विश्वविद्यालयों के लालरंग में दबा आम जनमानस का साहित्य

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साहित्य यूँ तो समाज का दर्पण कहा जाता है लेकिन क्या हो जब यह दर्पण किसी ख़ास विचारधारा का मुखपत्र भर बन कर रह जाये ? क्या हो जब साहित्य के नाम पर विचारधारा का प्रचार किया जाने लगे .साहित्य की दुनिया में एक खास विचारधारा की तानाशाहियों पर खुलकर बातचीत की हिंदी –विभाग,दिल्ली –विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर चन्दन कुमार से प्रभांशु ओझा ने प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश –

प्रभांशु -सबसे पहला प्रश्न तो यही कि साहित्य और विचारधारा का क्या सम्बन्ध है ?

प्रो.चन्दन कुमार-साहित्य और विचारधारा का सम्बन्ध जीवंतता (liveness) का सम्बन्ध है .यह सम्बन्ध स्वांग का सम्बन्ध नहीं है .हम जैसा होना चाहते हैं ,जो हमारी महत्वाकांक्षाएं हैं ,जैसा समाज हम रचना चाहते हैं ,साहित्य उसका एक माध्यम है .साहित्य समाज के भदेसपन की व्याख्या नहीं है ,बल्कि हमारी अतृप्तियों का विस्तार है.

प्रभांशु -साहित्य और विचारधरा के संबंधों को जिस तरह से आपने व्याख्यायित किया उसके अनुसार फिर साहित्य को ख़ास विचारधरा के प्रचार का माध्यम बनाया जाना कहाँ तक उचित है ?

प्रो.चन्दन कुमार-मैंने जैसे –जैसे आईडियोलॉजिकल होश सम्हाली एक खास विचारधारा का आतंक देखा .विश्वविद्यालयों की विचारधारा को समझने में थोड़े दिन लग गए .मै जो साहित्य पढता था उसकी शुरुआत विखंडन से होती थी ,वहां आलोचना की समाजशास्त्रीय दृष्टि पढ़ाई जाती थी ,वहां नकासल्वादी कविता पढ़ाई जाती थी ,वहां समाज को टुकड़ों में बाटनें वाली विचारधारा पढ़ाई जाती थी और मै अक्सर सोच में पड़ता की क्या यह साहित्य के वास्तविक मूल्यबोध के अनुरूप है ? जबकि सच तो यह है की साहित्य समझने की दृष्टि ,यथार्थ से उसके रिश्ते ,साहित्य के समाज से रिश्ते साहित्य के हेतु और टूल्स तथा वो तमाम प्रतिमान ,बिम्ब और मूल्यबोध जिनसे की साहित्य को समझा जा सकता है ,साहित्य पर हावी एक विचारधारा विशेष इन सब की अवहेलना करती है.भारतीयता का साहित्य हमारे जीवन का आइना है जहाँ समानता ,एकता और बंधुत्व की अविरल धारा है जबकि वर्तमान साहित्य ने उसे तोड़ दिया है ,बाँट दिया है.

प्रभांशु -अच्छा साहित्य क्या है इसको तय करने का पैमाना क्या है ?

प्रो.चन्दन कुमार-यह आपने बहुत अच्छा सवाल पूछा. हिंदी साहित्य की दुनिया में महान साहित्यकार बनाने की ‘ग्रेट मैन्युफैक्चरिंग फैक्ट्री’ चली थी.जहां आप तमाम तरह के वामपंथी संगठनों के सदस्य बनिए ,किसी जनसंस्कृति मंच का हिस्सा बनिए और पुरस्कार ले जाइए .आप रातों रात आड़ी तिरछी लाइनें लिखकर महान बन जाएँगे, आप विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में पढाए जाएंगे और आप सैकड़ों पन्नों के शोध लिखे जाएंगे. अगर आप इस तरह के किसी मंच का हिस्सा नहीं हैं तो अच्छा लिखर मर जाइए आपकी खबर लेने वाला कोई नहीं है. पूरी बेबाकी के साथ मै यह कहना चाहूँगा कि जो समाज में लोकप्रिय कवि और साहित्यकार हैं वो हिंदी के अकादमिक पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं हैं और जो अकादमिक जगत के हीरो हैं उन्हें समाज अपना कवि नहीं मानता .यकीन न हो तो एक बार इन्हें पाठ्यक्रमों से निकाल कर देख लीजिए और बताइए की फिर इनकी कितनी किताबें बिकती हैं!

प्रभांशु -नया साहित्य कैसा हो ? क्या आप विश्वविद्यालय के साहित्य के पाठ्यक्रमों में बदलाव की जरूरत महसूस करते हैं?

प्रो.चन्दन कुमार- मेरा स्पष्ट रूप से मानना है की विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम साहित्य के निजी उद्देश्यों के ही खिलाफ है.पाठ्यक्रमों पर गहराया लाल रंग न तो हिंदी के विद्यार्थी के लिए अच्छा है और ना ही समाज के लिए .यह उनपर जबरदस्ती आरोपित किया गया है .यह स्थिति सिर्फ लिट्रेचर में ही नहीं बल्कि ह्युमिनीटीज और सोशल साइंसेस हर जगह पर है जिसमे बिना बिलम्ब किये बदलाव किये जाने की आवश्यकता है .पूँजी और टेक्नोलोजी के खेल ने विचारधारा के वामपंथी चिंतन को उड़ा दिया है और उनका आरोपित ग्रेटनेस का स्ट्रक्चर भरभरा चूका है.जरूरत है की हिंदी का पाठ्यक्रम ,शिक्षक और विद्यार्थी बदलते समाज के अनुरूप ढले.

 

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