कविता साहित्‍य

विजयादशमी हमारे आत्म-मंथन का दिन है

shastra_pujaहम पराजित किस्म के लोग विजयादशमी मनाकर खुश होने का स्वांग भरते रहते हैं. बहुत-कुछ सोचना-विचारना है हमको. कुछ लोग तो यह काम करते है. इसीलिए वे प्रवक्ता के रूप में सामने आते है. लेकिन ज्यादातर लोग क्या कर रहे हैं..? ये लोग उत्सव प्रेमी है. उत्सव मनाने में माहिर. खा-पीकर अघाये लोग… उत्सव के पीछे के भावः को समझाने की कोशिश ही नहीं करते. कोइ भी त्यौहार हो, उसके बहाने छुट्टी का मज़ा लूटेंगे, लेकिन मन को निर्मल करने का कोइ जतन नहीं करेंगे. मन में नफ़रत, घृणा, दुराचार-अत्याचार सब कुछ व्याप्त रहेगा. रावण मारेंगे साहब. उसे ऊंचा भी करते जा रहे है, लेकिन राम बेचारा बौना होता जा रहा है. राम याने मर्यादा पुरषोत्तम. अच्छे लोग हाशिये पर डाल दिए गए है. गाय की पूजा करेंगे औए गाय घर के सामने आ कर खड़ी हो जायेगी तो गरम पानी डाल कर या लात मार कर भगा देंगे. बुरे लोग नायक बनते जा रहे है. नई पीढी के नायक फ़िल्मी दुनिया के लोग है. राम-कृष्ण, महावीर, बुद्ध, गाँधी आदि केवल कैलेंदरो में ही नज़र आते है. यह समय उत्सव्जीवी समय है, इसीलिए तो शव होता जा रहा है. अत्याचार सह रहे है लेकिन प्रतिकार नहीं. प्रगति के नाम पर बेहयाई बढ़ी है. लोक तंत्र असफल हो रहा है. लोकतंत्र की आड़ में राजशाही फ़ैल रही है. देखे, समझें. और महान लोकतंत्र के लिए जनता को तैयार करें. विजयादशमी के अवसर पर एक बार फिर चिंतन करना होगा कि हम और क्या होंगे अभी..? एक लम्बा लेख भी मै लिख सकता हूँ, लेकिन इससे फायदा? लेखक-चिन्तक अपना खून जलाये, लेकिन आम लोग हम नहीं सुधरेंगे की फिल्म देखते रहे…? खैर…फ़िलहाल दशहरे के खास मौके पर प्रस्तुत है एक विचार-गीत. देखे, मेरे मन की पीडा क्या आप के मन की भी पीडा बन सकी है?

बहुत हो गया ऊंचा रावण, बौना होता राम,

मेरे देश की उत्सव-प्रेमी जनता तुझे प्रणाम.

नाचो-गाओ, मौज मनाओ, कहाँ जा रहा देश,

मत सोचो, कहे की चिंता, व्यर्थ न पालो क्लेश.

हर बस्ती में है इक रावण, उसी का है अब नाम….

नैतिकता-सीता बेचारी, करती चीख-पुकार,

देखो मेरे वस्त्र हर लिये, अबला हूँ लाचार.

पश्चिम का रावण हँसता है, अब तो सुबहो-शाम…

राम-राज इक सपना है पर देख रहे है आज,

नेता, अफसर, पुलिस सभी का, फैला गुंडा-राज.

डान-माफिया रावण-सुत बन करते काम तमाम…

मंहगाई की सुरसा प्रतिदिन, निगल रही सुख-चैन,

लूट रहे है व्यापारी सब, रोते निर्धन नैन.

दो पाटन के बीच पिस रहा. अब गरीब हे राम…

बहुत बढा है कद रावण का, हो ऊंचा अब राम,

तभी देश के कष्ट मिटेंगे, पाएंगे सुख-धाम.

अपने मन का रावण मारें, यही आज पैगाम…

कहीं पे नक्सल-आतंकी है, कही पे वर्दी-खोर,

हिंसा की चक्की में पिसता, लोकतंत्र कमजोर.

बेबस जनता करती है अब केवल त्राहीमाम..

बहुत हो गया ऊंचा रावण, बौना होता राम,

मेरे देश की उत्सव-प्रेमी जनता तुझे प्रणाम.

-गिरीश पंकज