कुलपतियों के बुते शिक्षा की बुनियाद

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विश्वविद्यालय अध्ययन, अनुसंधान और अनुशासन के केन्द्र होते हैं। विद्यार्थियों के लिये अध्ययन की यह अंतिम पाठशाला होती हैं। यहां से निकलकर वे अपने जीवन के कर्म क्षेत्र में सक्रिय होते हैं। कर्मक्षेत्र और सामाजिक जीवन की कठिनाईयों से जूझने और कुछ नया करने का जज्बा उन्हें विश्वविद्यालय के गुरुजनों से मिलता है। गुरुजनों पर इन मासूम जिन्दगियों को संवारने का गहरा दायित्व है। जाहिर तौर पर विश्वविद्यालय के मेरुदंड ये गुरुजन ही हैं जिनके कंधों पर देश के नौजवानों का भरोसा और भविष्य दोनों टिका है। विश्वविद्यालय को आकार, आयाम और औदार्य देने के लिये एक कुशल नेतृत्व की जरुरत होती है, इसके लिये कुलपति नियुक्त किये जाते हैं। कुलपतियों का जिम्मा अकादमिक वातावरण के लिये उचित पृष्ठभूमि तैयार करना होता है। इन मायनों में सर्वोच्च जिम्मेदारी कुलपति की होती है कि वे अपने विद्यार्थियों, शिक्षकों और अध्येताओं से अच्छा समन्वय और विश्ववास कायम करके देश की इन पवित्र पीठों को ज्ञान, संस्कृति और शुचिता के वाहक बनाएं। कोई विश्वविद्यालय इस बात से पहचाना जाये कि उसके बनाये वातावरण में विभिन्न मुद्दों तथा विषयों पर कितनी सार्थक और सम्यक विमर्श के लिये स्थान है।

उच्च शिक्षा केन्द्रों की स्थापना का उद्दैश्य देश में ऐसे जागरुक नागरिकों और राष्ट्र सचेतकों को तैयार करना है कि समाज के किसी भाग में नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण न हो, सामाजिक न्याय और समानता की रक्षा हो, मानवीय मूल्यों का विकास हो, मानव कल्याण की सर्वोच्च भावना को बल मिले, समाज में समरसता का वातावरण बनें, देश की प्रतिष्ठा बढे-ऐसे लोकदर्शी विचारों का पोषण हो। सबसे अहम बात ये है कि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के प्रति जनजागरुकता आये। इसलिये जरुरी है कि शिक्षा के उच्च संस्थानों में विभिन्न मत-मतान्तरों और विमर्शों के लिये खुली जगह हो। विश्वविद्यालय की हवाएं घुटन पैदा करने वाली न हो। विश्वविद्यालयों में विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिये सम्यक वातावरण उपलब्ध हो, क्योंकि इन्हीं विश्वविद्यालयों से जिम्मेदार नागरिकों और जनचेतना के बीज पैदा होते हैं।

लेकिन विडम्बना है कि विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा के उच्च संस्थान आज संख्या में तो तेजी से बढ़ रहे हैं लेकिन इनके अन्दर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना और राष्ट्र के प्रति नैतिक बोध खत्म होता जा रहा है। डिग्री देने वाले शिक्षा संस्थानों की हमारे देश में कमी नहीं है। डिस्टिंग्निश्ड स्कालर देने में विश्वविद्यालयों के पास कोई ठोस योजना या विचार नहीं है। विद्यार्थियों में अच्छे संस्कार और राष्ट्रबोध का भाव पैदा हो ऐसा नेतृत्व विश्वविद्यालयों के पास नहीं है। जिन कुलपतियों के जिम्मे ये बात है वे विश्वविद्यालयों का उपयोग अपनी महत्वाकांक्षाओं और राजनैतिक फायदों के लिये करते हैं। विद्यार्थी और शिक्षक क्या सोचते हैं और क्या चाहते हैं, उनका दृष्टिकोण क्या है, भावी कार्यक्रम क्या हैं इससे बहुत कम सरोकार कुलपतियों का होता है। कुछ दिनों पहले छत्तीसगढ़ के रायपुर के एक विश्वविद्यालय में नेक की टीम के दौरे में एक विद्यार्थी ने कहा कि ज्यादातर शिक्षक अधिकारियों के कामों का जिम्मा लिये होते हैं उनके पास पढ़ाने का समय ही नहीं होता, ऐसे में गुणवत्ता कहां से आयेगी कमोबेश यह स्थिति भारत के सभी विश्वविद्यालयों में है, किन्तु यह नहीं होना चाहिये। कुलपति और शिक्षकों के मध्य संवाद की प्रायः कमी रहती है। कुलपति अपने भय, रौब और आतंक के जरिये व्यवस्था पर नियंत्रण रखना चाहते हैं। जबकि कुलपति अधिक शिष्ट, सौम्य और अपने विषय के विद्वान हों तो उन्हें लोगों का सम्मान और भरोसा दोनों ही मिलता है। ऐसे ही विद्वान कुलपति आगे चलकर सर्वपल्ली डा.राधाकृष्णनन की तरह ख्याति पाते हैं। किन्तु दुर्भाग्य है कि हमारे ज्यादातर विश्वविद्यालय कुलपतियों की अमानवीय कार्यशैली,  दुराग्रह एवं भ्रष्ट नीतियों के चलते विवाद के केन्द्र बनते जा रहे हैं। कुलपतियों का गांधीवादी चेहरा देखने को नहीं मिलता है जिससे विश्वविद्यालयों का सम्मान समाज में कायम हो सके। मनमानी और हठधर्मिता के चलते कुलपतियों का सम्मान लगातार घट रहा है। इसलिये विश्वविद्यालयों में आन्दोलनों और विवादों का सिलसिला खत्म नहीं होता। कुलपतियों का व्यक्तित्व विश्वविद्यालय का दर्पण होता है। कुलपति की विद्वता और ख्याति विश्वविद्यालय को समाज में लोकप्रिय दर्जा दिलाती है इसलिये कुलपति को संयमी, रचनात्मक और अधिक समझदार होने की जरुरत होती है।  

शिक्षा के स्थल अत्यन्त संवेदनशील और प्रेरणायुक्त होने चाहिये। जिस तरह परिवार में पिता का चेहरा समूचे परिवार के संस्कारों का संपृक्त करता है उसी प्रकार कुलपतियों की कार्यप्रणाली विश्वविद्यालय के संस्कारों को ढालने के लिये महत्वपूर्ण होती है। शिक्षा संस्थान किसी दरोगा की तरह हांके नहीं जाते, शिक्षा संस्थानों को चलाने के लिये उसके नेतृत्व में संवेदनशीलता और प्रेरक गुणों से भरपूर होना चाहिये। जिस संस्थान के नेतृत्व में गुस्सा, आक्रोश और प्रतिहिंसा के पाप होंगे, उन संस्थानों में कभी शांति, अनुशासन और अहिंसा का पुष्प नहीं खिलेगा। बदले की भावना से काम करने वाले कभी शिक्षा के पैरोकार नहीं हो सकते। जो शिक्षा किसी को विनम्र और समझदार न बना सके, उसका कोई अर्थ नहीं है। यह भी देखना चाहिये कि शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों का सम्मान जो प्रशासन नहीं करता है वहां कभी प्रेरणा की जमीन तैयार नहीं हो सकती। ऐसा भी नहीं है कि पूरे कुंए में भांग घुली हुई है। मै यहां गुजरात विद्यापीठ के कुलपति रहे रामजीलाल पारिख का उदाहरण रखना चाहूंगी, जिनकी सादगी, व्यवहार और विद्वता के सभी कायल रहे। ऐसे कई कुलपति रहे हैं जिन्होंने अच्छी परंपराएं देने का काम विश्वविद्यालयों में किया है। गुजरात विद्यापीठ में आज भी ये परंपरा है कि कुलपति फर्श पर आसन लगाकर बैठते हैं, मेहमानों के लिये कुर्सियां और सोफे होते हैं। गुजरात विद्यापीठ का शांत वातावरण बरबस ही अध्येताओं को अपनी ओर खींचता है। बदले वक्त में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की कार्यशैली में ब्यूरोक्रेट की तरह काम करने का चलन बढ़ा है। कुलपति अपनी सौम्यता या विद्वता के लिये नहीं पहचाने जा रहे हैं। उनके अन्दर कुंठा, गुस्सा, आक्रोश और विरोधी सुरों को कुचल देने का अलोकतांत्रिक विष भरा हुआ है। कोई अपनी प्रार्थना लेकर न्याय के वैकल्पिक रास्तों को तलाशता है तो लगता है जैसे किसी ने उनकी सत्ता को चुनौती दे दी है। साम-दाम, दंड-भेद के सभी हथियार चल उठते हैं लेकिन यह कभी नहीं होता कि वे अपनी कमियों को पहचाने। पहले अपने में गिरेबां में झांके और तय करें कि विश्वविद्यालयों में शांतिपूर्ण, अध्ययनशील और सांस्कृतिक वातावरण बनाने में कौन से विकल्प कारगर होंगे।     

सरकार या प्रशासनिक पदों पर बैठे शीर्ष व्यक्तियों को उनके काम करने के लिये तमाम सुविधाओ और संसाधनों का अंबार लगा होता है, किन्तु सही मायनों में वे इसका इस्तेमाल जनहित और संस्थानों की प्रतिष्ठापना के लिये नहीं कर पाते। सदाश्यता, सहिष्णुता और सदभाव की कार्यशैली शीर्ष पदों पर बैठे लोगों में कम ही देखने को मिलती है। अपने आचरण और व्यवहार से लोगों को परेशान करके फिर अपनी सुरक्षा के लिये उन्हीं संसाधनों को वे कवच की तरह इस्तेमाल करते हैं। अधिकारियों को समझना होगा कि जो संसाधन और सुविधाएं उन्हें मिलते हैं वे संस्थान के विकास के लिये होते हैं। शिक्षा संस्थानों की बुनियाद तय करती है, कि उसके आंगन में खिलने वाले फूलों की खूशबू दुनिया को कितना तरोताजा करती है।

1 COMMENT

  1. हाँ मैं आपके विचार से सहमत हूँ. कुलपतियों को शुचिता सद्भावना और विवेक से कार्य करना चाहिए . यह सही है कि जिस परिवार का बुज़ुर्ग वेवकूफ हो उस परिवार का तो ईश्वर ही मालिक है. कुलपतियों को चाहिए कि वे अपने विश्वविद्यालय में बैठे ऐसे लोगों को पहचाने जो संस्थान कीमूल भावना के अनुरूप नहीं हैं, ख़ास तौर पर नौकरी देते समय पारदर्शिता होनी चाहिए.
    कानून का पालन, विश्वविद्यालय की साख और कर्मचारियों का भला करने की मानसिकता के साथ कार्य करना चाहिए .
    यहाँ मैं उदहारण देना चाहूँगा भोपाल के दो विश्वविद्यालयों का : बरकत उल्लाह विश्वविद्यालय तथा भोज विश्वविद्यालय का, दोनों में ही कुलपति चाटुकारों से घिरे नज़र आते हैं. संसथान का भविष्य क्या होगा अंदाजा लगाया जा सकता है. गलत तरीके से नियुक्ति, प्रतिनियुक्ति तथा नियमों की अवहेलना से ऐसे कई अधिकारी मज़े ले रहे हैं जो उस पद के लायक ही नहीं हैं. कभी पूछा किसी ने की भईया जब उस पद के लिए व्यक्ति अहर्ता नहीं रखता तो तुमने उसे कैसे रख लिया? उक्त दोनों विश्वविद्यालयों में कुलपति कानून के ज्ञाता हैं पर सबसे ज्यादा कानून का उल्लंघन यहीं पर देखने को मिलेगा.
    कहते हैं ना………………………………….
    “बर्बाद गुलिस्तान करने को बस एक ही उल्लू काफी है, हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजाम खुदाया क्या होगा “

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