वेद ज्ञान का अप्रचार और लोगों की उसके प्रति अनभिज्ञता

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मत-मतान्तरों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण वेद ज्ञान

का अप्रचार और लोगों की उसके प्रति अनभिज्ञता

मनमोहन कुमार आर्य

संसार के सभी देशों के लोग किसी न किसी मत, पन्थ व सम्प्रदाय को मानते हैं। अंग्रेजी में इन्हें religion कहते हैं। धर्म संस्कृत का शब्द है जो केवल वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों तथा उसके पालन को कहते हैं। आजकल मत, पन्थ व सम्प्रदाय को भी धर्म कहा जाने लगा है जिसका लोगों की अज्ञानता है। जैसे कोई व्यवसायी कम गुणवत्ता के सामान को किसी अज्ञानी व अल्पज्ञानी अधिक गुणवत्ता का बता कर बेचता है वैसा ही मत-मतान्तर के लोग धर्म की लोकप्रियता व इस शब्द की महत्ता के कारण ऐसा करते हैं और अपने अविद्यायुक्त मत को धर्म की संज्ञा देते हैं। धर्म तो संसार में सभी मनुष्यों का एक ही है और वह है सत्य, सत्याचरण अथवा वैदिक धर्म। इसका प्रमाण यह है कि सृष्टि के आरम्भ से (एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सतरह वर्ष) लेकर महाभारतकाल (लगभग 5200 वर्ष पूर्व) तक संसार में वर्तमान में विद्यमान कोई मत व पन्थ नहीं था। इस लम्बी अवधि में भारत व विश्व के सभी देशों में एक वेद मत और धर्म ही प्रचलित था। यदि ऐसा है तो फिर संसार में मत व पन्थों की उत्पत्ति का कारण क्या है? इसका कारण अज्ञान है। अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ, इसका उत्तर है कि महाभारत के भीषण युद्ध में विश्व के बड़े बड़े योद्धा व विद्वान मारे गये। पूरे विश्व में अव्यवस्था फैल गई। शिक्षा व अन्य सभी व्यवस्थायें ध्वस्त हों गईं। हम संसार में देखते हैं कि माता-पिता के सभी धार्मिक संस्कार बच्चों में नहीं आते। उन्हें संस्कारों के लिये विद्यालय में जाना पड़ता है। विद्यालयों में वैदिक धर्म की शिक्षा को देश की धर्म निरपेक्षता की नीति के कारण अध्ययन नहीं कराया जाता। सभी बच्चे व युवा वैदिक धर्म के सत्य व ज्ञानयुक्त संस्कारों से विहीन होते हैं। माता-पिता कुछ काल बाद वृद्ध हो जाते हैं और संसार से चले जाते हैं। अब उनकी सन्तानें जो वेदों के संस्कारों से विहीन है, उतने संस्कार भी वह अपनी सन्तानों को नहीं दे पातीं जो कि उन्हें अपने माता-पिता व वृद्ध परिवार जनों से मिले थे। यह क्रम चलता रहता है और कुछ काल बाद ईश्वर व जीवात्मा का सत्य ज्ञान व उनमें विश्वास न होने के कारण वह परिवार एक प्रकार से नास्तिक हो जाते हैं।

वेदों से अनभिज्ञ व वेद निन्दक को ही नास्तिक कहते हैं। इसी बात का अनुभव कर हमारे ऋषियों ने वेदों का प्रतिदिन स्वाध्याय करने की परम्परा डाला थी जिससे की उनकी सन्तानों का धर्म व संस्कृति विषयक ज्ञान अद्यतन अवस्था का रहे। इसके साथ प्राचीन काल में गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली थी जिसमें संस्कृत व्याकरण सहित वेद और उनके व्याख्यान ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन व स्मृति आदि का अध्ययन कराया जाता था। इस वातारण में सभी विद्यार्थी व अन्य अपने जीवन के उद्देश्य, लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों से परिचित रहा करते थे। उनका अभ्युदय भी होता था ओर वह निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति में आगे भी बढ़ते थे। इसके विपरीत आजकल की शिक्षा पद्धति व सामाजिक वातावरण जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों की प्राप्ति कराने के प्रति सर्वथा उदासीन हैं जिससे मनुष्य अविद्या से त्रस्त होकर आत्मघाती मार्ग पर चल रहे हैं जो उन्हें आध्यात्मिक दृष्टि से पतन की ओर ही ले जाता है जिसका परिणाम जन्म व जन्मान्तरों में दुःख के अतिरिक्त कुछ नहीं होना है।

वेद ज्ञान, धर्म और मत-मतान्तरों में क्या अन्तर है, इसे हम सभी को जानना चाहिये। वेद ज्ञान को कहते हैं। वेद वह ज्ञान है जो सृष्टि की आदि में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को ईश्वर ने अपने आत्मस्थ स्वरूप अर्थात् सर्वान्तर्यामी स्वरूप से दिया था। सृष्टि के आदि काल में आदि ऋषियों व सभी मनुष्यों को अपने दैनिक कार्यों के लिए ज्ञान की आवश्यकता थी। ज्ञान के बिना उनका काम नहीं चल सकता था। मनुष्य व ऋषि स्वयं ज्ञान की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं थे। कोई मनुष्य ज्ञान की उत्पत्ति स्वयं नहीं करता। वह तो सृष्टि में पहले से उपलब्ध ज्ञान का चिन्तन मनन कर मिलती जुलती कुछ नई बातें जानने का प्रयत्न करता है। सफलता मिलने पर कहा जाता है कि उसने ज्ञान की खोज की। इस ज्ञान की खोज व चिन्तन मनन से पूर्व सभी मनुष्यों को भाषा का ज्ञान व उसके प्रयोग की विधि आनी चाहिये जो कि आजकल हम सभी को आती है। उसके साथ ही उस चिन्तक व मनस्वी व्यक्ति के ज्ञान का स्तर इसके अपने निकटवर्ती लोगों से कुछ अधिक होना चाहिये। इसका हृदय शुद्ध व पवित्र हो तो अधिक अच्छो होगा। ऐसे लोग ही ज्ञानी व वैज्ञानिक बनते हैं। आज संसार में उपलब्ध समस्त ज्ञान व विज्ञान इसी प्रक्रिया से उत्पन्न हुआ है। सृष्टि के आरम्भ में न कोई भाषा थी और न आदि मनुष्यों में किसी प्रकार का कोई ज्ञान था। अतः ईश्वर से ही भाषा व ज्ञान एक साथ चार ऋषियों को मिला। सृष्टि की आदि में ऋषियों से इतर अन्य मनुष्यों को परमात्मा ने शारीरिक बल व बुद्धि की ज्ञान ग्रहण करने की अद्भुत शक्ति दी थी जिससे वह शीघ्र ज्ञान व भाषा को ग्रहण व प्राप्त कर सकें। ऐसा ही हुआ।

ईश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नामक चार ऋषियों को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अर्थववेद का ज्ञान दिया और उन्हें उस ज्ञान को अन्य ऋषि ब्रह्मा जी को देने की प्रेरणा की। उन्होंने ब्रह्मा जी को भी एक एक कर चारों वेदों का ज्ञान दे दिया। इसके बाद इन पांच ऋषियों ने ईश्वर की प्रेरणा व अपने विवेक दोनों से अन्य मनुष्यों को वेद ज्ञान से परिचित कराया व सिखाया। तीव्र बुद्धि होने के कारण ज्ञान ग्रहण करने में सभी मनुष्यों को अधिक समय नहीं लगा। यह भी बता दें कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने सभी मनुष्यों को युवावस्था में और पर्याप्त संख्या उत्पन्न किया था। ऐसा करके ही संसार की व्यवस्था चल सकती थी अन्यथा नहीं। इसके बाद पठन पाठन की परम्परा आरम्भ हो गई जो महाभारत काल तक अबाध रूप से चलती रही। देश में पर्याप्त संख्या में विद्वान, ऋषि, मुनि व योगी उत्पन्न होते थे जिनसे ज्ञान विषयक किसी को किसी प्रकार की शंका वा भ्रम नहीं होता था। वेदों में मनुष्य के सभी कर्तव्यों अकर्तव्यों व सभी विषयों के ज्ञान का उल्लेख है, इसका पालन ही धर्म कहलाता है तथा इसे जानकर उन्होंने अपनी ऊहा शक्ति से ज्ञान व विज्ञान का विस्तार किया जैसा कि आजकल भी हो रहा है। पूर्ण ज्ञान युक्त वेदों के कारण किसी मत-मतान्तर के उत्पन्न होने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। मत-मतान्तर तभी उत्पन्न होते हैं जब परिवेश व वातावरण में अज्ञान व अन्धविश्वास हो, अधिक लोग अज्ञानी हों तब कोई कुछ थोड़ा ज्ञानी मताचार्य बन बैठता है। लोग उसकी ज्ञान व अज्ञान युक्त सभी बातों को स्वीकार कर लेते हैं और कालान्तर में वही मत बन जाता है। फिर उनके अनुयायी अपने अपने मत में बहुत से चमत्कारों को भी जोड़ देते हैं। ऐसा ही सब  मतों में पाया जाता है।  महाभारत युद्ध के बाद भी देश व विश्व में अन्धकार फैल गया था। लोग धीरे धीरे अज्ञानी हो गये। सत्य वैदिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं थी। अतः देश देशान्तर में कुछ कुछ ज्ञानी लोग उत्पन्न हुए जिन्होंने समाज हित को लक्ष्य कर लोगों की अपनी अल्पज्ञ बुद्धि से शिक्षित करने का प्रयास किया जिसका परिणाम ही कालान्तर में मत-मतान्तरों के रूप में सामने आया।

चार वेद समस्त सत्य विद्याओं के भण्डार हैं। इसमें ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य व यथार्थ ज्ञान तो है ही, वहीं अन्य सभी सांसारिक विषयों का ज्ञान भी है। यह परा व अपरा विद्यायें कहलाती हैं। वेदों के ज्ञान की उपस्थिति में अज्ञानयुक्त मत-मतान्तर उत्पन्न नहीं हो सकते। मत-मतान्तरों व उनके गुरुओं का प्रभाव धर्म ज्ञान के अज्ञानी लोगों पर ही होता है। हमारे आर्यसमाज से कभी श्रीराम शर्मा जी, कभी सुधांसु महाराज व अन्य विद्वान निकले परन्तु किसी ने वेद निहित व सत्यार्थप्रकाश आदि में उल्लेखित, इनसे इतर किसी नये मौलिक सिद्धान्त को देश व समाज के सामने नहीं रखा। कोई आर्यसमाज व इनका अनुयायी नवमताचार्यों के साथ नहीं गया जिसने वेदों के धार्मिक सिद्धान्तों को छोड़ा हो। कारण यही है कि प्रायः प्रत्येक आर्यसमाजी ने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा होता है। वह सत्य व असत्य, उचित व अनुचित, विद्या और अविद्या में भेद करना जानता है। स्वाध्यायी आर्यसमाजी किसी अज्ञानी को अपनी ज्ञानयुक्त वाणी से वैदिक धर्म का अनुयायी बना सकता है परन्तु वह स्वयं किसी भी अल्पज्ञानी मत व उसके आचार्य की वेद विरुद्ध मान्यताओं का अनुयायी नहीं बन सकता। कोई स्वार्थ बुद्धि से अगर किसी मत में जाता है तो ऐसे अपवाद हो सकते हैं। अतः वेद व वेद को परम प्रमाण मानने वाले आर्यसमाज की मान्यतायें व सिद्धान्त परस्पर एक व पूरक हैं और वेद के सिद्धान्त ही यथार्थ धर्म हैं। उनका पालन करना ही सभी मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म है। इतर मत-मतान्तरों से मनुष्यों को वह लाभ नहीं मिलता जो वैदिक धर्म की शरण में आने पर मिलता है। वैदिक धर्म में पंच महायज्ञों को कर मनुष्य की आत्मा व शरीर की उन्नति होती है जिससे यह जन्म व परजन्म सुधरता है। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर वेदों का पूर्ण आशय समझ में आ जाता है। सत्यार्थ प्रकाश वेदों की कुंजी है। जिसने इस ग्रन्थ को पढ़ लिया उसकी अविद्या नष्ट हो जाती है। आचरण करना मनुष्य का निजी अधिकार है, वह करे या न करे। जो करता है वह उसके लाभ प्राप्त करता है। जो नहीं करता वह वेद धर्म के आचरण के लाभों से वंचित रहता है। अतः इन सब कारणों को संसार के लोगों को वेदों की शरण में आकर वेदानुयायी व वेदधर्मावलम्बी बनना चाहिये। इससे सुख व शान्ति से युक्त नये समाज व विश्व के निर्माण में सहायता मिलेगी।

संक्षेप में यह जान लें कि उत्तर महाभारतकालीन लोगों के आलस्य प्रमाद, विद्या प्राप्ति व प्रचार में श्रम न करना, वेदों के विलुप्त व अप्रचलित होने, लोगों को वेद के यथार्थ आशय व अर्थों का ज्ञान न होने के कारण ही वेद अप्रचलित हुए और संसार में अन्धकार छाया जिसके कारण संसार में अज्ञान व अविद्या उत्पन्न हो गई। इससे अनेक अविद्यायुक्त मत-मतान्तर उत्पन्न हुए जिनसे कालान्तर में आपस में संघर्ष होने लगे और आज भी यह स्थिति जारी है। भारत की अधिंकाश जनता का विगत कुछ वर्षों में धर्मान्तरण कर विधर्मी बना दिया गया। वैदिक धर्म सर्वश्रेष्ठ है, इसके अनुयायियों की प्रचार में शिथिलता ही इसके पतन का कारण बनी। ऋषि दयानन्द के प्रभाव व कृपा से आज वैदिक सूर्य संसार में पूरी दीप्ति व तेजस्विता के साथ प्रकाशमान है। आज वेद प्रचार के जितने साधन सुलभ हैं पहले नहीं थे। आवश्यकता एक अच्छे संगठन व समर्पित विद्वानों की है। यदि ऐसा हो जाये तो स्वामी रामदेव जी की योग क्रान्ति के समान विश्व में धर्म क्रान्ति लाई जा सकती है जिसका आधार सत्य, अंहिसा, ज्ञान, उपासना, यज्ञ, परोपकार, शुभ कार्यो में दान की प्रवृत्ति एवं सद्कर्म आदि हों। हमें लगता है कि ईश्वर भी यही चाहता है परन्तु जीव की स्वतन्त्रता व उसकी अविद्या के कारण यह लक्ष्य अप्राप्तव्य बना हुआ है। लेख का सार यह है कि महाभारतकाल के बाद वेद ज्ञान का प्रचार न होने से अज्ञान फैला जिसका परिणाम अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की उत्पत्ति हुई। यदि संसार से अज्ञान हटाना है तो वेदों का प्रचार आवश्यक है। ऐसा होने पर सभी मत-मतान्तर अप्रचलित हो जायेंगे और सत्य धर्म वेद प्रचलित होगा। संसार सुख व शान्ति का धाम बन जायेगा। ओ३म् शम्।

 

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