विजयादशमी हमारे आत्म-मंथन का दिन है

3
187

shastra_pujaहम पराजित किस्म के लोग विजयादशमी मनाकर खुश होने का स्वांग भरते रहते हैं. बहुत-कुछ सोचना-विचारना है हमको. कुछ लोग तो यह काम करते है. इसीलिए वे प्रवक्ता के रूप में सामने आते है. लेकिन ज्यादातर लोग क्या कर रहे हैं..? ये लोग उत्सव प्रेमी है. उत्सव मनाने में माहिर. खा-पीकर अघाये लोग… उत्सव के पीछे के भावः को समझाने की कोशिश ही नहीं करते. कोइ भी त्यौहार हो, उसके बहाने छुट्टी का मज़ा लूटेंगे, लेकिन मन को निर्मल करने का कोइ जतन नहीं करेंगे. मन में नफ़रत, घृणा, दुराचार-अत्याचार सब कुछ व्याप्त रहेगा. रावण मारेंगे साहब. उसे ऊंचा भी करते जा रहे है, लेकिन राम बेचारा बौना होता जा रहा है. राम याने मर्यादा पुरषोत्तम. अच्छे लोग हाशिये पर डाल दिए गए है. गाय की पूजा करेंगे औए गाय घर के सामने आ कर खड़ी हो जायेगी तो गरम पानी डाल कर या लात मार कर भगा देंगे. बुरे लोग नायक बनते जा रहे है. नई पीढी के नायक फ़िल्मी दुनिया के लोग है. राम-कृष्ण, महावीर, बुद्ध, गाँधी आदि केवल कैलेंदरो में ही नज़र आते है. यह समय उत्सव्जीवी समय है, इसीलिए तो शव होता जा रहा है. अत्याचार सह रहे है लेकिन प्रतिकार नहीं. प्रगति के नाम पर बेहयाई बढ़ी है. लोक तंत्र असफल हो रहा है. लोकतंत्र की आड़ में राजशाही फ़ैल रही है. देखे, समझें. और महान लोकतंत्र के लिए जनता को तैयार करें. विजयादशमी के अवसर पर एक बार फिर चिंतन करना होगा कि हम और क्या होंगे अभी..? एक लम्बा लेख भी मै लिख सकता हूँ, लेकिन इससे फायदा? लेखक-चिन्तक अपना खून जलाये, लेकिन आम लोग हम नहीं सुधरेंगे की फिल्म देखते रहे…? खैर…फ़िलहाल दशहरे के खास मौके पर प्रस्तुत है एक विचार-गीत. देखे, मेरे मन की पीडा क्या आप के मन की भी पीडा बन सकी है?

बहुत हो गया ऊंचा रावण, बौना होता राम,

मेरे देश की उत्सव-प्रेमी जनता तुझे प्रणाम.

नाचो-गाओ, मौज मनाओ, कहाँ जा रहा देश,

मत सोचो, कहे की चिंता, व्यर्थ न पालो क्लेश.

हर बस्ती में है इक रावण, उसी का है अब नाम….

नैतिकता-सीता बेचारी, करती चीख-पुकार,

देखो मेरे वस्त्र हर लिये, अबला हूँ लाचार.

पश्चिम का रावण हँसता है, अब तो सुबहो-शाम…

राम-राज इक सपना है पर देख रहे है आज,

नेता, अफसर, पुलिस सभी का, फैला गुंडा-राज.

डान-माफिया रावण-सुत बन करते काम तमाम…

मंहगाई की सुरसा प्रतिदिन, निगल रही सुख-चैन,

लूट रहे है व्यापारी सब, रोते निर्धन नैन.

दो पाटन के बीच पिस रहा. अब गरीब हे राम…

बहुत बढा है कद रावण का, हो ऊंचा अब राम,

तभी देश के कष्ट मिटेंगे, पाएंगे सुख-धाम.

अपने मन का रावण मारें, यही आज पैगाम…

कहीं पे नक्सल-आतंकी है, कही पे वर्दी-खोर,

हिंसा की चक्की में पिसता, लोकतंत्र कमजोर.

बेबस जनता करती है अब केवल त्राहीमाम..

बहुत हो गया ऊंचा रावण, बौना होता राम,

मेरे देश की उत्सव-प्रेमी जनता तुझे प्रणाम.

-गिरीश पंकज

3 COMMENTS

  1. मयंक जी, गीत पढ़ कर आपने कुछ लिखा , यह स्वागतेय है. देश के जो हालात है, उनको समझने की ज़रूरत है. उत्सव तो हम मनाये, मगर शव हो कर नहीं, शिव हो कर . मेरी पंक्ति है -नाचो-गाओ, मौज मनाओ, कहाँ जा रहा देश, मत सोचो, काहे की चिंता, व्यर्थ न पालो क्लेश. ऐसे अनेक मुद्दे मैंने अपने गीत में उठाये है. कुछ लोग तो चिंता करें. उत्सव से विरोध किसको है. लेकिन जो लोग केवल उत्सव ही मनाते रहते है, समस्याओं से उनका कोइ सरोकार नहीं रहता.दपने गीत में मई समस्याए ही नहीं गिनाई है, कुछ सुझाव भी दिए है, जैसे- बहुत बढा है कद रावण का, हो ऊंचा अब राम, तभी देश के कष्ट मिटेंगे, पाएंगे सुख-धाम. अपने मन का रावण मारें, यही आज पैगाम. उत्सव की सार्थकता तभी है-

  2. उत्सव मनाना आत्ममुग्धता नहीँ है,वेदव्यास ने लिखा है ‘उर्ध्वबाहुं विरोरम्य नहि कश्चित श्र्रणोति माम्‌,धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मँ किँ न सेव्यते’।धर्म का सेवन तो तब भी लोग नहीँ करते थे जब धरती पर पन्द्रह विश्वा पुण्य और पाँच विश्वा पाप का साम्राज्य था।आज तो स्थितियाँ बिल्कुल उलट है,ऐसे मेँ आग्रह है कि निराशा के स्थान पर आशावाद को अपनी लेखनी मेँ समाहित करेँ।मात्र चित्रण न करेँ,प्रेरणा देँ।समाज के सामने अनुकरणीय बनेँ।’निराशायां समं पापं मानवस्य न विद्यते,तां समूल समुत्सार्य आशावाद परो भव।’इतने श्रेष्ठ लेखन के लिए धन्यवाद।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,322 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress