्तियों को एक रुपए प्रति एकड प्रति वर्ष के पट्टे पर वक्फ़ बोर्ड को देने का निर्णय कर लिया।

जून 1984 में इन्द्रप्रस्थ विश्व हिन्दू परिषद ने जनहित याचिका संख्या WP(C) 1512/1984 के माध्यम से दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने न सिर्फ़ सरकारी आदेश पर रोक संबन्धी स्थगन आदेश पारित किया बल्कि बारम्बार यह पूछा कि क्या सरकार की कोई ऐसी नीति भी है जिसके तहत वह किसी व्यक्ति या संस्था को, जिससे कोई संपत्ति अधिगृहित की हो, को उसी संपत्ति को पट्टे पर दे सके। किन्तु, सरकार के पास ऐसी कोई नीति नहीं थी।

दिनांक 26.08.2010 को भारत के तत्कालीन अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री पराग पी त्रिपाठी न्यायालय के समक्ष उपस्थित हुए और कहा कि सरकार चार सप्ताह के अन्दर इस संबन्ध में कोई नीतिगत निर्णय ले कर सूचित करेगी। किन्तु, चार सप्ताह की बात तो दूर, पूरा वर्ष 2010 बीत जाने पर भी जब सरकार नहीं लौटी तो सत्ताईस वर्षों की कानूनी लडाई लडने के बाद 12.01.2011 को विहिप दिल्ली की याचिका का निस्तारण यह कह कर, कर दिया गया कि “भारत सरकार इस मसले पर पुनर्विचार कर छ: मास के अन्दर निर्णय ले और तब तक न्यायालय का स्थगन आदेश जारी रहेगा”।

जिस मसले के समाधान के लिए माननीय उच्च न्यायालय बार-बार कह-कह कर थक गया, किन्तु सरकार के कान पर जूं तक नहीं रैंगी, चुनावी डंके की चोट कानों में पडते देख आनन-फ़ानन में यूपीए-2 सरकार की अन्तिम केबिनेट बैठक में एक बार फ़िर से सभी सम्पत्तियों को वक्फ़ बोर्ड को देने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया। इतना ही नहीं, इस अफ़रा-तफ़री में सरकार शायद यह भूल गई कि इस संबन्ध में भारत राजपत्र संख्या 566 व कार्यालय आदेश संख्या 661(E) ठीक उसी दिन (यानि 5 मार्च 2014) जारी कर दिया गया, जिस दिन आम चुनावों की घोषणा भारत के चुनाव आयोग ने की।

विधि-वेत्ताओं का मत है कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने भूमि अर्जन, पुनर्वास, और पुन:व्यवस्थापन में उचित प्रतिकार और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013 की जिस धारा 93 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए यह गज़ट अधिसूचना जारी की है उसके अंतर्गत सरकार केवल ऐसी सम्पत्तियों का ही अधिगृहण वापस ले सकती है जिनका स्वामित्व व कब्जा सरकार ने अभी तक नहीं लिया हो। किन्तु, इन सभी 123 संपत्तियों का कब्जा तो तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने दिल्ली को अपनी नई राजधानी बनाने हेतु वर्ष 1911 में ही ले लिया था। इस प्रकार सरकार क्या अपने ही वक्तव्यों व न्यायालयों में दायर किए गए दस्तावेजों को झुठला कर अब यह सिद्ध करना चाहती है कि 1911 से 2014 तक की एक पूरी शताब्दी बीत जाने पर भी उसने इन सम्पत्तियों का स्वामित्व व कब्जा अभी तक नहीं लिया। जो कानून वर्ष 2013 में बना उसकी ढाल बना कर सौ वर्ष से अधिक पुरानी सम्पत्तियों को चुनावी वोट बैंक की भेंट चढाने का जो दुश्चक्र यूपीए सरकार ने चला है उसके गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं।

एक धर्मनिरपेक्ष शासन की शपथ लेने वाली सरकार द्वारा लिए गए इस निर्णय से अनेक प्रश्न खड़े होते हैं:

1. क्या किसी सरकार को कर के रूप में अर्जित जनता की गाढी कमाई से अधिगृहित की गई सम्पत्ति को एक धर्म विशेष को देने का अधिकार है?

2. क्या यह निर्णय न्यायालय की अवमानना, कानून का मजाक व असंवैधानिक नहीं है?

3. आम चुनावों की घोषणा के बाद जारी गज़ट क्या आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है?

4. और सबसे बडा सवाल यह है कि जब मुस्लिमों को दिल्ली की 123 प्रमुख सम्पत्तियां दी जा सकती हैं तो क्या हिन्दुओं की यह मांग कि उनके आराध्य भगवान राम, कृष्ण व भोले की जन्म स्थली (अयोध्या, मथुरा व काशी) सहित अन्य स्थल उनको दे दिए जाएं, उचित नहीं है?

अन्त में यही कहा जा सकता है कि जब बड़ी-बड़ी चीजें चुनावी माह-समर की भेंट चढ़ जाती हैं तो अपनी गिरती हुई साख बचाने के लिए यदि यूपीए सरकार 123 संपत्तियों को चुनावी चाबुक का शिकार बना दे तो इसमें आखिर कौन सी बड़ी बात है? पहले हमें मुगलों ने लूटा, उसके बाद अंग्रेजों ने और उनके बाद अब हमारे तथा-कथित अपने ही नेता देश को वोट के लिए लूट रहे हैं।

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